अब मैं उल्लू बनना चाहता हूँ। ताकि लक्ष्मी मेरी सवारी कर सकें। उल्लू पर सवार होकर ही लक्ष्मी आती है। लक्ष्मी और उल्लूपन में चोली दामन का रिश्ता है। धनतेरस, दीपावली में इतना पूजा पाठ करके लक्ष्मी का आवाहन करने से अच्छा है सीधा चैनल खोला जाय। तो मैंने आज से अपने भीतर के उल्लूपन को सहेजना शुरू किया है। यह पुण्य काज करवा चौथ के दिन से ही शुरू हुआ। जब पत्नी के लिए साड़ी ख़रीदने गया और उनके लिए उल्लू के तस्वीर वाली साड़ी ख़रीद लाया। ताकि उनकी नज़रों में पहले उल्लू प्रतिष्ठित हो जाए। धनतेरस बीत गया। अब दीपावली है। फ़ैसला जल्दी करना होगा। फिर इसमें बुराई क्या है। हमारे यहाँ वैशेषिक दर्शन के एक आचार्य हुए हैं उलूक। उनके दर्शन को औलुक्य दर्शन कहते हैं।
उल्लू वैसे भी एक अबोध जीव है। अपने में लीन एकांतवासी, अनिर्लिप्त, परम निस्पृह, धीर प्रशान्त, दुनिया की आपाधापी से महफ़ूज़। जब दुनिया गलाकाट प्रतिस्पर्धा में दौड़ती है। तो वह उस ओर देखता भी नहीं। या उसे दिखता नहीं। इस निर्दोष प्राणी की बदकिस्मती देखिए कि लोग इसकी उपमा से खेलते हैं धनतेरस और दीपावली को लक्ष्मी का आह्वान सब करते हैं। पर उल्लू से सभी बचते हैं। उल्लू को न जाने क्यों लोग मूर्ख समझते हैं। जबकि वह मूर्ख नहीं है। अगर वह लक्ष्मी की प्राप्ति में सहायक है तो मानना चाहिए कि उसमें धन कमाने की बुद्धि तो होगी ही। ख़ास कर वह धन जो रात के अन्धेरे में रोशनी बिखेरता है। इसीलिए पश्चिम में उल्लू को बुद्धि का प्रतीक मानते हैं। पर न जाने क्यों हमारे यहॉं उल्लूपन मूर्खता का पर्याय हो गया?
उल्लू सजग और सरल है। पर अगर वो अपने पर उतर आए तो कुछ भी नष्ट कर सकता है। प्रमाण के तौर पर आप देख ही रहे हैं- ‘बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफी है, हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजाम ए गुलिस्तां......।" हमारे आसपास उल्लूपन का विस्तार भले ही तेजी से हो रहा हो, पर बेचारे उल्लू को बदनाम करके रखा गया है। वह विलुप्ति की ओर है। तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास ने इस खूबसूरत और बिंदास पक्षी को ग्रस लिया है। उल्लू गजब का प्राणी है। धीर, गंभीर दार्शनिक और वीतरागी। "न ऊधो का लेना, न माधो का देना"।
उल्लू को हमारे देश में भले ही मूर्खता का प्रतीक माना जाए, पर पश्चिम में वह ज्ञान और बुद्धि की मिसाल है। पश्चिमी दर्शन में उल्लू ज्ञान की देवी का वाहन है तो हमारी परंपरा में यह लक्ष्मी का वाहन है, रात के अँधेरे में वह प्रकाश फैलाता है। घुप्प अंधकार में जब कुछ नहीं सूझता तो वह रास्ता दिखलाता है। किसानों का दोस्त है। चूहे और खेती को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों का खात्मा करता है। फसल को बचाता है।
बचपन में हमारे घर के पास नीम के पेड़ के नीचे पकौड़ी बेचने वाली एक बुढ़िया रहती थी। बच्चे उसे प्यार से पकौड़ी वाली नानी कहते थे।इसी नीम के कोटर में उल्लुओं का एक जोड़ा रहता था। पकौड़ी खरीदने वालों की उत्सुकता उल्लुओं में ज्यादा होती थी। जब तक पकौड़ी बनती थी, हम उल्लुओं से खेलते थे। कभी-कभी हम उन्हें छू भी लेते थे। वे बिना किसी प्रतिक्रिया के दार्शनिक अंदाज में हमें देखते रहते थे। उस वक्त हमें पता नहीं होता था कि बेचारे हमें देख नहीं पा रहे हैं। कुछ रोज बाद एक उल्लू गायब हो गया। बाद में दूसरा उल्लू भी गायब हुआ। हम कई दिनों तक उन्हें ढूँढ़ते रहे। बाद में पकौड़ी वाली बुढ़िया ने जो बताया, उसे सुनकर हमारे होश उड़ गए।
