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भारत में 'अधिकतम आठ घंटे काम’ आंदोलन की मुनादी का समय

‘श्रम सुधारों’ के नाम पर काम के घंटे बढ़ाने और सेवा सुरक्षा को नष्ट किया जा रहा है। हद तो ये है कि केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अन्ना सेबेस्टियन की मौत के लिए एक तरह से उसे ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया। 
पंकज श्रीवास्तव

रणविजय गौतम 23 सितंबर की दोपहर नोएडा स्थित नेटवर्क 18 के अपने दफ़्तर पहुँचे थे। दोपहर की शिफ़्ट थी। गाड़ी खड़ी करके गेट तक पहुँचे ही थे कि अचानक कराहते हुए लड़खड़ा उठे। आसपास के लोग अस्पताल लेकर पहुँचे लेकिन डॉक्टरों के लिए करने को कुछ बचा नहीं था। रणविजय की उम्र चालीस के आसपास थी।

रणविजय को जानने वाले उन्हें एक बेहद शालीन, मेहनती और संभावनाओं से भरे व्यक्ति के रूप में याद कर रहे हैं, जो वह थे भी। लेकिन इस पर चर्चा फ़िलहाल नहीं हो रही है कि न्यूज़ चैनलों के दफ़्तरों में हर वक़्त पसरा रहने वाला तनाव और दबाव भी उसकी मौत की वजह हो सकती है। हर क्षण टीआरपी में आगे जाने का दबाव और औसतन ग्यारह-बारह घंटे रोज़ काम करने वालों की ज़िंदगी में ख़ुद को स्वस्थ और ख़ुश रखने का कितना समय बचता होगा, इसका बस अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

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लेकिन 26 वर्षीय अन्ना सेबेस्टियन के परिजन उसकी मौत के लिए सीधे कॉरपोरेट कंपनियों के ‘वर्क-कल्चर’ को ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं। पुणे में ‘अर्नस्ट एंड यंग’ में काम करने वाली अन्ना सेबेस्टियन की मौत 20 जुलाई को हार्ट अटैक से हुई थी। अन्ना की माँ अनीता सेबेस्टियन ने इल्ज़ाम लगाया है कि फर्म ने उनकी बेटी पर काम का जो बोझा डाला उससे दबकर उसकी मौत हो गई। कंपनी हेड को लिखा उनका एक पत्र सोशल मीडिया में वायरल है जिसमें उन्होंने लिखा है “वह देर रात तक तक काम करती रहती थी, यहाँ तक कि सप्ताहांत में भी, और उसे साँस लेने की फुर्सत भी न थी। …नए लोगों पर ऐसा कमरतोड़ काम का बोझा डालना, उन्हें दिन रात, यह तक कि इतवार को भी काम करने को मजबूर करना किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। नए कर्मचारी के प्रति थोड़ा संवेदनशील होना ज़रूरी था। इसके उलट प्रबंधन ने उसके नए होने का फ़ायदा उठाया…।”

अन्ना की माँ ने जो लिखा है वह कॉरपोरेट कंपनियों का वह अँधेरा पक्ष है जो अब जानलेवा बन गया है। ये कंपनियाँ भारतीय संदर्भ में कथित तौर पर अच्छा वेतन तो देती हैं लेकिन तीन कर्मचारियों का काम एक कर्मचारी से लेती हैं और उसके सामने एक अव्यावहारिक लक्ष्य (टार्गेट) रख देती हैं। हर वक़्त नौकरी जाने का ख़तरा बना रहता है। ऐसे में कथित अच्छे वेतन से किस्तों में घर और गाड़ी ख़रीदकर बंधक बन चुके कर्मचारी के लिए नौकरी बचाना पहली शर्त होती है। वह कंपनी की हर अमानवीय माँग के आगे झुकता चला जाता है। कोरोना दौर में तेज़ी से फैले ‘वर्क फ़्रॉम होम’ कान्सेप्ट ने तो उसे चौबीस घंटे का गुलाम बना दिया है। हालाँकि वह पहले भी मोबाइल और ईमेल के ज़रिए चौबीस घंटे कंपनी के चंगुल में रहता ही था। चूँकि श्रम संगठनों को विकास विरोधी बताने के विकट प्रचार अभियान का कॉरपोरेट कर्मचारी ख़ुद शिकार है, इसलिए सोच भी नहीं पाता कि काश कोई यूनियन होती जो उसकी सेवा शर्तों और कार्य-संस्कृति पर बात करती। लीजेंड की हैसियत पा चुके इन्फ़ोसिस संस्थापक नारायण मूर्ति जैसे नये ‘कॉरपोरेट भगवानों’ ने हफ़्ते में सत्तर घंटे काम करने का आह्वान करके साफ़ संदेश दे दिया है कि कॉरपोरेट वेतन से मिला ‘जीवन स्तर’ बनाये रखना है तो ख़ुद को पूरी तरह से इस भट्ठी में झोंक देना होगा।

