डेढ़ माह से ज़्यादा वक़्त से भीषण ठंड में भी जारी किसान आंदोलन जीने और मरने की लड़ाई में तब्दील हो गया है। मुद्दा न तो केवल एमएसपी के कानूनी अधिकार का है, न ही तीनों कानून ख़त्म करने भर का। देश की आर्थिक रीढ़ बनी कृषि में, जो आज भी 55 करोड़ लोगों की मजदूरी और 62 प्रतिशत लोगों के व्यवसाय का सहारा है, 70 वर्षों बाद भी केवल 42 प्रतिशत सिंचित जमीन है।
कृषि-शोध से बेरूख़ी क्यों?
अगर कृषि-शोध पर सरकार का खर्च जीडीपी का मात्र 0.37 प्रतिशत (इससे ज्यादा एक विदेशी कंपनी अपने कृषि-शोध में खर्च करती है) हो और आज़ादी के पहले दशक में कृषि में जो सरकारी निवेश जीडीपी का 18% था आज मात्र 7.6% रह गया हो तो क्या किसान क़ानूनों, आश्वासनों और “अन्नदाता” का तगमा ले कर तिल-तिल कर मरता रहे?
अंग्रेजों ने 1900-1947 तक अगर इस क्षेत्र में एक पैसा भी निवेश नहीं किया तो हम उन्हें बुरा-भला कहते हैं लेकिन आज जब वोट के लिए इसे “अन्नदाता” कहा जाता है तो नीति-निर्धारण में यह कटौती क्यों? क्यों गेहूं-धान की उत्पादकता में भारत का स्थान अन्य देशों के मुकाबले 50वां है? कम उत्पादकता का कारण है दशकों से सिंचाई, कृषि-शोध और छोटी जोत के लिए उपयुक्त टेक्नोलॉजी का विकास न करना।
“अन्नदाता” बना कर यह कैसा धोखा?
ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की ताज़ा रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इसके अनुसार अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और स्विट्ज़रलैंड जैसे विकसित देश तो छोड़िये, चीन, ब्राजील, मैक्सिको और इंडोनेशिया सरीखे विकासशील देश भी अपने किसानों को सकारात्मक सब्सिडी देते हैं जबकि भारत में, जो सब्सिडी “अन्नदाता” को देकर बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं, उनकी हकीकत यह है कि उससे ज्यादा किसानों से भांति-भांति के टैक्स के रूप में वापस ले ली जाती है यानी भारत में करीब दस प्रतिशत की “निगेटिव सब्सिडी” है।
आय दोगुनी करने का दावा
ओईसीडी अकेली संस्था है जो दुनिया के तमाम देशों में किसानों को दी जानी वाली परोक्ष या प्रत्यक्ष सब्सिडी और उसके बरक्स उनसे वसूले जाने वाले टैक्स के बारे में रिपोर्ट जारी करती है। रिपोर्ट के अनुसार यह स्थिति सन 2017-19 के बीच की सरकारी नीतियों का प्रतिफल है। ध्यान रहे कि सन 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बरेली के भाषण में किसानों की आय फ़रवरी 2022 तक दोगुनी करने की घोषणा की थी और 2019 का आम चुनाव भी इसी नारे पर जीता था।
सरकारी दावों के ठीक उलट भारत अकेला देश है जहाँ उपभोक्ताओं को कृषि उत्पाद अंतरराष्ट्रीय मूल्यों से कम पर मिलते हैं जबकि सभी उपरोक्त देशों में ज्यादा कीमत पर। यानी परोक्ष रूप से सरकार की नीतियाँ किसानों को घाटे में रख कर भी उपभोक्ताओं को खुश रखने की है ताकि जनमंचों से कहा जा सके कि देश में महंगाई कम है।
चीन के किसानों को अपने उत्पाद का मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से लगभग 10 फीसदी ज्यादा मिलता है जबकि भारत के “अन्नदाता” को 13 प्रतिशत कम।
किसान को नुक़सान, उपभोक्ता को फायदा
कुल मिलाकर जहाँ भारत में कीमतें नीचे रख कर महंगाई रोकने की नीतियों के कारण 2019 में “अन्नदाता” को कुल 1.61 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ, वहीं उपभोक्ताओं को छह लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का फायदा। उपरोक्त तमाम देश ठीक इसके उलट नीतियाँ रखते हैं ताकि उपभोक्ता खाद्यान्नों की ज्यादा कीमत दे कर किसानों को आर्थिक मजबूती दे।
इस हाथ से दे कर उस हाथ से “अधिक” लेने का एक प्रमाण देखें। उदाहरण है रासायनिक खाद।
