‘हार्वर्ड पर हार्डवर्क भारी’ जुमले वाली मोदी सरकार को यह समझने में पूरे पाँच साल कैसे लगे कि उसके आयकर एवं अप्रत्यक्ष कर ओमबड्समैन यानी लोकपाल किसी खेत में खड़े बजूका जितने भी असरदार नहीं है। इसी बिनाह पर साल 2019 में इन लोकपालों के पद ही ख़त्म कर देने वाली बीजेपी सरकार अब फिर कर-लोकपाल संस्था गठित करने जा रही है। तुर्रा यह कि उसे व्यापक अधिकारों से लैस किया जाएगा जबकि सूचना के अधिकार को बीजेपी सरकार ने पिछले छह साल में भोथरा ही कर दिया!
कर-लोकपाल की ज़रूरत
कर-लोकपाल की ज़रूरत मुख्य आर्थिक सलाहकार के. वी. सुब्रमण्यन ने साल 2021 के आर्थिक सर्वेक्षण में बताई है। उनके अनुसार कर-लोकपाल, आयकरदाताओं सहित तमाम करदाताओं के अधिकारों की निगरानी के लिए ज़रूरी है। यह बात क्या मोदी सरकार 2019 में इस संस्था को रद्द करते समय भूल गई थी?
अब अपने ही उगले को निगल कर आयकर लोकपाल बनाने की कार्रवाई क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विपक्ष के ‘टैक्स टेररिज्म’ यानी कर उगाही वाले विभागों के आतंक का आरोप झुठलाने के लिए की जा रही है?
‘टैक्स टेररिज्म’
विपक्ष के इस आरोप में दम भी दिखता है क्योंकि कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा आदि तमाम राज्यों में दल-बदल के ज़रिए विपक्ष की सरकार गिरा कर बीजेपी सरकार बनाने के क्रम में विपक्षी नेताओं और उद्यमियों पर भी आयकर छापेमारी केंद्र सरकार ने की है।
राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार गिराने की विफल कोशिश के समय भी उनके भाई सज्जन गहलोत एवं कांग्रेस विधायकों को पनाह देने वाले होटल मालिक के यहाँ आयकर विभाग ने छापा मारा था। तभी छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के प्रमुख नेताओं और चुनींदा उद्यमियों के यहाँ छापेमारी की गई थी।
निशाने पर विरोधी
इसके अलावा मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ के भांजे रतुल पुरी सहित उनके पुराने मुलाजिमों पर आम चुनाव तथा कांग्रेस की सरकार गिराते समय भी आयकर विभाग ने व्यापक छापेमारी की।
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कर्नाटक में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डी. के. शिवकुमार एवं कुछ उद्यमियों को भी कुमारस्वामी की सरकार बनाने और फिर बीजेपी द्वारा उसे गिराने की कोशिश से विधायकों को बचाने के चक्कर में पिछले दो साल से लगातार आयकर विभाग के छापे झेलने पड़ रहे हैं।
महाराष्ट्र में एनसीपी नेता शरद पवार एवं प्रफुल्ल पटेल सहित कांग्रेस के कुछ नेताओं तथा कारोबारियों पर भी ऐन चुनाव के पहले और फिर बीजेपी सरकार बनाने के जुगाड़ में दबाव बनाने के लिए आयकर छापेमारी करवाने के आरोप लगे हैं।
बदले की भावना
आयकर विभाग और ईडी की जाँच से तो राजीव गांधी फ़ाउंडेशन सहित नेहरू-गांधी परिवार संचालित ट्रस्ट भी अछूते नहीं हैं। जिसके लिए मोदी सरकार पर कुदाल आयोग की नकल करके कांग्रेस से बदले की कार्रवाई का आरोप लगा। कुदाल आयोग का गठन इंदिरा सरकार ने 1980 में दोबारा सत्तारूढ़ होने पर जेपी के नवनिर्माण आंदोलन से जुड़े गांधीवादी एवं सर्वोदयी ट्रस्टों एवं संस्थाओं को विदेशी चंदे की जाँच के लिये किया था।
जाँच में गांधी शांति प्रतिष्ठान जैसी संस्थाओं को भी शामिल करने पर विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी पर बदले की कार्रवाई का आरोप लगाया था।
सर्वेक्षण के अनुसार कर-लोकपाल संस्था दरअसल करदाताओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है। देश में बैंकों के लिए तो लोकपाल संस्था काम कर ही रही है।
इसके अलावा राजधानी दिल्ली के प्रमुख अख़बार समूह ने भी 1990 के दशक में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी. एन. भगवती को ख़बरों का लोकपाल बनाया था।
मीडिया की निगरानी?
