कुछ दिनों पहले नोएडा में एक सड़क दुर्घटना के बाद एकत्रित हुए तमाशबीनों को कार के ड्राईवर ने अपना हिन्दू नाम बताया लेकिन जब पुलिस पहुँची और उसका लाइसेंस देखा तो वह मुसलमान निकला। पूछने पर उसने बताया कि हिन्दू नाम रखने से काम मिलता है और सुरक्षा की “फीलिंग” भी रहती है।
ऐसी आदत पिछले कुछ वर्षों में काफी बढ़ी है। शायद इसका कारण अखलाक, पहलू खान, जुनैद और तबरेज का धार्मिक-भावनात्मक आधार पर भीड़ द्वारा मारा जाना है।
पिछले हफ्ते बीजेपी-शासित उत्तर प्रदेश में आम आदमी पार्टी विधायक सोमनाथ भारती पर एक उत्साही युवा द्वारा स्याही फेंकना और उतने ही उत्साह का मुजाहरा करते हुए पुलिस द्वारा युवक को छोड़ विधायक को जेल में डालना, “लव-जेहाद” का स्मोक स्क्रीम खड़ा कर नागरिक स्वतंत्रता के संविधान-प्रदत्त अधिकार का दमन करना, एक नया धर्म-परिवर्तन कानून चस्पा कर एक माह में उत्तर प्रदेश में 14 मामलों में अल्पसंख्यक समुदाय के 49 लोगों को जेल में डालना जबकि हिन्दू महिलाओं की तरफ से शिकायत केवल दो में ही हुई हो, देश में बहुसंख्यक आतंक का एक नया अध्याय है। इसके मूल में अल्पसंख्यकों की “बलात सहमति” हासिल करना होता है।
19 वीं सदी के लोकतंत्र के उदारवादी चिंतकों में से प्रमुख जॉन स्टुअर्ट मिल इस खतरे से वाकिफ थे। अपने लेख में उन्होंने कहा, “लोकतंत्र केवल शासन-पद्यति ही नहीं है, बल्कि इसके जरिये असंगठित भीड़ द्वारा अपनी पसंद और अभिरुचि के लिए भी जबरिया “सहमति” हासिल की जाती है”।
बहुमत का आतंक
इस लेख के 25 साल पहले यानि सन 1831 की बात है। औपनिवेशिक जकड़ से मुक्ति हासिल करने के बाद बने अमेरिकी संविधान, नागरिक स्वतंत्रता और जैक्सोनियन युग की धूम थी। दुनिया अचंभित थी कि अमेरिकी लोकतंत्र में नागरिक स्वतंत्रता कैसे इतनी उन्मुक्त है। पूरे यूरोप में उस समय तक यह अवधारणा थी कि लोकतंत्र में दोष उसकी कमजोर शासन-प्रणाली है।
बहुमत की ताकत
अमेरिका की तारीफ ने सब को चौंकाया। इससे मुतास्सिर हो प्रख्यात फ़्रांसिसी राजनीति-शास्त्री अलेक्स दे टोक्विल इसे समझने के लिए अमेरिका पहुंचे। नौ माह के अध्ययन के बाद उन्होंने मशहूर पुस्तक “डेमोक्रेसी इन अमेरिका” लिखी जिसका मूल तत्व था “बहुमत का आतंक”। उन्होंने कहा इस डेमोक्रेसी का दोष कमजोर शासन नहीं बल्कि बहुमत की ताकत का ख़तरा है जिसमें अल्पमत की आवाज़ दब जाती है। और कोई भी संस्था या प्रक्रिया उपलब्ध नहीं होती जो अल्पमत की बात पर गौर करे।
जबरिया सहमति
मिल के अनुसार इसके दो चरण हैं। पहले में बहुसंख्यक आतंक वाला समाज राजनीतिक सत्ता के जरिये अल्पसंख्यकों की “जबरिया सहमति” हासिल करता है लेकिन दूसरे चरण में स्वयं यह समाज असंगठित भीड़ के रूप में अपना गलत या सही “मैंडेट” (आज्ञा) बलात थोप सकता है। इस किस्म का आतंक राज्य अभिकरणों द्वारा किये गए जुल्म से ज्यादा खतरनाक होता है।
