भारत को आज़ादी मिलने के समय दुनिया में ‘समाजवाद’ का बोलबाला था। यह शब्द एक उम्मीद की तरह था जिसने ख़ासतौर पर उपिनिवेशों में मुक्ति की आकांक्षा को नये पंख दे दिये थे। सोवियत क्रांति पूरे ग्लोब पर बिजली की तरह चमक रही थी और समता का विचार मनुष्यता की पूर्व-शर्त बन गया था। नेहरू से लेकर भगत सिंह जैसे तमाम नायक समाजवाद के ही विभिन्न रंगों का प्रतीक बनकर युवा दिलों में धड़क रहे थे। बहरहाल, भारत ने सोवियत यूनियन या चीन के ‘समाजवादी’ रास्ते और एकाधिकारवादी शासन से परहेज़ करते हुए लोकतंत्र के उपकरण के ज़रिए समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित समाज बनाने का कठिन संकल्प लिया। इसलिए भारत की कहानी किसी एक ऋतु में होने वाली क्रांति नहीं, वर्ष भर चलने वाली संक्रांतियों के सिलसिले से बुनी नज़र आती है। यह समाजवाद का भारतीय संस्करण है।
जितनी आबादी, उतना हक़: आज़ाद भारत की महा-संक्राति!
- विचार
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- 10 Nov, 2023

बिहार में नीतीश सरकार की ओर से पहले करायी गयी जातिवार जनगणना और फिर 75 फ़ीसदी तक आरक्षण के विधेयक को पारित कराना क्या राजनीतिक वातावरण को पूरी तरह बदलने वाला क़दम है?
खगोलशास्त्र में संक्रांति का अर्थ सूर्य का एक राशि से दूसरे में प्रवेश है जिससे पूरा वातावरण परिवर्तित होने लगता है। इस लिहाज़ से बिहार में नीतीश सरकार की ओर से पहले करायी गयी जातिवार जनगणना और फिर 75 फ़ीसदी तक आरक्षण के विधेयक को विधानसभा से पारित कराना एक महा-संक्रांति है जो देश के राजनीतिक वातावरण को पूरी तरह बदल देगी। राहुल गाँधी ने कर्नाटक चुनाव में ‘जितनी आबादी उतना हक़’ का जो नारा दिया था, उसने अब ऐसी गति पकड़ ली है जिसे रोकना किसी के लिए मुमकिन नहीं है।