“... सचमुच लगने लगा है जैसे हम इस देश में और रह नहीं सकते।” फ़िल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता ने किंचित खिन्नता से अपनी वेदना प्रकट की जब टेलीग्राफ़ अख़बार के प्रसून चौधरी ने उनसे नसीरुद्दीन शाह पर हो रहे हमलों का ज़िक्र किया। बुद्धदेव बाबू ने कहा, “चूँकि यह नसीर के साथ हुआ, यह बड़ी ख़बर है लेकिन यह तो आज हर किसी के साथ हो रहा है। यह सिर्फ़ कलाकारों के साथ नहीं हो रहा, प्रत्येक नागरिक आज ख़ुद को ख़तरे में महसूस कर रहा है। चीज़ें इतनी ख़राब हो गई हैं कि सचमुच लगने लगा है जैसे हम इस देश में और रह नहीं सकते।”
बुद्धदेब दासगुप्ता को क्यों लगा कि देश अब रहने लायक नहीं?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 31 Dec, 2018

देश में ऐसा क्या हो गया है कि लोगों को ख़तरा महसूस होने लगा है? क्या स्थितियाँ इतनी ख़राब हो गई हैं कि सचमुच लगने लगा है जैसे हम इस देश में और रह नहीं सकते? पिछले चार वर्षों से लेखकों, कलाकारों, फ़िल्मकारों और बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ पूरा राजकीय तंत्र आक्रामक क्यों है? क्या इसलिए कि वे राष्ट्र से सवाल पूछ रहे हैं और उसे अपनी कसौटी पर कस रहे हैं?
बुद्धदेव दासगुप्ता का जीवन यथार्थ और कल्पना के बीच के तनाव को साधते हुए गुजरा है। वे फ़िल्में बनाते हैं। आसान फ़िल्में नहीं। 'दूरत्व', 'बाघ बहादुर', 'ताहादेर कथा', 'लाल दोरजा' और 'उत्तरा' जैसी फ़िल्में उन्होंने बनाई हैं। उनकी नई फ़िल्म है- उडो जाहाज (हवाई जहाज)।
भारत अगर आज भारत है तो सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और बुद्धदेव दासगुप्ता जैसे रचनाकारों की वजह से। बांधों और सड़कों और कारखानों से राष्ट्र नहीं बनता। वह बनता है कविताओं, उपन्यासों, फ़िल्मों से। राष्ट्र की कल्पना को हमारे रचनाकार निरन्तर समृद्ध करते हैं। ऐसा वे राष्ट्र से सवाल पूछकर और उसे अपने सर्जनात्मक मूल्यों की कसौटी पर कसते हुए करते हैं। राष्ट्र को चुनौती देना ही रचनाकार का काम है। उनकी ओर से आँख और मुँह फेर लेनेवाला राष्ट्र विपन्न होने को अभिशप्त है।
भारत अगर आज भारत है तो सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और बुद्धदेव दासगुप्ता जैसे रचनाकारों की वजह से। बांधों और सड़कों और कारखानों से राष्ट्र नहीं बनता। वह बनता है कविताओं, उपन्यासों, फ़िल्मों से। राष्ट्र की कल्पना को हमारे रचनाकार निरन्तर समृद्ध करते हैं। ऐसा वे राष्ट्र से सवाल पूछकर और उसे अपने सर्जनात्मक मूल्यों की कसौटी पर कसते हुए करते हैं। राष्ट्र को चुनौती देना ही रचनाकार का काम है। उनकी ओर से आँख और मुँह फेर लेनेवाला राष्ट्र विपन्न होने को अभिशप्त है।
बुद्धदेव दासगुप्ता की फ़िल्मों में बांग्ला के महान फ़िल्मकारों की तरह ही साधारण मनुष्य का अपनी शर्तों पर जीने का संघर्ष चित्रित हुआ है। आश्चर्य नहीं कि उनकी नई फ़िल्म “उडो जाहाज” एक सनकी कार मैकेनिक बच्चू की राज्य की ताक़त से टकराने की कहानी है। बल्कि उसके सपने की राज्य से मुठभेड़ की कथा। बच्चू जहाज उड़ाने का सपना बचपन से देखता रहा है। एक दिन अचानक उसे जंगल में दूसरे विश्व युद्ध का एक बेकार हो गया लड़ाकू विमान मिलता है और वह उसे फिर से चालू करने की कोशिश करता है। पुलिस को इसकी भनक लग जाती है और वह उसे आतंकवादी घोषित करके जहाज ज़ब्त कर लेती है।