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धर्मनिरपेक्षता नहीं, संविधान के मूल ढाँचे पर हमला किया राज्यपाल रवि ने!

आरएसएस और उसके नुमाइंदे अरसे से धर्मनिरपेक्षता के भाव को न समझकर शब्दों का खेल खेलते हुए दुष्प्रचार में जुटे हैं। लेकिन जब कोई राज्यपाल ऐसा करता है तो वह संविधान की शपथ का उल्लंघन कर रहा होता है। 
पंकज श्रीवास्तव

आज़ादी के अमृत-काल की अब एक पहचान यह भी बन गयी है कि संवैधानिक पद पर बैठे लोग संविधान और उसकी मूल आत्मा पर लगातार हमला करें। तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि का ‘धर्म-निरपेक्षता’ को यूरोपीय अवधारणा बताते हुए यह कहना कि इसकी भारत को ज़रूरत नहीं है, इसी सिलसिले की ताज़ा कड़ी है। राज्यपाल के इस बयान से आरएसएस तो ख़ुश हो सकता है, लेकिन यह संविधान पर सीधा हमला और स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों का अपमान है।

कन्याकुमारी में कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए राज्यपाल महोदय ने कहा कि "यूरोप में धर्म-निरपेक्षता इसलिए आयी क्योंकि चर्च और राजा के बीच लड़ाई हुई थी... भारत 'धर्म' से कैसे दूर हो सकता है? धर्म-निरपेक्षता एक यूरोपीय अवधारणा है और इसे वहीं रहने दें। भारत में धर्म-निरपेक्षता की कोई ज़रूरत नहीं है।” इतना ही नहीं, शहीद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पर अशोभनीय टिप्पणी करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि "एक असुरक्षित प्रधानमंत्री ने आपातकाल के दौरान संविधान में धर्म-निरपेक्षता शब्द को कुछ वर्ग के लोगों को खुश करने के लिए जोड़ा!”

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केरल कैडर के आईपीएस रहे आर.एन. रवि ने संविधान और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास न पढ़ा हो, यक़ीन करना मुश्किल है। ऐसी बातें करके वे पीएम मोदी के आँख के तारे बने होंगे, यह समझा जा सकता है, लेकिन राज्यपाल पद पर बैठने के बाद यह कहकर वे संवैधानिक मर्यादाओं को निभाने का अपना ‘धर्म’ त्याग रहे हैं। वे उसी संविधान पर हमला कर रहे हैं जिसकी शपथ लेकर वे राज्यपाल पद पर आसीन हैं।

आर.एन. रवि महोदय अगर धर्म-निरपेक्षता को ‘यूरोपीय’ अवधारणा होने की वजह से भारत के लिए ग़ैरज़रूरी समझ रहे हैं तो फिर हमारी संसदीय प्रणाली भी ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर सिस्टम के आधार पर ही रची गयी है। यह कहना फ़िज़ूल है कि प्राचीन भारत में भी गणतंत्र होते थे। ऐसा कोई गणतंत्र कभी अस्तित्व में नहीं रहा जिसमें बिना किसी भेदभाव के ‘वयस्क मताधिकार’ का सिद्धांत अपनाया गया हो। वह ‘गणों का तंत्र’ था जिसमें ‘गण-प्रमुख’ ही ‘सभासद’ होते थे। यह प्रणाली भी बेहद सीमित समय के लिए चल पायी। स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने वाले नरेशों ने गणतंत्र प्रणाली को विस्तार ही नहीं लेने दिया।