ऐसी शासन प्रणाली में किसी अधिकारी के आतंक के खिलाफ लोगों को सुरक्षित करना ही काफी नहीं होता बल्कि सुरक्षा उस जनमत, भावना और व्यवहार के खिलाफ भी होनी चाहिए जिस पर सहमति प्रकट न करने वालों पर अनेक प्रहार होते हैं और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य कहीं विलुप्त हो जाता है।
भारत में इसका तीसरा चरण देखा जा सकता है जब इस बहुमत से उभरी राजनीतिक सत्ता समाज की असंगठित भीड़ को राज्य की ताकत मुहैय्या कराने लगती है। अखलाक के घर उन्मादी भीड़ गौ मांस की तलाश में घुसती है तो वहाँ पहुँचने वाले सत्तादल के जनप्रतिनिधियों को आग उगलने वाले भाषण देने के पुरस्कार स्वरुप उनकी सिक्योरिटी बढ़ा दी जाती है। उनमें से एक (विधायक) पर से मुजफ्फरनगर दंगों में दायर पुलिस केस भी हटा लिए जाते हैं।
नागरिकता कानून के विरोध के बाद हुए दंगों में जाँच के तरीके पर एक बड़े पुलिस अधिकारी ने मध्यम-स्तर के अधिकारियों को लिखा- “मामले में कई जांच अधिकारियों ने हिन्दू युवाओं को गिरफ्तार किया है जिससे हिन्दू संगठनों में नाराजगी है। कृपया इन्हें सतर्कता बरतने को कहा जाये”।
शरजील इमाम का मामला
जेएनयू शोधकर्ता शरजील इमाम को देशद्रोही बताने के लिए पुलिस ने चार्ज-शीट में तमाम आरोपों के अलावा यह भी दावा किया है कि शरजील केवल एक पक्षीय किताबें पढ़ता है और दूसरे पक्ष की जानकारी अपने शोध-विषय के लिए नहीं लेता लिहाज़ा कट्टर बन गया है और अपने भाषणों में “ब्राह्मणवादी व्यवस्था और संविधान को “शिक्षित पंडितों” द्वारा लिखा दस्तावेज बताता है”। दिल्ली पुलिस भूल गयी कि मनुवादी/ब्राह्मणवादी व्यवस्था बीएसपी का चुनावी नारा होता था। इस पार्टी से वर्तमान सत्तादल ने चुनावी-समझौता भी किया।
देश के गद्दारों को...
देश ने देखा कि केंद्र का एक मंत्री नारा लगाते हुए “देश के गद्दारों को” कह रहा था और जनता से हाथ से इशारे कर “गोली मारो...को” कहलवा रहा था जबकि एक स्थानीय नेता “24 घंटे के बाद तो हम अपनी भी नहीं सुनेंगे” कह एक पुलिस अधिकारी की मौजूदगी में धमकी दे रहा था लेकिन पुलिस को इनमें कोई भड़काऊपन नहीं दिखा जबकि उमर खालिद द्वारा सुदूर अमरावती में दिया गया भाषण जिसमें बार-बार शांतिपूर्ण आन्दोलन की अपील थी, भड़काऊ और राष्ट्र के खिलाफ षड्यंत्रकारी लगे। डॉ. कफील के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश की पुलिस का एनएसए हाई कोर्ट ने नाराजगी जाहिर करते हुए ख़ारिज किया।
जनता द्वारा चुनी सरकार, जनता के लिए संसद में कानून बनाती है। अगर दोनों सदनों में बहुमत है तो कानून पास हो जाएगा, विपक्ष केवल आवाज़ उठा सकता है। लोकसभा में तो सरकार का बहुमत होता ही है, राज्य-सभा भी बड़े विवादास्पद विधेयक जैसे नागरिकता संशोधन विधेयक 125-99 वोटों से और अनुच्छेद 370 रद्द करने वाला विधेयक सर्वसम्मति से पारित हुआ।
