डेढ़ माह से ज़्यादा वक़्त से भीषण ठंड में भी जारी किसान आंदोलन जीने और मरने की लड़ाई में तब्दील हो गया है। मुद्दा न तो केवल एमएसपी के कानूनी अधिकार का है, न ही तीनों कानून ख़त्म करने भर का। देश की आर्थिक रीढ़ बनी कृषि में, जो आज भी 55 करोड़ लोगों की मजदूरी और 62 प्रतिशत लोगों के व्यवसाय का सहारा है, 70 वर्षों बाद भी केवल 42 प्रतिशत सिंचित जमीन है।
किसानों के साथ बड़ा धोखा है “नेगेटिव सब्सिडी”
- विचार
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- 15 Jan, 2021

मान लें कि सरकार किसानों की एमएसपी की मांग मान ले लेकिन अन्य सभी सब्सिडी बंद कर दे तो क्या यूरिया जो आज 5922 रुपये प्रति टन है, छूट ख़त्म होने के बाद किसान 17000 रुपये के फैक्ट्री मूल्य पर खरीदेगा? लेकिन किसानों की मांग इसलिए जायज है क्योंकि पूरी दुनिया में हर सरकार अलग-अलग स्वरुप में किसानों की मदद करती है।
कृषि-शोध से बेरूख़ी क्यों?
अगर कृषि-शोध पर सरकार का खर्च जीडीपी का मात्र 0.37 प्रतिशत (इससे ज्यादा एक विदेशी कंपनी अपने कृषि-शोध में खर्च करती है) हो और आज़ादी के पहले दशक में कृषि में जो सरकारी निवेश जीडीपी का 18% था आज मात्र 7.6% रह गया हो तो क्या किसान क़ानूनों, आश्वासनों और “अन्नदाता” का तगमा ले कर तिल-तिल कर मरता रहे?