यह बात दीगर है की उसी अख़बार समूह की दिखाई मीडिया में बाज़ारवाद की राह और उसके टीवी न्यूज़ चैनल से बिगड़े एक पूर्व एंकर की चिल्लपो एवं टीआरपी तथा राष्ट्रीय सुरक्षा से छेड़छाड़ के मद्देनजर अब सुप्रीम कोर्ट ही समूचे मीडिया की निगरानी के लिए केंद्र सरकार पर दबाव डाल रहा है। बहरहाल कर-लोकपाल संस्था को दुबारा स्थापित करने के लिए सर्वेक्षण में दुनिया के अनेक देशों में इस संस्था की उपयोगिता का हवाला है।
आयकर लोकपाल की 2003 से और अप्रत्यक्ष कर लोकपाल की साल 2011 से चली आ रही संस्था को सर्वेक्षण में नखदंतहीन बताया गया है। उन संस्थाओं को अधिकतम 5,000 रूपए का ही हर्ज़ाना देने का अधिकार था।
उसका आदेश मानने की कर उगाहने वाले इंस्पेक्टरों पर बंदिश भी नहीं थी। ताज्जुब है कि ऐसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2014 में लोगों को करों के जंजाल से मुक्ति दिलाने के वायदे पर चुनाव जीतने के बावजूद पाँच साल तक चलता रहा।
नखदंतहीन संस्था
उनके घोर समर्थक बाबा रामदेव ने तो काला धन देश में वापस आने पर नागरिकों पर कर का बोझ खत्म हो जाने के सब्जबाग दिखाए थे। बाबा रामदेव अपनी सभाओं में हाथ में पोथा लेकर लोगों को बाकायदा समझाते थे कि काला धन खत्म करके मोदी जी सबके खातों में जो 15 लाख रूपए आ सकने की बात कर रहे हैं वो दरअसल करों का बोझ खत्म कर जीरो कर प्रणाली से संबंधित है।
करदाताओं को राहत के बजाए एनडीए-बीजेपी सरकार गठन के डेढ़ साल के भीतर नवंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1,000 रूपए के प्रचलित नोट पर रद्दी का फ़रमान सुना दिया। उनका एलान था कि नोटबंदी से देश में काला धन खत्म हो जाएगा, जिससे अलगाववादी एवं आतंकवादी हरकतों पर रोक लगेगी।
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नाकाम नोटबंदी
पता लगा कि सरकार के अनुमान से कहीं अधिक करंसी नोट भारतीय रिजर्व बैंक में वापस जमा हो गए और लोगों की गर्दन पर करों का शिकंजा पहले से भी अधिक कस गया।
आम जनता ने नोटबंदी की रोजमर्रा भारी परेशानी झेली और देश में कारोबार भी ठप हो गया। तमाम छोटे व्यापारी और लघु उद्योग दिवालिया हो गए। उसके अगले ही साल लागू हुए वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी ने उनकी रही-सही कमर भी तोड़ दी।
इस प्रकार काले धन को निकाल कर अर्थव्यवस्था को साफ-सुथरा करके लोगों को करों से भारी राहत देने के वायदे को भुलाकर प्रधानमंत्री मोदी ने उद्योग-व्यापार की मुश्कें और भी कस दीं। नोटबंदी और जीएसटी की साझी चोट ने कोविड-19 महामारी से पेंदे में बैठने से पहले ही अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को माली साल 2019-20 में चार फ़ीसद पर ला पटका था। यह तथ्य आर्थिक सर्वेक्षण से स्पष्ट हुआ है।
पारदर्शिता?
बहरहाल कर-लोकपाल के गठन की जरूरत करदाताओं को सुरक्षा देने, हिंतों का टकराव रोकने, पारदर्शिता लाने एवं कराधान निकाय एवं करदाता के बीच भरोसा पैदा करने के लिए बताई गई है। इसके लिए इस संस्था को समुचित अधिकार देकर जवाबदेह बनाया जाएगा तथा ईमानदार का सम्मान करने का दावा सर्वेक्षण में किया गया है।
दुनिया के जिन देशों में स्वायत्त कर-लोकपाल संस्था है वहाँ कर प्रशासन बेहतर एवं भरोसेमंद होने से कर वसूली बढ़ने की मिसाल भी दी गई है।
ओईसीडी की 20017 की रिपोर्ट के अनुसार आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन में स्वायत्त कर-लोकपाल हैं तथा फ्रांस एवं बेल्जियम में करमध्यस्थों का प्रावधान है जिससे वहां कर वसूली सुधरी है तथा कर प्रशासन सरल हुआ है। सर्वेक्षण के अनुसार, अमेरिका में कर प्रशासन के तहत टैक्स एडवोकेट सर्विस है जो करदाताओं के अधिकारों की रक्षा करती है।
देखना यह है कि सूचना आयोग सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं में अपना एजेंडा चलाने वालों की नियुक्ति से उन्हें नखदंतहीन बनानेवाली मोदी सरकार कर-लोकपाल को वाकई कुछ ठोस अधिकार सौंपेगी अथवा कर प्रशासन के आतंक से करदाता को राहत देने का मुख्य आर्थिक सलाहकार का ख्वाब मिट्टी में मिल जाएगा।
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