बुढ़िया के मुताबिक दीवाली की रात एक तांत्रिक ने दोनों उल्लूओं की बलि दे दी। उसकी आँख, दाँत और पाँव का इस्तेमाल लक्ष्मी की सिद्धि के लिए किया। यह जानकर हम बहुत उदास हुए। जिस उल्लू से पहली बार अपना संवाद बना था, वह तंत्र-मंत्र की भेंट चढ़ गया। हमने नीम के पेड़ के नीचे जाना बंद कर दिया।
उल्लू आज भी तांत्रिकों के शिकार हो रहे हैं। वशीकरण के लिए उनकी बलि ली जा रही है। भ्रम है कि उल्लू के साथ तांत्रिक अनुष्ठान करने से लक्ष्मी आती है। दुश्मन को ठिकाने लगाने के लिए तांत्रिक श्मशान में उल्लू की बलि देते हैं। इस तर्क के साथ कि उल्लू की आँखों से प्रेमिका वश में आएगी। उसकी हड्डी से पैसा आएगा। पंजे से रोग दूर होंगे। दीपावली की रात कुछ तांत्रिक मंत्र सिद्धि के लिए उल्लू के रक्त से स्नान भी करते हैं। ये ऐसे अंधविश्वास हैं, जिनसे उल्लू के पारिवारिक जीवन पर खतरा बन आया। वे नष्ट हो रहे हैं।
अजीब है कि जहाँ हमारे समाज में उल्लूपन की प्रतिष्ठा है, वहीं उसका आइना कहे जानेवाले साहित्य में उल्लू के साथ कहीं न्याय नहीं हुआ। साहित्य में भी उल्लू को हाशिए पर रखा गया है। न ज्ञानों न प्रेम में उसकी प्रतिष्ठा हुई है। कवि कहता है, “मैं कैसे मानूँ बरसते नैनों कि तुमने देखा है, पी को आते/न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखी कलियाँ।” यानी कवियों ने मोर, कोयल यहाँ तक कि कौवे को भी तार दिया, लेकिन उल्लू बेचारा साहित्य में जगह बनाने के लिहाज से अभागा ही रहा। उसे किसी लायक नहीं समझा गया है। मूर्ख, मूढ़, जड़मति और बुद्धिहीन होने के अपमान के साथ ही वह जीता रहा।
वैशेषिक दर्शन के एक आचार्य हैं उलूक। उनके दर्शन को औलुक्य दर्शन भी कहते हैं। यह दर्शन न्याय दर्शन का जुड़वाँ भाई है। संस्कृत कोश के मुताबिक इंद्र का एक नाम उलूक भी है। उल्लू रात के वक्त सक्रिय रहता है। इंद्र के भी रात के किस्से मशहूर हैं। देशी परंपरा उल्लू को अमंगल मानती है। ऋग्वेद के मुताबिक उल्लू और कबूतर मृत्यु के दूत हैं। उल्लू का रात में बोलना अशुभ माना जाता है। दुनिया भर में उल्लुओं की 32 प्रजातियाँ हैं। इनमें सबसे ज्यादा बुद्धिमान् उल्लू को चुगधु घुग्घु कहते हैं। उल्लू के कई दूसरे नाम भी हैं—निशाचर, वज्रधर, कुचकुचवा, पेचकी, घर्घर, काकभीरु, कौशिक, दिवांध, निशिचर, मघवा और शक्र।
लक्ष्मी को भी उल्लू पसंद आने की खास वजह शायद उसका उल्लू होना ही है। “उल्लू जितने भी मिलें/झुककर करो प्रणाम/उलटे-सीधे वक्त में उल्लू आते काम/उल्लू आते काम साथ लक्ष्मी को लाएँ/क्या जाने किस रूप में फिर उल्लू मिल जाएँ।”
काठ का उल्लू मुहावरा चलन में है। उल्लू से सभी चिढ़ते हैं पर काठ का उल्लू सबकी पंसद है। जो उनकी उँगली के इशारे पर नाचता फिरे। गृहलक्ष्मी यह भी चाहती है कि उनका उल्लू सिर्फ उन के लिए उल्लू हो। बाकी संसार के लिए नहीं। शायद इसीलिए सिर्फ सुननेवाले और जवाब न देने वाले उल्लुओं की बाजार में ज्यादा माँग है। अगर किसी को काठ का उल्लू कहें तो गाली मानी जाती है। उल्लू का पट्ठा कहें तो बवाल मचता है। पट्ठा शब्द जवान के लिए प्रयोग में आता है।
पर उल्लू का पट्ठा वल्दियत बदल देता है। कुछ उल्लू बने होते हैं। कुछ बनाने पड़ते हैं। जनता को उल्लू बनाकर नेता किस तरह घोटाले-पर-घोटाले करते हैं और आवाम उल्लूकी तरह आँख फाड़े तमाशबीन बनी रहती है। जैसे उल्लू बनना तो जनता जनार्दन की किस्मत में लिखा है। अफ़सोस! इतनी प्रासंगिकता के बाद भी, सब उल्लू को हिक़ारत से देखते हैं। इस दीपावली आप कम से कम एक उल्लू सहेजिये।
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