इन्फ़ोसिस के सह-संस्थापक एन. नारायणमूर्ति के हफ्ते में सत्तर घंटे काम करने के बयान पर स्वाभाविक ही विवाद हो रहा है। इस भीषण बेरोज़गारी के दौर में काम की उपलब्धता बड़ा संकट है लेकिन नारायणमूर्ति के बयान से लगता है कि लोग काम करना नहीं चाहते या कम काम करते हैं। ज़ाहिर है, नारायणमूर्ति की चिंता के केंद्र में वे कंपनियाँ हैं जो आठ घंटे काम के संवैधानिक प्रावधान से बँधी हैं और श्रमसुधारों की आड़ में उनसे छुटकारा पाने के लिए छटपटा रही हैं। उनकी कोशिश निर्धारित वेतन में ही कर्मचारियों से ज़्यादा से ज़्यादा काम लेकर ‘उत्पादकता’ बढ़ाना है।
सत्तर घंटे काम के प्रस्ताव के बीच ‘एट आवर्स मूवमेंट’ की याद
- विचार
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- 13 Nov, 2023

नारायण मूर्ति ने पिछले महीने हफ्ते में 70 घंटे काम करने की वकालत कर एक बहस छेड़ दी है। क्या देश ऐसा किए बिना आगे नहीं बढ़ सकता? क्या मज़दूरों से मशीन की तरह काम लिया जा सकता है?
जब ‘श्रम कानून’ अपने वास्तविक अर्थों में लागू थे तो मिल मज़दूर आठ घंटे से ज़्यादा काम करने पर दोगुनी मज़दूरी वाले ओवरटाइम के हक़दार होते थे। उन्हें पर्याप्त छुट्टियाँ भी दी जाती थीं। दिन में आठ घंटे काम की सीमा सरकार और समाज के सहजबोध का हिस्सा था। यह ‘सहजबोध’ एक दिन में नहीं बना था बल्कि इसके पीछे कुर्बानियों का लंबा इतिहास है।