क्या नफ़रत करनेवाला प्यार करनेवाले में बदल सकता है? क्या घृणा स्थायी भाव है? घृणा के बारे में व्यक्तियों के सन्दर्भ में और समूहों के सन्दर्भ में अलग-अलग बात करने की ज़रूरत है? क्या समूहगत घृणा का स्वरूप अलग होता है? क्या घृणा अपने आप में हिंसा है, क्या वह हिंसा को अनिवार्यतः जन्म देती है? क्या वह टाइम बम की तरह हम सबके भीतर है?
जब गुजरात हिंसा ही हिंसकों को पढ़ा गई प्यार का पाठ...
- वक़्त-बेवक़्त
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- 7 Jan, 2019

हिंसा और नफ़रत से जुड़े प्रश्न आज सबसे अहम हो गए हैं। किसी एक देश या सभ्यता के लिए नहीं, यह एक सार्वभौम प्रश्न और चुनौती है कि घृणा और हिंसा को कैसे समझा जाए और कैसे उन पर काबू पाया जाए? यह तभी हो सकता है जब हिंसा का कारण मालूम हो। ये कारण वे हैं जिन्हें बदलना है इसलिए समझना भी उन्हें ज़्यादा ज़रूरी है।
इक्कसवीं सदी में ये प्रश्न सबसे अहम हो गए हैं। किसी एक देश या सभ्यता के लिए नहीं, यह एक सार्वभौम प्रश्न और चुनौती है कि घृणा और हिंसा को कैसे समझा जाए और कैसे उन पर काबू पाया जाए? घृणा और हिंसा को पूरी तरह समाप्त करना खामख्याली ही, ऐसा कई लोग मानते हैं। इसके बावजूद दुनिया में ऐसे लोगों और समूहों की कमी नहीं जो इन दोनों के विकल्प की तलाश करते हैं।
हिंसा का विकल्प हो सकता है, इस पर विश्वास करने के पहले यह मानना ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति स्थायी रूप से घृणा करनेवाला नहीं होता। रेवती लाल ऐसी ही एक जिद्दी इंसान हैं जो नफ़रत को स्थायी नहीं मानतीं, जो उसे अनेक निजी असुरक्षाओं और इरादों के जटिल सम्मिश्रण का परिणाम मानती हैं और इसलिए जो वैसे लोगों की खोज में रहीं जो हिंसा में किसी न किसी रूप में हिस्सा लेते हैं और उन्हें इस लायक मान सकीं कि उन्हें समझा जाए, उनके मन और दिमाग की अंधेरी गहराइयों में उतर कर उस घृणा को समझने की कोशिश की जाए जो हिंसा में बदल कर उन्हें अपराधी बना देती है।
पीड़ितों की नहीं, हिंसकों के बदलने की कहानी
'द एनाटॉमी ऑफ़ हेट' नामक किताब रेवती के इसी यक़ीन का नतीजा है। यह 2002 में गुजरात की मुसलमान विरोधी हिंसा और संहार पर आधारित है लेकिन उस पर लिखे गए अब तक के वृत्तांतों और व्याख्याओं से अलग। 2002 की हिंसा पर काफ़ी कुछ लिखा गया है और उस हिंसा के बाद की स्थिति पर भी। लेकिन वह सब कुछ हिंसा के शिकार लोगों के बारे में है। वह प्रायः तकलीफ़, धोखे और नाइंसाफी की कहानी है। वह हिंसा या घृणा की उस ताक़त के बारे में है जो सामाजिक रिश्तों को बदल देती है। इस तरह के लेखन में व्यथा होती है लेकिन यह देखा गया है कि शायद ही वह इस हिंसा के पक्षधर लोगों को पुनर्विचार करने को प्रेरित करे।
- दूसरी तरफ़ ऐसा लेखन हिंसा के शिकार लोगों में ख़ुद को निरंतर पीड़ित और दूसरों के (हिंसक पक्ष) मुकाबले कमज़ोर मानने की प्रवृत्ति को और दृढ कर सकता है। वह हिंसक पक्ष में यह भाव भर सकता है कि उसने दूसरे पक्ष को आखिरकार पराजित कर दिया है और अपने इलाक़े से खदेड़ दिया है। वह उनमें हिंसा के अन्याय या उसकी व्यर्थता को लेकर कोई विचार शुरू नहीं कर पाता।
यक़ीन पैदा करने की चुनौती
हिंसा की कहानी कैसे कही जाए कि हिंसक व्यक्ति के बदलने में यक़ीन पैदा हो सके? रेवती ने गुजरात की हिंसा को पत्रकार की तरह रिकॉर्ड किया। लेकिन उस हिंसा के स्रोतों की तलाश में वह दस साल से भी ज़्यादा लगी रहीं। हिंसा के शिकारों से बात करने की जगह हिंसा में शामिल लोगों से बात करना अधिक मुश्किल है। वह भी इस तरह कि उनपर तुरंत फैसला न सुनाया जाए बल्कि उन्हें समझने लायक इंसान माना जाए।
रेवती ने तक़रीबन सौ ऐसे लोगों को खोज निकाला जो 2002 की हिंसा में या तो सक्रिय रूप से शामिल थे या उसके समर्थक-दर्शक थे। फिर उनमें से वे तीन की ज़िंदगियों का पीछा करती हैं।