एक लिहाज़ से देखा जाये तो ‘राज-तंत्र’ ही ‘शुद्ध’ भारतीय शासन प्रणाली है। तो क्या इस आधार पर भारत में फिर राजतंत्र स्थापित किया जाना चाहिए? क्या मोदी जी के सेंगोल-कांड में राज्यपाल महोदय यही दिशा खोज रहे हैं? वैसे, वे जिस सूट को धारण करते हैं, वह भी पश्चिम की ही देन है। बिजली, पेन, मोबाइल, कंप्यूटर, कार ही नहीं, शौचालय का कमोड तक उसी की देन है तो क्या राज्यपाल महोदय इनका इस्तेमाल बंद करने की सलाह देंगे? 
सच ये है कि किसी विचार का कोई देश नहीं होता। अगर विचार मानवता के हित में है तो वह देश की सीमाओं को पार करेगा। इस मामले में सभ्यताओं ने हमेशा एक दूसरे से सीखा है। विज्ञान के तमाम प्रयोग और आविष्कार भी उसी देश की बपौती नहीं होते जहाँ वह पहली बार सामने आते हैं। उत्पाद का तो ‘पेटेंट’ हो सकता है, लेकिन विचार का नहीं।

राज्यपाल ने एक ‘असुरक्षित प्रधानमंत्री’(?) बतौर इंदिरा गाँधी पर संविधान की प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्षता शब्द जुड़वाने का आरोप लगाया है ताकि ‘कछ वर्गों को ख़ुश’ किया जा सके। अगर वाक़ई ऐसा है तो राज्यपाल महोदय को स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए। आज़ाद भारत एक ‘धर्म-निरपेक्ष राज्य’ होगा, यह समझ तो पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में आम थी। गाँधी और नेहरू का हवाला देना ही बेकार है लेकिन क्या आर.एन. रवि महोदय सरदार पटेल को भी ‘कुछ वर्गों को ख़ुश करने’ की इच्छा रखने वाले असुरक्षित नेता के रूप में याद करना चाहेंगे? कांग्रेस के 1931 का कराची अधिवेशन सरदार पटेल की अध्यक्षता में हुआ था जिसमें ‘नागरिकों को अपने धर्म में स्वतंत्रता-पूर्वक विश्वास प्रकट करने व उसके पालन के अधिकार’ की  गारंटी दी गयी थी। सरदार पटेल ने 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में घोषणा की थी कि ‘कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक ‘सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य’ हो!’ यही नहीं, सरदार पटेल ने फ़रवरी 1949 में हिंदू राष्ट्र की चर्चा को एक ‘पागलपन भरा विचार’ बताया और 1950 में एक भाषण में कहा कि,

“हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है… यहाँ हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और इस देश के लायक़ नहीं हैं।” ( आज़ादी के बाद का भारत, लेखक- बिपिन चंद्र) 

यानी स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्प के रूप में विकसित संविधान अपनी मूल प्रकृति में ही ‘धर्म-निरपेक्ष’ था। संविधान की मूल प्रस्तावना में भी ‘विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता’ की बात साफ़ तौर पर दर्ज थी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1973 में केशवनांद भारती बनाम केरल राज्य केस में आये सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में ‘धर्म-निरपेक्षता’ को संविधान का हिस्सा बता दिया था। इसी को और स्पष्ट करने के लिए 1976 में 42वें संविधान संशोधन में ‘पंथनिरपेक्ष, समाजवादी और अखंडता’ शब्द जोड़े गये। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1977 में बनी जनता पार्टी सरकार ने इमरजेंसी दौरान लिये गये तमाम फ़ैसलों को बदला, लेकिन 42वें संविधान संशोधन पर कभी सवाल नहीं उठाया।

विचार से और

1994 में एसआर बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर ‘धर्म-निरपेक्षता’ को संविधान के ‘मूल ढांचे का एक अभिन्न हिस्सा’ बताया। यानी संसद किसी भी संशोधन के ज़रिए इस मूल संकल्प को बदल नहीं सकती। आरएसएस/बीजेपी ख़ेमे की बेचैनी की सबसे बड़ी वजह यही है जो किसी न किसी रूप से निकलती रहती है। यहाँ तक कि मोदी सरकार की ओर से राज्यसभा का सदस्य बनाये गये पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भी ‘संविधान के मूल ढाँचे के न्यायशास्त्र’ पर सवाल उठा दिया था।