लेकिन काम के घंटे और कार्यस्थल के दबाव का सवाल दिनों दिन गहराता जा रहा है। तमिलनाडु में सैमसंग जैसी प्रतिष्ठित कंपनी के हज़ारों कर्मचारी बीते 12 दिनों से हड़ताल पर हैं। उनकी शिकायतें भी काम के घटों को लेकर हैं। कर्मचारियों की माँग है कि  मैनेजमेंट उनकी यूनियन 'द सैमसंग इंडिया लेबर वेलफे़यर यूनियन' (एसआईएलडब्ल्यूयू) को मान्यता दे जिसके नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा कर्मचारी सदस्य हैं। वे मानते हैं कि केवल यूनियन ही कंपनी से बेहतर वेतन, काम के घंटे और कार्यस्थल के दबाव पर बात कर सकती है।
ऐसा लगता है कि इतिहास-चक्र घूम रहा है। कॉरपोरेट दुनिया की चकाचौंध में शामिल ‘श्रम की लूट’ का रहस्य खुल गया है और भारत में भी ‘एट आवर्स मूवमेंट’ का समय आ गया है जिसने कभी पूँजीवादी शोषण चक्र पर रोक लगाने में ऐतिहासिक क़ामयाबी पायी थी।

दिन को ‘आठ घंटे काम, आठ घंटे विश्राम और आठ घंटे मनोरंजन’ को मानवीय जीवनचर्या में बाँटने वाला यह आंदोलन मानव सभ्यता की राह मे एक उपलब्धि की तरह है। इस माँग के लिए संघर्ष करने वाले जिन मज़दूरों के ख़ून से झंडा लाल हुआ था वे किसी समाजवादी देश में नहीं, पूँजीवाद के शिखर अमेरिका के शिकागो शहर में काम करते थे। उन्हीं के संघर्ष की याद में दुनिया भर में 1 मई को मज़दूर दिवस मनाया जाता है। उनकी माँग आज संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यताओं का हिस्सा है। 

दुनिया भर में मज़दूरों का त्योहार कहे जाने वाला ‘मई दिवस’ शिकागो के मज़दूरों की शहादत से जन्मा था। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर सोलह-अठारह घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। 'सूरज उगने से लेकर रात होने तक' मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। यूँ तो दुनिया भर में अलग-अलग जगह इस माँग को लेकर आन्दोलन होते रहे थे लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई।

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औद्योगिक क्रांति की वजह से अमेरिका में एक विशाल मज़दूर वर्ग पैदा हुआ था। उस समय अमेरिका में मज़दूरों को 12 से 18 घण्टे तक खटाया जाता था। बच्चों और महिलाओं का 18 घण्टों तक काम करना आम बात थी। अधिकांश मज़दूर अपने जीवन के 40 साल भी पूरे नहीं कर पाते थे। अगर मज़दूर इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते थे तो उन पर निजी गुण्डों, पुलिस और सेना से हमले करवाये जाते थे।

