कांग्रेस के घोषणापत्र में लोगों के ज़िंदगी से जुड़ी तमाम ‘ठोस’ घोषणाओं के बाद सबकी निगाहें बीजेपी के घोषणापत्र पर लगी थीं। रविवार को पीएम मोदी ने तमाम वरिष्ठ बीजेपी नेताओं के साथ विकसित भारत की गारंटी वाले पार्टी का ‘संकल्प पत्र’ का ऐलान किया लेकिन इसमें भारत के दु:खों का कोई इलाज नहीं दिखा। उल्टा इन दुखों के प्रति जैसे आँख ही मूँद ली गयी हो। राहुल गाँधी ने ठीक ही कहा, “भाजपा के मेनिफेस्टो और नरेंद्र मोदी के भाषण से दो शब्द गायब हैं- महंगाई और बेरोजगारी। लोगों के जीवन से जुड़े सबसे अहम मुद्दों पर भाजपा चर्चा तक नहीं करना चाहती। 'INDIA' का प्लान बिलकुल स्पष्ट है- 30 लाख पदों पर भर्ती और हर शिक्षित युवा को 1 लाख की पक्की नौकरी। युवा इस बार मोदी के झांसे में नहीं आने वाला, अब वो कांग्रेस का हाथ मजबूत कर देश में ‘रोजगार क्रांति’ लाएगा।”
राहुल गाँधी का ‘रोज़गार क्रांति’ का वादा देश के नौजवानों की दुखती रग पर हाथ रखने जैसा है। यह सिर्फ़ विपक्ष के किसी नेता की ओर से घेरने की कोशिश नहीं है, सीएसडीएस-लोकनीति के हालिया सर्वेक्षण से ज़ाहिर हुआ है कि बेरोज़गारी को भारत के 27 फ़ीसदी लोग लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। दूसरे नंबर पर महँगाई है जिसे 23 फ़ीसदी लोगों ने सबसे बड़ा मुद्दा माना है। विपक्ष इन दोनों ही मुद्दों पर मोदी सरकार को सबसे ज़्यादा घेर रहा है। इसके बावजूद बीजेपी के संकल्प पत्र में लोगों के इन दोनों महा-दुखों का संज्ञान ही नहीं लिया गया है। जबकि दस साल पहले ‘बहुत हुई महँगाई की मार’ और ‘हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोज़गार’ देने के वादे के तहत ही मोदी जी पहली बार पीएम की कुर्सी पर बैठने में क़ामयाब हुए थे।
यह 2019 से उलट भंगिमा है जब बीजेपी के संकल्प-पत्र में रोज़गार को लेकर स्पष्ट वादे किये गये थे। कहा गया था कि जीडीपी में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर का हिस्सा 25 फ़ीसदी तक करेंगे लेकिन वह बमुश्किल 13-14 फ़ीसदी हो सका है। मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर में दस करोड़ रोज़गार पैदा करने की असलियत ये है कि 2016-2021 के बीच इस क्षेत्र में रोज़गार बढ़ना तो दूर, ढाई करोड़ रोज़गार कम हो गये। इस बार रोज़गार को लेकर कुछ न कहना, एक तरह से इस मोर्चे पर हाथ खड़े कर देना है। जबकि कांग्रेस तुरंत एक लाख रुपये की साल भर की अप्रैंटिसशिप देने और तीस लाख ख़ाली पड़े सरकारी पदों पर भर्ती की बात कर रही है। यही हाल महँगाई का भी है। आटा-दाल, तेल सब्ज़ी से लेकर पेट्रोल-डीज़ल तक की क़ीमतें इस मोर्चे पर मोदी जी की नाकामी की मुनादी कर रही है।
यही वजह है कि बीजेपी की ओर से साफ़ बात करने से बचा जा रहा है। कभी बीजेपी ख़ुद किसानों को स्वामीनाथन कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर एमएसपी की लीगल गारंटी की बात करती थी और 2014 के पहले बतौर मुख्यमंत्री मोदी जी इसी माँग को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखते थे, लेकिन लंबे किसान आंदोलन के बावजूद इस मोर्चे पर बीजेपी का संकल्पपत्र पूरी तरह ख़ामोश है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के बीजेपी के दावे की हक़ीक़त ये है कि किसानों की आय की जगह लागत बढ़ गयी है। किसानों पर 2013 में औसत क़र्ज़ 47 हज़ार था जो अब बढ़कर 74 हज़ार हो गया है।
25 करोड़ ग़रीबों को ग़रीबी रेखा से ऊपर करने का नीति आयोग का दावा आर्थिक विकास पर नज़र रखने वाली दुनिया भर की एजेंसियों से पुष्ट नहीं है। भारत सरकार के आँकड़ों पर बड़े पैमाने पर संदेह जताया जा रहा है। वैसे, नीति आयोग भी मानता है कि 20 फ़ीसदी आबादी 46 रुपये रोज़ पर जी रही है।
बीजेपी ने सरकारी स्कूल से लेकर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की बेतरह कमी के बावजूद शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने का वादा किया है जबकि कांग्रेस ने इंटर तक मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का वादा किया है। कांग्रेस ने दल बदल करने वाले विधायकों और सांसदों की सदस्यता रद्द करने के लिए क़ानून में संशोधन का वादा किया है जबकि ऑपरेशन कमल के लिए कुख्यात हो चुकी बीजेपी के घोषणापत्र में लोकतंत्र को मज़बूत करने से जुड़ा कोई इरादा ज़ाहिर नहीं होता। अगर देश में स्वतंत्र मीडिया होता तो इस मौक़े पर मोदी जी के सौ स्मार्ट सिटी बनाने के वादे और डॉलर क़ीमत 83 रुपये हो जाने को लेकर मोदी जी से सवाल ज़रूर पूछता जो 60 पार होने को पीएम मनमोहन सिंह की बड़ी नाकामी बताते थे।
हक़ीक़त ये है कि मोदी जी अपनी ही कसौटियों पर बुरी तरह फेल नज़र आ रहे हैं। कभी उनकी सरकार ने देश में जाति-जनगणना कराने का वादा किया था लेकिन जब विपक्ष इसे बड़ा मुद्दा बना रहा है तो बीजेपी के संकल्प पत्र में इसका ज़िक्र तक नहीं है। हिस्सेदारी के प्रश्न को गोल करके मुग़ल-मटन-मछली को चुनावी मुद्दा बनाना बताता है कि मोदी जी हताशा के शिकार हैं। वे एक बार फिर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के ज़रिए ज़रूरी मुद्दों को बेमानी बनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। लेकिन सीएसडीएस-लोकनीति का सर्वे यह भी बताता है कि देश के लगभग 80 फ़ीसदी लोग धार्मिक बहुलता में विश्वास करते हैं। 2014 में सत्ता विरोधी लहर और 2019 में पैदा की गयी उग्रराष्ट्रवाद की हवा ने मोदी जी की जिस नैया को पार लगाया था, उसमें अब छेद ही छेद हैं।
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