ऐसा लगता है कि कांग्रेस के न्याय-पत्र में लोगों की आर्थिक स्थिति तुरंत सुधारने से जुड़ी घोषणाओं ने पीएम मोदी को परेशान कर दिया है। 30 लाख ख़ाली पड़े सरकारी पदों पर भर्ती, हर नौजवान को पहली नौकरी के रूप में एक लाख सालाना की अप्रेंटिस गारंटी, ग़रीब घर की एक महिला के खाते में लाख रुपये सालाना, न्यूनतम मज़दूरी चार सौ रुपये करने और किसानों के लिए एसएसपी की क़ानूनी गारंटी जैसे ज़रूरतमंदों की जेब में तुरंत पैसा डालने के ऐलान ने पीएममोदी के 2047 तक अच्छे दिन लाने के ‘वायवीय’ वादे को फीका कर दिया है। यही वजह है कि वे राहुल गाँधी को ‘एक झटके में ग़रीबी ख़त्म करने वाला शाही जादूगर’ बताते हुए हँसी उड़ा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि पचास साल पहले राहुल कीदादी इंदिरा गाँधी के ग़रीबी हटाओ नारे का क्या हुआ?
पीएम मोदी की इस भाषा से इतना तो तय है कि लोकसभा चुनाव में आर्थिक मुद्दों के केंद्र में आते जाने का अहसास उन्हें हो गया है। मीट-मछली-सावन-सनातन आदि से जुड़ी जुमलेबाज़ी इस पर पर्दा नहीं डाल पा रही है। पीएम मोदी को पूरा हक़ है कि वे कांग्रेस के न्याय पत्र की घोषणाओं पर सवाल उठायें लेकिन कांग्रेस की योजनाएँ ‘झटका’ नहीं, अर्थव्यवस्था की दिशा को जनोन्मुखी बनाने की सुचिंतित योजना है। यह पीएम मोदी के दस साल के कार्यकाल में संपत्ति और संसाधनों को चुनिंदा घरानों तक सीमित करने वाली आर्थिक नीतियों को उलटती है। दिलचस्प बात हैकि पीएम मोदी कांग्रेस के शहज़ादे से सवाल पूछ रहे हैं जबकि इस लोकसभा चुनाव में उन्हें अपने दस साल के कामकाज का हिसाब देना है। उनका रिपोर्ट कार्ड बताता है कि भारत में ग़रीबी और ग़ैरबराबरी भयानक रूप से बढ़ीहै और इस पर दुनिया की निगाह है। पेरिस स्थित वर्ल्ड इनइक्वेलिटी लैब की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि भारत आय असमानता के मायने में अंग्रेज़ी राज से भी ख़राब स्थिति में पहुँच गया है। भारत में आय-असमानता की स्थिति दुनिया में सबसे ख़राब है।
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वर्ल्ड इनइक्वेलिटी लैब जैसे शोध संगठन के निष्कर्षों को पूरी दुनिया ग़ौर से देखती-समझती है, लेकिन भारत में इस रिपोर्ट पर आश्चर्यजनक चुप्पी है। हाल में जारी हुए इसके चर्चित शोधपत्र की कथित मुख्यधारा मीडिया ने जैसी अनदेखी की है वह उसके मोदी सरकार की गोद में बैठने का एक और प्रमाण है। 'इनकम एंड वेल्थ इनइक्वेलिटी इन इंडिया, 1922-2023: द राइज ऑफ बिल्यनेर राज' शीर्षक वाले इस शोधपत्र के अनुसार आजादी के बाद से 1980 के दशक की शुरुआत तक भारत में गैर-बराबरी में कमी आई थी। इसके बाद इसमें बढ़ोतरी शुरू हो गई और अब यह दुनिया में सबसे ज़्यादा हो गयी है।
यहाँ ध्यान देने के बात ये है कि जिन इंदिरा गाँधी पर उनके ‘ग़रीबी हटाओ’ नारे के लिए चुनावी सभाओं में पीएम मोदी तंज़ कर रहे हैं, उन्हीं के राज में ग़ैर-बराबरी तेज़ी से घट रही थी। यह ग़रीबों की आय बढ़ने का ही नतीजा था। रिपोर्ट के मुताबिक़ मोदी राज की उपलब्धि यह है कि इस समय सिर्फ़ एक फ़ीसदी भारतीयों के पास देश कीआय का 22.6 फ़ीसदी और देश की कुल संपत्ति का 40 फ़ीसदी हिस्सा है। सिर्फ़ एक फ़ीसदी भारतीयों के पास आय का हिस्सा दुनिया के किसी देश की तुलना में ज़्यादा है।