आख़िरकार मज़दूरों ने लड़ने का फ़ैसला किया। 1877 से 1886 तक मज़दूरों ने अमेरिका भर में ‘आठ घण्टे के कार्यदिवस’ की माँग पर एकजुट और संगठित होना शुरू किया। 1886 में पूरे अमेरिका में मज़दूरों ने ‘आठ घण्टा समितियाँ’ बनायीं। पहली मई 1886 को पूरे अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने एक साथ हड़ताल शुरू की। इसमें 11,000 फ़ैक्टरियों के कम से कम तीन लाख अस्सी हज़ार मज़दूर शामिल थे। शिकागो महानगर के आसपास सारा रेल यातायात ठप्प हो गया। पूँजीपतियों ने इस ‘आपातकाल’ का मुक़ाबला करने के लिए पुलिस और गुंडों का उपयोग किया। 3 मई को मज़दूरों की एक सभा पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं जिसमें छह मज़दूर शहीद हुए और दो सौ से ज़्यादा घायल हुए। हद तो ये कि इसकी ज़िम्मेदारी भी मज़दूर नेताओं पर डाली गयी। आठ मज़दूर नेताओं को न्याय के नाटक के बाद फाँसी की सज़ा सुना दी गयी। लेकिन इस आंदोलन की धमक ने श्रम की लूट से मुनाफ़ा बढ़ाने वालों को आतंकित कर दिया। उन्हें समझ में आ गया कि समझौता नहीं करने पर मज़दूरों के ग़ुस्से की आग में सब कुछ जल जायेगा। अंततः मज़दूरों के आठ घंटे काम के अधिकार को मान्यता देकर संकट से निजात पा ली गयी।

लेकिन भारत में 'क्रोनी स्वरूप' ग्रहण कर चुकी कॉरपोरेट पूँजी उस ऐतिहासिक समझौते को मानने से इंकार कर रही है। भारत जैसे विकासशील देशों में मुनाफ़े की हवस का सरकार भी पूरा साथ दे रही है।

‘श्रम सुधारों’ के नाम पर काम के घंटे बढ़ाने और सेवा सुरक्षा को नष्ट किया जा रहा है। हद तो ये है कि केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अन्ना सेबेस्टियन की मौत के लिए एक तरह से उसे ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया। चेन्नई के एक कॉलेज के कार्यक्रम में उन्होंने अन्ना का ज़िक्र करते हुए कहा कि  “दबाव से निपटने के लिए एक आंतरिक शक्ति होनी चाहिए। दबावों से केवल ईश्वर पर भरोसा करके ही निपटा जा सकता है।”

बेहद आध्यात्मिक कहे जाने वाले नारायण मूर्ति के हफ़्ते में सत्तर घंटे काम के आह्वान को इससे जोड़कर देखने पर श्रम की लूट को लेकर कॉरपोरेट और सरकार की मिलीभगत स्पष्ट हो जाती है। ये लोग श्रम की लूट को ‘ईश्वरीय’ विधान बता रहे हैं जैसे कभी ‘राजतंत्र’ और ‘मानव-द्रोही’ वर्ण-व्यवस्था के सिद्धांत को बताया गया था।

सरकारी आँकड़ा बताता है कि 2022 में भारत के कारख़ानों में काम करने वाले हर पाँच में तीन कामगार ठेके पर काम कर रहा है। यानी भारत के चालीस फ़ीसदी कामगार अस्थायी हैं और इस भीषण बेरोज़गारी के दौर में नौकरी बचाने के लिए किसी भी अमानवीय स्थिति में काम करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन यह मजबूरी अब जानलेवा बनती जा रही है। यह सही समय है कि भारत में भी आठ घंटे काम के सिद्धांत को लेकर राष्ट्रीय बहस शुरू हो।

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आमतौर पर माना जाता है कि आर्थिक नीतियों के मामले में पक्ष और विपक्ष में फ़र्क़ नहीं है। लेकिन इधर कुछ सुखद संकेत उभरे हैं। नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने अन्ना सेबेस्टियन के परिजनों से बात करने के बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा कि ‘अन्ना का जीवन विषाक्त और अक्षम्य कार्य स्थितियों के कारण दुखद रूप से छोटा हो गया।…मैंने अन्ना के परिवार को अपनी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी के पूर्ण समर्थन का वादा किया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह त्रासदी बदलाव के लिए उत्प्रेरक बने।'

वहीं कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी अन्ना के परिजनों को आश्वासन दिया कि 'मैं संसद में सभी कार्यस्थलों के लिए एक निश्चित कार्यकाल का मुद्दा उठाऊँगा, चाहे वह निजी क्षेत्र हो या सरकारी। यह कार्यकाल सप्ताह में पाँच दिन और प्रतिदिन आठ घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए।’

यक़ीनन, ‘अधिकतम आठ घंटे काम’ मनुष्य के मनुष्य रहने की शर्त है। और भारतीयों को भी मनुष्य की संपूर्ण गरिमा के साथ जीने का हक़ है।

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