यह सच कि भारत में बनी यूरिया की असली कीमत 17000 रुपये प्रति टन होती है जबकि आयातित यूरिया 23000 रुपये की पड़ती है। सरकार की सब्सिडी की वजह से किसानों को नीम-लेपित यूरिया मात्र 5922.22 रुपये की पड़ती है। यही स्थिति डीएपी या अन्य मिश्रित खादों की है। लेकिन हकीकत यह है कि इसमें से सरकार आधे से ज्यादा डीजल पर टैक्स के रूप में वसूल लेती है। कृषि उपकरणों, कीटनाशकों और स्वयं खाद पर टैक्स के रूप में जो वसूली होती है वह अलग।
जब तक कम निवेश से, अवैज्ञानिक और एकल-फसलीय खेती होती रहेगी, उत्पादकता नहीं बढ़ेगी। पंजाब, हरियाणा, चीन या अमेरिका की जमीन बिहार या उत्तर प्रदेश से ज्यादा उर्वरा नहीं है लेकिन कृषि में उपरोक्त अपेक्षाकृत निवेश ज़रूर हैं। भूलें नहीं कि पश्चिमी देशों या चीन में किसानों को विभिन्न तरीकों से दी जाने वाली सब्सिडी या अन्य मदद कई गुना ज्यादा है।
किसान पर आरोप गलत है
किसान का उत्पाद महंगा है यानी प्रति हेक्टेयर अन्य देशों में उत्पादन ज्यादा होता है। सरकार का परोक्ष उलाहना है कि किसान निवेश करने की स्थिति में नहीं होता, वैज्ञानिक खेती से परहेज करता है और डाइनेमिक सोच न होने के कारण केवल एकल फसल (धान-गेहूं) की खेती करता है। इन आदतों से खेत की उर्वरा शक्ति ख़त्म हो जाती है। लेकिन यह नहीं सोचा गया कि निवेश क्यों नहीं करता। अगर उपज के दाम दबाये जायेंगे, दाल और प्याज के दाम बढ़े तो तत्काल आयात किया गया तो कैसे उसके हाथ में पैसे आयेंगे।
उधर, महंगा कृषि उत्पाद उद्यमी या व्यापारी क्यों खरीदेगा? यानी सरकार सारा उत्पाद एमएसपी पर खरीदे और फिर बेचे। फिर क्या सरकार का धंधा रोड, पुल, शिक्षा, स्वास्थ्य, अंतर-संरचना, रक्षा व विकास के अन्य आयाम छोड़ कर आढ़ती बनना होना चाहिए?
नयी किसान नीति की ज़रूरत
मान लें कि सरकार किसानों की एमएसपी की मांग मान ले लेकिन अन्य सभी सब्सिडी बंद कर दे तो क्या यूरिया जो आज 5922 रुपये प्रति टन है, छूट ख़त्म होने के बाद किसान 17000 रुपये के फैक्ट्री मूल्य पर खरीदेगा? लेकिन किसानों की मांग इसलिए जायज है क्योंकि पूरी दुनिया में हर सरकार अलग-अलग स्वरुप में किसानों की मदद करती है।
दरअसल, इसका समाधान एमएसपी पर सरकार को हर अनाज खरीदने के लिए बाध्य करना नहीं है बल्कि एक नयी किसान राहत नीति में है जिसके तहत बोई गयी फसल के साथ ही होने वाली उपज के आधार पर एक फ़ॉर्मूला बनाकर (जो एमएसपी के नजदीक हो) सीधे कैश ट्रान्सफर किया जाये और इसका सरकार को आंशिक अनुभव भी है।
हर गाँव को एक इकाई मान कर सैटेलाइट इमेज के जरिये बोये गए क्षेत्र और उस पर खड़ी फसल का अंदाज राज्य स्तर पर एक विशेषज्ञों की स्वतंत्र समिति कर सकती है। और उसी फ़ॉर्मूले के आधार पर राशि किसान के खाते में भेजी जा सकती है। गेहूं-धान को छोड़ कर अन्य उत्पादों का न्यूनतम मूल्य तय किया जा सकता है।
सरकार अपने अनाज–वितरण कार्यक्रमों के लिए “जब और जहाँ जरूरत हो” के आधार पर किसान-उत्पादक संगठनों से या बाज़ार से अनाज टेंडर निकाल कर ले सकती है। इससे रखरखाव पर आने वाला भारी खर्च बचेगा और भ्रष्टाचार भी संभव नहीं होगा।
उधर, व्यापारी अति-उत्पादन की स्थिति में खुले बाज़ार में मूल्य भी नीचे नहीं रख पायेंगे क्योंकि उन्हें डर रहेगा कि सरकार निजी मंडियों में भी प्रवेश कर सकेगी।
स्थानीय किसान परिवारों को भी थोक व्यापार में सहज मान्यता मिलेगी तो किसानों को पैसे डूबने का डर भी कम रहेगा और परिवारजनों को रोजगार मिलेगा। स्थानीय उद्यमिता बढ़ेगी। ठेका-कृषि में अगर फसल खराब हुई तो बीमा सिस्टम को मजबूत और तेज बनाकर किसान को आपदाओं से महफूज किया जा सकता है। इस योजना में बहु-फसलीय, निवेशोन्मुख और वैज्ञानिक खेती भी हो सकेगी।
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