राहुल गाँधी मोदी सरकार पर सूट-बूट की सरकार होने या चुनिंदा उद्योगपतियों के लिए काम करने का जो आरोप लगाते हैं जिसकी ये रिपोर्ट पुष्टि करती है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत के शीर्ष एक फ़ीसदी लोगों की वित्तीय वर्ष 2023 में सालाना आमदनी औसतन 53 लाख रुपए रही जो औसत भारतीय की आय का 23 गुना है जो 2.3 लाख रुपए रही। सबसे अमीर 9,223 लोगों की औसतन आमदनी 48 करोड़ रुपए थी यानी औसत भारतीय से 2,069 गुना। रिपोर्ट बताती है कि उदारीकरण के बाद निजी उद्यम और पूँजी बाज़ार में इज़ाफ़ा हुआ लेकिन हाल में चंद उद्योगपतियों के हाथ संपत्ति का संकेंद्रण तेज़ी से हुआ। सबसे निचले पायदान पर खड़े 50 फ़ीसदी और बीच के 40 फ़ीसदी का हिस्सा लगातार सिकुड़ता गया।
रिपोर्ट कहती है कि अमीरों को लगातार टैक्स छूट दी गयी जबकि 2023 में 167 सबसे अमीर परिवारों की शुद्ध संपत्ति पर दो फ़ीसदी का सुपर टैक्स लगाने से राष्ट्रीय आय के राजस्व का 0.5 फीसद प्राप्त हो सकता था। इनके पास राष्ट्रीय आय के 25 फ़ीसदी हिस्से के बराबर संपत्ति है। जबकि यही हिस्सेदारी 1991 में केवल एक फ़ीसदी थी।
ज़ाहिर है, रिपोर्ट का सबसे ज़्यादा चिंताजनक पहलू आर्थिक असमानता की स्थिति आज़ादी के पहले से भी बदतर बताना है। इसके लिए आर्थिक विशेषज्ञों ने 1922 के बाद आय से संबंधित आँकड़ों की तुलना आज के आँकड़ों से किया है। उनके अनुसार, भारत में 1930 से 1947 तक जो आय असमानता थी उससे भी ज़्यादा आर्थिक असमानता की स्थिति अब है। 1947 में 1 फ़ीसदी शीर्ष अमीरों के पास राष्ट्रीय आय का 20-21 फ़ीसदी हिस्सा हुआ करता था, जो आज बढ़कर 22.6 फ़ीसदी तक पहुंच चुका है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बढ़ती असमानता का कारण सरकार की उद्योगपतियों केसाथ बढ़ती साँठ-गाँठ है। अगर भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों पर निवेश करे तो इसका फ़ायदा सभी लोगों को होगा, ख़ासकर मध्यम और गरीब तबकों को। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कुछ वर्षों से भारत में उन आँकड़ों को जारी ही नहीं किया गया है, जिनसे भारत के लोगों की आर्थिक स्थिति को और अच्छे से समझा जा सके।
यह रिपोर्ट वही कह रही है जो राहुल गाँधी जनता को लगातार समझाने की कोशिश कर रहे हैं। हैरानी की बात ये है कि प्रधानमंत्री मोदी शीशे की तरह साफ़ इन असफलताओं को देखने के बजाय राहुल गाँधी और कांग्रेस पर हमला बोल रहे हैं। किसी से उम्मीद नहीं की जाती कि ग़रीबी को किसी जादू के ज़रिए झटके से ख़त्म कर दे, लेकिन अगर ग़रीबी और असमानता बढ़ रही हो तो सवाल सरकार की नीतियों पर ही उठेगा। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि आज़ादी के बाद देश में लोगों का जीवन स्तर लगातार बेहतर हुआ है, स्वास्थ्य और शिक्षा में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है, और यह सब उसी कांग्रेस की नीतियों से संभव हुआ है जिसे पीएम मोदी रात-दिन कोसते हैं।
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अब समय है कि पीएम मोदी के दस साल को उन्हीं कसौटियों पर कसकर देखा जाये जिन पर वह विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस सरकार को कसते थे। अस्सी करोड़ लोगों को अगले पाँच साल तक मुफ़्त राशन देने का उनका ऐलान बताता है कि देश की बड़ी आबादी दो जून की रोटी ख़ुद कमा सकने लायक़ नहीं है। यह किसी शहज़ादे की नहीं, ‘सेंगोलधारी’ फ़क़ीर मोदी की असफलता ही मानी जाएगी। वैसे अगर झोले में देने को कुछ नहीं है तो फ़क़ीर को झोला उठाकर निकल ही लेना चाहिए, जैसा कि मोदी जी स्वयं कह चुके हैं।
(पंकज श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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