सुन कर कुछ राहत मिली कि चुनाव आयोग भी नाराज हो सकता है। नाराज किस पर हुआ, यह आगे देखा जाएगा लेकिन इतना तो साबित हो गया कि संस्था जीवंत है। आमतौर पर केचुआ अगर तन कर प्रति-आघात करे तो यह उसके अस्तित्व की तस्दीक है। प्रजातंत्र में कोई संस्था “इंजर्ड इनोसेंस” दिखा कर देश को गुमराह करने के लिए ही अगर “सेलेक्टिव एप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स” (अपने तर्क के समर्थन में मतलब वाला तथ्य प्रस्तुत करना) और सेलेक्टिव एम्नेशिया (असहज करने वाले तथ्य को भूलने का नाटक) का सहारा लेकर तन कर खड़ी होती है तो उम्मीद बनती है कि कभी न कभी इसकी रीढ़ भी बनेगी।
चुनाव आयोग ने कांग्रेस अध्यक्ष के पत्र पर नाराजगी दिखाते हुए कहा कि इससे मतदाताओं पर “नकारात्मक असर” पड़ेगा। दरअसल, अध्यक्ष ने अपने पत्र में शंका व्यक्त की थी क्योंकि आयोग ने मत-प्रतिशत का अंतिम आंकड़ा दस दिनों बाद दिया जो अपेक्षाकृत काफी बढ़ा हुआ था। इससे चुनाव में गड़बड़ी का शक विपक्षी दलों को था। इतना विलंब पहली बार हुआ और वह भी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग के ज़माने में जबकि मत-पेटियों के जिला मुख्यालय पहुँचने के चंद मिनटों-घंटों में अंतिम आंकड़ा मिल जाया करता था।
लेकिन आयोग को तब गुस्सा नहीं आया जब मॉडल कोड की ही नहीं, आईपीसी के सेक्शन 153 (अ) की धज्जी उड़ाता देश का प्रधानमंत्री दिन में सौ बार धर्म, हिन्दू-मुसलमान, मंगलसूत्र, झूठ और उन्माद भड़काने वाले भाषण दे रहा था। तब इस संस्था के किरदारों को क्यों सांप सूंघ जाता है?
स्वामित्व का भाव ही तो था जब कुछ माह पहले पीएमओ ने इसे एक “ज़रूरी” बैठक में भाग लेने का आदेश दिया था और उसका अनुपालन हुआ? दासत्व का भाव नहीं तो क्या था जब भीषण कोरोना काल में सोशल डिस्टेंसिंग को ठेंगा दिखाते हुए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पश्चिम बंगाल के विधान सभा में भीड़ के बीच "दीदी, ओ, दीदी" मिमिक्री कर रहे थे और आयोग “स्वामी” के खिलाफ कदम उठाने की जुर्रत नहीं कर रहा था।
इस चुनाव को 74 साल के प्रजातान्त्रिक भारत के इतिहास का सबसे स्तरहीन चुनाव कहा जाएगा। तर्क-शास्त्र में “बैलेंसिंग” को सम्यक विश्लेषण का मूल मानने की बात तब आती है जब दूसरा पक्ष भी मूल्यों को उतना नहीं तो थोड़ा बहुत भी तोड़ रहा हो।
लेकिन इस चुनाव में जिस घटिया स्तर तक चुनाव-प्रचार को गिराया गया है, उससे कहा जा सकता है कि सख्त कानून और मजबूत संस्था होती तो ऐसे नेताओं के सार्वजानिक जीवन में रहने पर पाबंदी लगा देती।
दस वर्ष के शासन काल के बाद भी अगर किसी प्रधानमंत्री, उसके कई चीफ मिनिस्टर्स और नेता धर्म, जाति, अगड़ा-पिछड़ा, काला-गोरा, अमीर-गरीब, 15-मिनट-बनाम-15-सेकंड, अर्ध-सत्य बता कर बदनाम करने वाले आंकड़े, बलात्कार के सच्चे-झूठे आरोप और मंदिर-बनाने-वाले-बनाम-मंदिर-में-ताला-लगवाने-वाले- बयान दें तो इसे विकास का संवाहक शासन कहा जाएगा? राज्य में राजधर्म निभाने से चुका नेता इसके अलावा और कर भी क्या सकता है!
यह स्थापित अवधारणा है कि नैतिकता के एक पैमाने पर गिरा व्यक्ति या ढही संस्था दूसरे नैतिक पैमाने पर तन कर नहीं खड़ी हो सकती। व्यक्ति की तरह संस्था की भी नैतिक मूल्यों पर अपने को बलिदान करने तक की जिद अपने आचरण से बताना होता है। कोई यह नहीं कह सकता कि आजकल वह ईमानदार हो गया है, या था तो ईमानदार लेकिन हालात ने मजबूर कर दिया।
हाँ, लोक आचरण में कई बार हम ईमानदारी का नाटक करते हैं। हमारा व्यवहार क्राइसिस के क्षणों में, पूर्ण-शक्तिवान होने के अवसरों पर, दूसरों द्वारा देखे न जाने की स्थिति में भी अगर स्थापित मानदंडों पर खरा है तो नैतिक हैं, फौलाद की मानिंद।
चुनाव आयोग एक संस्था है जिसको देश के 140 करोड़ लोग चुनाव के दौरान बेहद दिलचस्पी से देखते हैं और उसके नैतिक तंतुओं की शक्ति को परखते हैं। जब उसके “आयुक्तों” को सत्ता के प्रसाद के रूप में कोई ताकतवर प्रधानमंत्री नियुक्त करता है तो जनता की पारखी नज़र और गहरी हो जाती है। यही सोच कर संविधान निर्माताओं ने इनको पद से हटाने की प्रक्रिया जजों को हटाने की प्रक्रिया की तरह पुख्ता की है ताकि वे भयमुक्त हो कर काम करें।
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