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“स्वराज चंद लोगों के सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं आयेगा बल्कि उन सभी के प्रतिरोध की क्षमता हासिल करने से आयेगा जिससे कि वे सत्ता का दुरुपयोग होने पर उसका प्रतिरोध कर सकें” - महात्मा गाँधी
महात्मा गाँधी का ये अमर वाक्य आज भी किताबों में दर्ज है। लेकिन विदेश में ‘गाँधी के देश’ का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने महात्मा गाँधी के स्वराज की परिभाषा को अपने दफ़्तर के कूड़ेदान में फेंक दिया है। जब पूरी दुनिया महात्मा गाँधी के 155वें जन्मदिन पर सत्य और अहिंसा को लेकर किये गये उनके महान प्रयोग को याद कर रही है तो दिल्ली में राजघाट पर उनकी समाधि संगीनों के साये में सिसक रही है। गेट पर सरकारी ताला लगा है और वहाँ पहुँचने की कोशिश कर रहे गाँधी के अनुयायियों के साथ अपराधी की तरह व्यवहार किया जा रहा है। आज़ादी के अमृतकाल में मोदी सरकार आज़ादी के विचार के सामने ‘काल’ बनकर खड़ी है।
महात्मा गाँधी के जन्म दिवस की पूर्व-रात्रि में लद्दाख से सात सौ किलोमीटर पदयात्रा करके दिल्ली पहुँचे पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक और उनके क़रीब डेढ़ सौ साथियों की गिरफ़्तारी का दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता। पहले उन्हें सिंघु बॉर्डर पर हिरासत में ले लिया गया था जिसकी उचित ही व्यापक निंदा हुई थी। चौतरफ़ा दबाव के बाद 1 अक्टूबर की रात उन्हें छोड़ दिया गया, लेकिन जब उन्होंने राजघाट जाकर महात्मा गाँधी की समाधि पर श्रद्धांजलि देने का इरादा नहीं छोड़ा तो उन्हें फिर हिरासत में ले लिया गया। हैरानी की बात है कि दिल्ली पुलिस ने भी उनके इस इरादे को ‘आपराधिक’ माना है। यह सोच पुलिस का नहीं, मोदी सरकार का है।
सोनम वांगचुक वही हैं जिन्हें आधार बनाकर आमिर ख़ान ने थ्री ईडियट्स फ़िल्म में फुंगशुक वांगडू यानी रैंचो का अपना किरदार गढ़ा था। आमिर ख़ान ने 2009 में रिलीज़ इस सुपरहिट फ़िल्म की शूटिंग शुरू होने से पहले सोनम वांगचुक के जीवन पर बनी डॉक्यूमेंट्री भी देखी थी। 1966 में जन्मे सोनम वांगचुक ने श्रीनगर से इंजीनियरिंग करने के बाद लद्दाख के बर्फीले रेगिस्तान में शिक्षा और पर्यावरण सुधार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। उनका स्टूडेंट एजूकेशनल एंड क्लचरण मूवमेंट ऑफ़ लद्दाख यानी ‘सेकमॉल’ देश में ‘सर्व-शिक्षा अभियान’ शुरू होने के दस साल पहले से सक्रिय है जहाँ पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था के तहत फेल कर दिये गये छात्रों को शिक्षा के अभिनव प्रयोग से जोड़ा जाता है जिससे वे आगे जाकर जीवन के विविध क्षेत्रों में सफल होते हैं। इसी तरह लद्दाख में खेती और वृक्षारोपण के लिए पानी की कमी पूरा करने के लिए उन्होंने बर्फ़ के स्तूप बनाने का अभियान चलाया जो काफ़ी सफल रहा। 40 मीटर ऊँचे इन स्तूपों से दस हेक्टयर ज़मीन की सिंचाई हो सकती है। ये स्तूप 1 करोड़ 60 लाख लीटर पानी की व्यवस्था करते हैं। बिजली की कमी के लिए हर तरफ़ सोलर पावर है।
2019 में मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाते हुए पूर्ण राज्य का उसका दर्जा भी समाप्त कर दिया था। इसी के साथ लेह और करगिल को मिलाकर लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया।