राज्यपाल आर.एन. रवि ने यूरोप में ‘चर्च और राज्य की लड़ाई से पैदा हुए धर्मनिरपेक्षता के विचार’ की याद दिलाते हुए पूछा है कि भारत धर्म से कैसे दूर रह सकता है? लेकिन क्या भारत धर्म-निरपेक्षता की ऐसी अवधारणा पर चला है जहाँ धर्म का स्थान न हो? इस संदर्भ में नेहरू जी ने स्पष्ट किया था कि ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ यह नहीं है कि लोग अपने-अपने धर्म को त्याग दें, बल्कि इसका अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों की सुरक्षा करे किंतु किसी दूसरे की क़ीमत पर किसी एक धर्म का पक्ष-पोषण न करे और न ही किसी धर्म को ‘राज्य-धर्म’ के रूप में स्वीकार करे। नेहरू मानते थे कि लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं और संयुक्त रूप से ही भारत को विकसित देश बना सकते हैं।’

भारत धर्म-निरपेक्षता की किसी यूरोपीय अवधारणा पर नहीं चला, बल्कि यह 'सर्वधर्म समभाव’ की विशुद्ध भारतीय परंपरा का वाहक है। यह वह परंपरा है जहाँ धर्म की अत्यंत विरोधी मान्यताओं का सहअस्तित्व स्वीकारा गया है।
यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व का निषेध करने वाले बौद्ध और जैन दर्शन को भी ‘धर्म’ माना गया और परलोक की कल्पना को बकवास करार देने वाले चार्वाक दर्शन के प्रणेता ब्रहस्पति को ऋषि की संज्ञा दी गयी। यानी सभी अपनी मान्यताओं के साथ प्रसन्न रहें और राज्य इसमें हस्तक्षेप न करे, यह भारत की परंपरा है जो संविधान में परिलक्षित हुई है।
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एक सवाल अक्सर उठता है कि संविधान की मूल प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द क्यों नहीं रखा गया था। एक जवाब तो यह है कि जब पूरा ढाँचा ही धर्म-निरपेक्षता पर आधारित हो तो अलग से कहने की ज़रूरत नहीं थी। महात्मा गाँधी के साथ ‘अहिंसक’ या ‘सत्यवादी’ जैसे विशेषण लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जिनका नाम ही इन विशेषणों का पर्याय है। लेकिन एक दूसरा जवाब भी है जो कम महत्वपूर्ण नहीं। दरअसल, भारत की जटिल सामाजिक स्थिति को देखते हुए राज्य को धर्म के मामले में हस्तक्षेप की ज़रूरत थी। याद कीजिए वर्णव्यवस्था, ऊँच-नीच, स्त्री को पराधीन मानने जैसी बहुत सी मान्यताएँ ‘धर्म-शास्त्रों’ के आधार पर उचित ठहरायी जाती थीं जिसे एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य कभी स्वीकार नहीं कर सकता था। ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द लिख देने में एक ख़तरा यह था कि सुधार की कोशिशों को क़ानूनी चुनौती मिल सकती थी। यह महज़ कल्पना नहीं है। ज़मींदारी उन्मूलन को कई अदालतों ने इस आधार पर ग़लत ठहरा दिया था कि संविधान 'निजी संपत्ति’ का अधिकार देता है। यही नहीं, ‘समानता के अधिकार’ के तर्क पर दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को भी क़ानूनी रूप से ग़लत ठहरा दिया गया था! इन कुटिलताओं से मुक़ाबले के लिए ही संविधान में पहला संशोधन किया गया था।

आरएसएस और उसके नुमाइंदे अरसे से धर्मनिरपेक्षता के भाव को न समझकर शब्दों का खेल खेलते हुए दुष्प्रचार में जुटे हैं। लेकिन जब कोई राज्यपाल ऐसा करता है तो वह संविधान की शपथ का उल्लंघन कर रहा होता है। संवैधानिक पद पर बैठकर संविधान के मूल ढाँचे पर हमला करना अनैतिक तो है ही, ग़ैरक़ानूनी चाहे न हो।

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