भारत को आज़ादी मिलने के समय दुनिया में ‘समाजवाद’ का बोलबाला था। यह शब्द एक उम्मीद की तरह था जिसने ख़ासतौर पर उपिनिवेशों में मुक्ति की आकांक्षा को नये पंख दे दिये थे। सोवियत क्रांति पूरे ग्लोब पर बिजली की तरह चमक रही थी और समता का विचार मनुष्यता की पूर्व-शर्त बन गया था। नेहरू से लेकर भगत सिंह जैसे तमाम नायक समाजवाद के ही विभिन्न रंगों का प्रतीक बनकर युवा दिलों में धड़क रहे थे। बहरहाल, भारत ने सोवियत यूनियन या चीन के ‘समाजवादी’ रास्ते और एकाधिकारवादी शासन से परहेज़ करते हुए लोकतंत्र के उपकरण के ज़रिए समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित समाज बनाने का कठिन संकल्प लिया। इसलिए भारत की कहानी किसी एक ऋतु में होने वाली क्रांति नहीं, वर्ष भर चलने वाली संक्रांतियों के सिलसिले से बुनी नज़र आती है। यह समाजवाद का भारतीय संस्करण है।
खगोलशास्त्र में संक्रांति का अर्थ सूर्य का एक राशि से दूसरे में प्रवेश है जिससे पूरा वातावरण परिवर्तित होने लगता है। इस लिहाज़ से बिहार में नीतीश सरकार की ओर से पहले करायी गयी जातिवार जनगणना और फिर 75 फ़ीसदी तक आरक्षण के विधेयक को विधानसभा से पारित कराना एक महा-संक्रांति है जो देश के राजनीतिक वातावरण को पूरी तरह बदल देगी। राहुल गाँधी ने कर्नाटक चुनाव में ‘जितनी आबादी उतना हक़’ का जो नारा दिया था, उसने अब ऐसी गति पकड़ ली है जिसे रोकना किसी के लिए मुमकिन नहीं है।
यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी की ओर से जाति जनगणना को समाज तोड़ने का प्रयास बताने के कुछ दिन बाद गृहमंत्री अमित शाह सफाई देते नज़र आ रहे हैं कि बीजेपी जातिवार जनगणना के खिलाफ़ नहीं है। लेकिन अगर पार्टी के शीर्ष नेता और प्रधानमंत्री को ये समाज को तोड़ने वाला प्रयास लग रहा है और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जातिवार जनगणना न कराने के लिए ताल ठोंक चुके हैं, तो आरएसएस-बीजेपी की असल मंशा समझना मुश्किल नहीं है। हिंदू समाज की बात-बात में दुहाई देने वाले ये लोग पिछड़े या दलित समाज की आबादी को देखते हुए उनका आरक्षण बढ़ने से परेशान क्यों हैं? क्या ये लोग कुछ कम हिंदू हैं? या फिर खिचड़ी भोज वाली समरसता की टाटपट्टी ‘समता’ की समाधि पर ही बिछायी जाती है?
बिहार में हुई जातिवार जनगणना ने समाज का एक्सरे निकालने का एक मॉडल सामने रखा है। इसने तमाम पिछड़ी और वंचित जातियों के साथ हुए ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को मुहावरों की दुनिया से निकालकर आँकड़ों से पुष्ट दस्तावेज़ बनाकर सामने रख दिया है।
33 साल पहले मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के साथ जो मूक क्रांति शुरू हुई थी अब वह मुखर होकर राजनीतिक विमर्श का केंद्रीय विचार बनने जा रही है।
इस वंचित समाज के लिए भारत का संविधान पहला ग्रंथ है जिसने उसे वैधानिक रूप से बराबर माना। भारत में हुई यह क्रांति उन क्रांतियों से अलग रही जिसके केंद्र में किसी शासक या तानाशाह का कटा हुआ मस्तक होता है। भारत में अहिंसक क्रांति हुई और 562 राजाओं ने बिना रक्त की एक बूंद बहाये नये भारत के संकल्प के सामने सर झुका दिया। यह सिलसिला आगे चलकर ज़मींदारी उन्मूलन, महिलाओं को बराबरी का अधिकार और पंचायती राज, वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार से होते हुए यूपीए शासन काल में शिक्षा और भोजन के अधिकार क़ानून तक पहुँचा। निश्चित ही, इन अधिकारों को सीमित करने या निष्प्रभावी बनाने के कुटिल उपाय भी चलते रहते हैं, लेकिन ऐसा करने वाले एक हारी हुई बाज़ी ही लड़ते हैं। तमाम अवरोधों के बावजूद लोकतंत्र की चक्की उनके इरादों को पीसते हुए आगे बढ़ती जा रही है।
स्वाभाविक रूप से भारत में आये सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का फ़ायदा उन्हें ही ज़्यादा मिला जिनके पास हज़ारों साल तक शिक्षा और संपत्ति पर अधिकार से पैदा हुई सामाजिक पूँजी थी। नीति निर्माताओं को इसकी चिंता थी, इसीलिए इस पूँजी से वंचित किये गये दलित और आदिवासी समाज के लिए संविधान लागू होते ही आरक्षण लागू कर दिया गया था। पिछड़े वर्गों के लिए भी ऐसा उपाय करने के लिए पहले काका कालेलकर आयोग और फिर मंडल आयोग बनाया गया। अगस्त 1990 में लागू किये गये मंडल कमीशन के पीछे जो भी राजनीतिक दांव-पेंच तलाशें जायें, इसमें शक़ नहीं कि इसने पहली बार पिछड़े वर्गों को बड़े पैमाने पर शासन- प्रशासन में भागीदारी दी। इसका लाभ मुस्लिम समाज को भी मिला, क्योंकि मुसलमान पिछड़ी जातियों को भी मंडल आयोग के तहत आरक्षण दिया गया। यूपीए शासन में 2006 में ओबीसी के लिए 27 फीसदी कोटा शैक्षिक संस्थानों में भी लागू कर दिया गया। इसने इन संस्थानों की तस्वीर ही बदल दी। 1947 से पहले जो ख़ुद को प्रजा समझते थे, आज वे नागरिक हैं और किसी भी सरकार के लिए नागरिक अधिकारों को उलट पाना संभव नहीं रहा। नागरिक अधिकारों का विचार आज़ादी की अवधारणा के साथ नत्थी है। इसके अभाव में आज़ादी का कोई मतलब नहीं रह जाता।
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