पिछले चार साल से लद्दाख के लोग राज्य का दर्जा पाने और लद्दाख को संविधान की छठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की माँग कर रहे हैं। भारतीय संविधान की छठवीं अनुसूची के तहत असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा में स्वायत्त ज़िला परिषदों की स्थापना की गयी है। इसके पीछे पर्वतीय क्षेत्रों में जनजातीय पहचान और प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनजातियों का नियंत्रण सुनिश्चित करना है। भाषा, जीवनशैली और संस्कृति को सुरक्षित रखने का यह संवैधानिक प्रावधान अब लद्दाख के लोग भी माँग रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि सोनम वांगचुक अचानक दिल्ली चले आये हैं। इससे पहले मार्च 2024 में उन्होंने भीषण ठंड में उन्होंने अनिश्चित कालीन उपवास किया था। उपवास के दौरान सोनम वांगचुक महज़ नमक और पानी पर ज़िंदा थे। यह उपवास 21 दिन तक चला था। सरकार ने माँगों पर विचार के लिए उच्चस्तरीय कमेटी बनायी थी लेकिन वह झुनझुना ही साबित हुई। वांगचुक के नेतृत्व में ‘दिल्ली चलो पद-यात्रा’ एक महीने पहले लेह से शुरू हुई थी। ‘लेह एपेक्स बॉडी’ ने ‘करगिल डेमोक्रेटिक अलाएंस’ के साथ मिलकर इस पदयात्रा का आयोजन किया जो बीते चार साल से राज्य की माँगों को लेकर आंदोलन कर रहा है।
सरकार के रवैये के ख़िलाफ़ सोनम वांगचुक और उनके साथी हिरासत में भी लगातार अनशन पर हैं। यह गाँधी के रास्ते के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दिखाता है। पूर्वोत्तर में मणिपुर साल भर से जल रहा है लेकिन पश्चिमोत्तर का प्रांत लद्दाख अगर हिंसा से दूर सत्याग्रह के रास्ते पर है तो इसके पीछे सोनम वांगचुक जैसे गांधीवादियों की बड़ी भूमिका है। शांतिपूर्वक प्रतिवाद का अधिकार लोकतंत्र का अभिन्न अंग है, जो सरकार इसे मान्यता नहीं देती वह लोकतंत्र पर लोगों का विश्वास नष्ट करती है जिसके भयानक परिणाम हो सकते हैं।
मोदी सरकार के दस सालों में अहिंसक प्रतिवाद की जगहें लगातार सिकुड़ती गयी हैं। एक ज़माने में अपनी माँगों को लेकर धरना, प्रदर्शन, अनशन, घेराव आदि सामान्य लोकतांत्रिक व्यवहार माना जाता था। सत्ताधारियों को काले झंडे दिखाना, उनकी सभाओं में घुसकर नारेबाज़ी आदि भी आये दिन की बात थी। ख़ुद बीजेपी ने विपक्ष में रहते इस अधिकार का भरपूर इस्तेमाल किया है। ऐसा करने की कोई सज़ा नहीं थी। इन चीज़ों के लिए इजाज़त भी नहीं लेनी होती थी, लेकिन अब दिल्ली ही नहीं, बीजेपी शासित किसी भी प्रदेश के हर शहर में ऐसी जगहें ख़त्म कर दी गयी हैं। धरना-प्रदर्शन को ‘देशद्रोह’ मान लिया गया है। दिल्ली में रामलीला मैदान तो छोड़िए, जंतर-मंतर पर भी खड़ा होना मुश्किल है। बारहों महीने देश की राजधानी ‘निषेधाज्ञा’ की छाया में साँस लेती है जिससे लोकतंत्र की साँसें उखड़ती हैं। यह महात्मा गाँधी की आत्मा पर खुला प्रहार है। उन्होंने ऐसे स्वराज की कल्पना नहीं की थी।
मोदी सरकार ने किसानों को भी दिल्ली में प्रवेश नहीं करने दिया था। उनके साथ हुई बर्बरता इतिहास का हिस्सा बन चुका है। अब वांगचुक और उनके साथियों के साथ भी यही व्यवहार हो रहा है। सवाल उठता है कि आख़िर देश की राजधानी में देशवासियों के प्रवेश को कैसे रोका जा सकता है? सोनम वांगचुक की हिरासत का मामला दिल्ली हाईकोर्ट पहुँच गया है जहाँ गुरुवार को सुनवाई होगी। बेहतर हो कि हाईकोर्ट इसे सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं, प्रतिवाद के लोकतांत्रिक अधिकार का मामला समझकर विचार करे। सरकार से इस पर कड़े सवाल करे। उसे याद दिलाये कि अहिंसक प्रतिवाद का सम्मान न करना हिंसक आंदोलनों को न्योता देना है। क्या भारत यह क़ीमत देने के लिए तैयार है?
पुनश्च: चर्चित क़िस्सा है कि एक बार पं. नेहरू का गिरेबान पकड़कर एक महिला ने पूछा था कि आज़ादी से उसे क्या हासिल हुआ? जवाब में नेहरू जी ने कहा था कि उसे प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़कर सवाल पूछने की आज़ादी मिली है? मोदी राज ने जनता को मिले इस न्यूनतम अधिकार को भी छीन लिया है। उसे आज़ाद-ख़्याल जनता नहीं, आदेशपालक समाज चाहिए!
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