मैं विवादित इमारत से कोई सौ गज दूर खड़ा था। सन्न और अवाक्! समझ नहीं आ रहा था कि मैं जो देख रहा हूँ, वह हकीकत है या बुरा सपना। चारों तरफ बदला! प्रतिशोध!! प्रतिहिंसा का हुंकारा!!! सबकुछ अचानक हुआ। कारसेवक बाबरी ढाँचे पर चढ़ चुके थे। पुलिस प्रशासन को काटो तो खून नहीं। पर किंकर्तव्यविमूढ़, बेबस और लाचार। मैंने पुलिसबलों का ऐसा गांधीवादी चेहरा पहली बार देखा। 46 एकड़ का पूरा इलाका ध्वंस के जुनून में था। समूचा दृश्य दिल दहलाने वाला था। कोई दो सौ कारसेवक विवादित इमारत के तीनों गुंबदों पर चढ़ लोहे के रॉड, गैंते और सरियों से चोट कर रहे थे। नीचे कोई एक लाख कारसेवकों ने इमारत को घेर रखा था।