कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू से 22 बरस की बेटी दिशा रवि को कुख्यात अपराधी की तरह हड़बड़ी में दिल्ली लाकर पुलिस द्वारा अदालत से फरियाद करके अपने कब्जे में लेने और उसे किसानों के आंदोलन में अंतरराष्ट्रीय साजिश से जोड़ने के ट्रोल अभियान से बीजेपी सरकार क्या सिद्ध करना चाहती है?
क्या इस देश में महात्मा गांधी की बताई राह का 'टूलकिट' यानी योजना तैयार करके संगठित अहिंसक आंदोलन करना गुनाह है? यदि ऐसा है तो फिर बापू के नेतृत्व में चला हमारी आज़ादी का समूचा नागरिक अवज्ञा आंदोलन राजद्रोह ही था?
यदि किसी आंदोलन के लिए कार्यक्रम तैयार करके उसे सहयोगियों से बांटना गुनाह है तो फिर 'हिंद स्वराज' के लेखक मोहनदास करमचंद गांधी तो सबसे बड़े गुनाहगार थे! क्योंकि हिंद स्वराज में तो आंदोलन की अवधारणा से लेकर उसके तौर-तरीकों तक के दिशा-निर्देश संकलित हैं।
उसका अद्यतन संस्करण 1938 में छपा जिसने आज़ादी की लड़ाई को और आंदोलित किया। हिंद स्वराज के 13वें अध्याय से 20वें अध्याय तक सत्याग्रह को अपनाने के कारण, उसके प्रभाव एवं उसके स्वयं पर अभ्यास के साथ ही उसके विस्तृत प्रचार-प्रसार के जरिए उसे जनांदोलन बनाने की तकनीक चरणबद्ध समझाई गई है।
अहिंसक आंदोलन की पैरवी
गांधी जी का स्पष्ट मत था कि नरम मिजाज एवं दयालु प्रवृत्ति के भारतीयों के लिए अहिंसक आंदोलन पद्धति अपना कर अंग्रेजों से देश को मुक्त कराना ही सबसे उपयुक्त है। हिंद स्वराज में उन्होंने उदाहरण समेत समझाया है कि हिंसा उसे झेलने वाले के नुक़सान के साथ उसे करने वाले को भी नष्ट कर देती है।
उसके मुकाबले अहिंसक आंदोलन के जरिए विरोध में निहित तकलीफों एवं बलिदानों को झेल कर आंदोलनकारियों की तो शुद्धि होती ही है उसे कुचलने वाले की भी आंखें खुल जाती हैं। हिंद स्वराज उस नागरिक अवज्ञा आंदोलन की कुंजी है जिसकी बदौलत भारत के साथ-साथ बीसवीं सदी में अफ्रीका एवं एशिया के भी अनेक देशों ने गुलामी से मुक्ति पाई।
सत्याग्रह की इसी आंदोलन शैली को अपना कर रोजा पार्कस और डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिका में अश्वेतों को गुलामी की जिल्लत से मुक्त करवा कर समान नागरिक अधिकार दिलाए। नेल्सन मंडेला ने भी सत्याग्रह अपना कर उस दक्षिण अफ्रीका को आज़ाद कराया जहां महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा को तपस्या से सिद्ध किया था।
तो क्या अब तक जिस हिंद स्वराज को बापू आने वाली पीढ़ियों के लिए, अहिंसक आंदोलन की निर्देशिका के रूप में छोड़ गए हैं उसे मोदी सरकार अवैध घोषित कर देगी? जैसे अंग्रेजों ने 1909 में गांधी जी द्वारा हिंद स्वराज को लिखने के बाद उस पर रोक लगा दी थी वैसे ही मोदी सरकार भी उसे बैन करेगी?
संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'आंदोलनजीवी' 'परजीवी' वाला भाषण सुनने के बाद देश के मौजूदा आंदोलनकारियों को दिशा की गिरफ्तारी पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
आंदोलनकारियों को चेतावनी
शायद उनके यह जुमले भविष्य के आंदोलनकारियों के लिए भी चेतावनी हैं कि किसी भी तरह के आंदोलन से दूर रहो, खासकर 'बहुमत' की सरकार के खिलाफ तो आंदोलन की सोचना भी मत। प्रधानमंत्री ने ऐसे बताया मानो आंदोलनजीवी कोई नई मानव नस्ल है और उससे दूर रहना अथवा उसकी मुश्कें कसना जरूरी है ताकि सरकार अपना मनमाना एजेंडा लागू कर सके!
सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी सहित देश की 130 करोड़ जनता एवं अन्य जीव-जन्तु बिना किसी आंदोलन के जीवित रह सकते हैं? आंदोलन का संधि विच्छेद करने पर इसमें प्रमुख शब्द दोलन निकलता है। दोलन का अर्थ क्या है? क्या दोलन के बिना दुनिया चल सकती है? बिना दोलन चुनाव लड़कर सरकार बनाई जा सकती है?
क्या बिना आंदोलन के लोकतंत्र जिंदा रह सकता है? जाहिर है कि नहीं। क्योंकि दोलन का अर्थ ही लगातार गतिशील रहना है। दोलन रूकते ही सारी दुनिया ठहर जाएगी!
रुक जाएगी दुनिया
दोलनरहित होने पर जीव-जन्तु निर्जीव हो जाएंगे। दोलन रुकते ही बिजलीघर, कल-कारखाने, मेट्रो ट्रेन, बस, कार, हवाई जहाज, पानी के जहाज सहित तमाम गतिविधियां ठप हो जाएंगी। आंदोलन में दूसरा शब्द है आं जो दोलन की गति बढ़ाने का प्रतीक है। दोलन में आंदोलन नहीं होगा तो फिर समाज की ठहरी हुई गंदगी, प्रशासन को लगी जंग दूर कैसे होगी?