तीनों कृषि कानून भी थोड़े-बहुत हंगामे के बीच राज्य सभा में मतदान में भी पारित हो ही जाते। लिहाज़ा सरकार पर यह आरोप कि बिल जबरदस्ती पास करा लिया कोई खास वजन नहीं रखता।
सड़क पर हैं किसान
इस बीच, तीनों किसान कानूनों को लेकर किसान सड़क पर हैं। सरकार और उनके समर्थकों का तर्क है- “क्या कानून अब संसद में नहीं सड़क पर पास होगा?”। वे यह कह रहे हैं कि बहुमत से चुनी सरकार अगर कानून बनाती है उसमें जन-अभिमत की ताकत होती है। अगर किसानों को ऐतराज हो तो वे अगले चुनाव में मतदान में यह आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं। यह तर्क लोकतंत्र की मूल आत्मा को न समझने के कारण है।
विपक्ष और मीडिया की जिम्मेदारी
चुनाव जीतना कोई पांच साल के लिए साइकिल का ठेका हासिल करना नहीं है जिसमें ठेकदार को इज़ाज़त होती है कि वह एक मुश्त पैसे दे कर साइकिल रखने वालों से जो रेट चाहे वह वसूले। यह तर्क भी लोकतंत्र के प्रति नासमझी का मुजाहरा है कि अगर सरकार खराब है तो पांच साल बाद उसे मतपत्र के जरिये बदल दें। “किसी भी जीवंत लोकतंत्र में मुद्दों पर लोक-विमर्श गवर्नेंस की अपरिहार्य शर्त होती है। धरना, प्रदर्शन और विरोध के अन्य शांतिपूर्ण तरीके क्रियात्मक परिणीति। लोक धरातल में जनमत बनाना ही विपक्ष और मीडिया का काम होता है।
“मंत्री जी, सड़क पर गड्ढे क्यों बढ़ रहे हैं या बिहार -ओडिशा में गरीब भूख से क्यों मरा” यह सवाल मीडिया उजागर करता है और विपक्ष विधायिका में या सड़क पर प्रदर्शन के जरिये इसे उठाता है। लिहाज़ा सरकार का यह आरोप कि किसान आन्दोलन के पीछे राजनीतिक पार्टियां हैं, लोकतंत्र में तानाशाही रवैये का द्योतक है।
बल्कि सवाल तो यह होना चाहिए कि क्या विपक्ष पर अविश्वास इतना हो गया है कि आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों को आसपास फटकने नहीं दे रहे हैं। या तो विपक्ष की विश्वसनीयता ख़त्म हो गयी है या फिर यह भी बलात सहमति का ही एक स्वरुप है।
अक्सर सरकार की असफलता से जब कुछ मौतें होती हैं तो सत्ता पक्ष कहता है “इसमें राजनीति न की जाये” गोया राजनीति करना किसी जरायम पेश की तरह है। और अगर ऐसा है तो जो सत्ता पक्ष में है वह क्या सिविल सर्विसेज की परीक्षा दे कर आया है?
लिहाज़ा किसान की यह बलात सहमति ही कही जायेगी कि वह विपक्ष को दूर रखने लगा। सत्ता-पक्ष को यह भाता है।
भारत का लोकतंत्र टोक्विल और मिल के खतरे को साबित ही नहीं करता बल्कि उसके एक चरण आगे पहुँच कर बलात सहमति में भीड़-न्याय और राज्य-शक्ति के असंवैधानिक, आपराधिक और अनैतिक गठजोड़ का नया स्वरुप है। इस बीमारी का निदान तब तक संभव नहीं जब तक “केवल बहुमत ही सत्य” की अवधारणा न बदली जाये।
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