जहाँ अधिकांश जाने-माने अर्थशास्त्री चीख-चीख कर कह रहे हैं कि बढ़ती आर्थिक असमानता जो कोरोना के कारण एक बड़ी खाई बन गयी है, न रोकी गयी तो अगले 10 साल में ग़रीबी भयंकर रूप से बढेगी। लेकिन मोदी सरकार इससे उलट राय रखती है। उसके अनुसार असमानता और ग़रीबी का कोई अपरिहार्य समानुपातिक रिश्ता नहीं है। बल्कि सरकार की सोच के अनुसार कई बार असमानता बढ़ने से ग़रीबी कम होने के लक्षण भी दिखाई देते हैं यानी असमानता ग़रीबी कम करने में लुब्रिकेंट का काम करती है।
'माबदौलत' मरने नहीं देंगे, 'सलीम' ग़रीब को जीने नहीं देगा
- विचार
- |
- |
- 7 Feb, 2021

सरकार ने साफ़ किया है कि पूँजी के औचित्यपूर्ण पुनर्वितरण से उसे कोई गुरेज नहीं है लेकिन यह तभी संभव है जब अर्थव्यवस्था का आकर बढ़े यानी जीडीपी बढ़े। सरकार यह तर्क देते हुए भूल गयी कि भारत जीडीपी के पैमाने पर पिछले कुछ दशकों में 25 वें स्थान से पाँचवें स्थान पर आ गया, लेकिन मानव विकास सूचकांक में इन 30 वर्षों में दुनिया में 130 और 135 के बीच ही लटका रहा।
लिहाज़ा अगर आप यह जानना चाहते हैं कि तमाम राजस्व संकट, मुँह बाये खड़ी स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मूलभूत ज़रूरतों सहित विकास के लिए पैसों की किल्लत और दर्जनों बड़े अर्थशास्त्रियों की सलाह के बावजूद मोदी सरकार ने इस वर्ष के बजट में 'सुपर रिच' (अति-धनाढ्य) पर कोविड सेस या सरचार्ज क्यों नहीं लगाया या ऊपरी आयकर स्लैब में आने वालों का टैक्स दर क्यों नहीं बढ़ाया, तो आपको बजट प्रस्तुत करने के तीन दिन पूर्व संसद में प्रस्तुत किये गए आर्थिक सर्वेक्षण खंड-१ के 'असमानता और विकास: संघर्ष और अभिसरण (मिलाप)' शीर्षक अध्याय चार को पढ़ना होगा।