गंगा का जल चूंकि अविरल आंदोलित है इसीलिए उसमें कीड़े नहीं पड़ते। निर्मल जल देते रहने के लिए गंगा के अविरल आंदोलन को बरकरार रखवाने के लिए स्वामी सानंद अर्थात गणित के विख्यात प्रोफेसर गुरूदत्त अग्रवाल अपने प्राणों को अहिंसक आंदोलन की भेंट चढ़ा गए।
यदि आंदोलन नहीं होगा तो हवाई जहाज अपनी गति बढ़ाकर हवा में उड़ान कैसे भरेगा? यदि हवाई जहाज उड़ा ही नहीं तो प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति के लिए पब्लिक की जेब से करीब 8458 रुपये खर्च करके मंगाए दो सुसज्जित विमान तो खड़े-खड़े जंग ही खा जाएंगे! उससे नुक़सान तो रोजाना 140 रुपये से भी कम राशि में परिवार पालने वाले देश के उन 130 करोड़ भाइयों-बहनों का ही होगा जिनकी गाढ़ी कमाई उन पर खर्च हुई है।
इसलिए जितना आंदोलन जरूरी है उतने ही उपयोगी आंदोलनजीवी हैं। रही बात परजीवियों की तो जनता के खून-पसीने से खड़े हुए सरकारी उद्यमों, बैंकों, रेलवे, हवाई अड्डों, बंदरगाहों, हवाई जहाजों, पानी के जहाजों आदि की औने-पौने सौगात पाने वाले परजीवी हैं अथवा उन्हें बनाने, चलाने और अब बचाने में जिंदगी खपाने वाले?
महिला आंदोलनकारी निशाने पर
परजीवियों को समाज में सबसे कड़ी चुनौती महिलाओं से ही मिलती है फिर भी मोदी सरकार महिला आंदोलनकारियों को निशाना बना रही है। बीजेपी सरकार ने पहला वार आदिवासी अधिकार आंदोलनकारी एवं वकील सुधा भारद्वाज पर किया जबकि वो तो आजीवन परजीवी बिचौलियों से ही लड़ती रही हैं। उनके बाद शहला रशीद, सफूरा जरगर से लेकर देवांगना कलिता, नौदीप कौर, दिशा रवि, वकील निकिता जैकब आदि तमाम महिला आंदोलनकारियों की धरपकड़ करके क्या गृहमंत्री अमित शाह की पुलिस महिलाओं को डराना चाहती है?
यदि आंदोलन फैलाने के लिए महिलाओं का कार्यक्रम बनाना अथवा उसे बांटना राजद्रोह है तो फिर सुचेता कृपलानी, इंदिरा गांधी, अरूणा आसफ अली, सुभद्रा जोशी आदि भी तो उसी श्रेणी में आएंगी? क्योंकि ये भी महिला थीं एवं आज़ादी की अहिंसक लड़ाई के हरावल दस्ते की अगुआ थीं। इन सभी ने कभी भूमिगत और कभी खुलेआम आज़ादी के आंदोलन के तहत विभिन्न कार्यक्रम न सिर्फ तैयार किए बल्कि उन्हें प्रचारित भी किया।
क्या दिवंगत नेता सुषमा स्वराज और राजमाता विजयाराजे सिंधिया को भी प्रधानमंत्री मोदी आंदोलनजीवी ही मानेंगे? क्योंकि उन्होंने भी तो अटल बिहारी वाजपेयी के कंधे से कंधा मिलाकर भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए ताउम्र जनांदोलन ही किए!
ममता, माया भी आंदोलनजीवी?
क्या ममता बनर्जी और मायावती भी उनकी नजर में आंदोलनजीवी ही हैं? क्योंकि ममता तो पश्चिम बंगाल की सत्ता की प्रबल दावेदार बीजेपी के खिलाफ मुख्यमंत्री होने के बावजूद आए दिन सड़क पर ही संघर्षरत दिखती हैं! यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी कभी 'मनुवादियों' के खिलाफ मोर्चे निकाल कर गिरफ्तार हुआ करती थीं।
क्या एक के बाद एक महिला आंदोलनकारियों को जेल में डालकर मोदी सरकार भविष्य की राजनीति से महिलाओं को बाहर करना चाहती है? यदि नहीं तो फिर महिला आंदोलनकारियों का दमन क्यों? आखिर लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व तो आंदोलनों एवं जन संघर्ष से ही तप कर निकलता है। क्या मोदी-शाह अपनी बीजेपी की तरह राजनीति में महिला नेतृत्व को सिने अभिनेत्रियों एवं पूर्व राजवंशियों अथवा वंशवादियों तक सीमित रखना चाहते हैं?
सच यह भी है कि परजीवियों के बलिदान से ही कोविड-19 महामारी की वो वैक्सीन बनी हैं जिनकी अन्य देशों को खैरात बांटते हुए प्रधानमंत्री और बीजेपी के ट्रोलवीर इतराते नहीं अघा रहे।
विडम्बना यह है कि दुनिया भर में नेताओं को ही सबसे बड़ा परजीवी समझा जाता है क्योंकि वे जब चाहे अपने वेतन, भत्ते, पेंशन में मनमानी बढ़ोतरी कर लेते हैं। अर्थात लोकसेवक बनते ही सत्ता का मनमाना उपभोग करते हैं। वे लोकसेवक की जवाबदेही भूलकर जनता को ही अपना सेवक बना लेते हैं।
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