2024 का लोकसभा चुनाव बेहद दिलचस्प मोड़ पर पहुँच गया है। यह चुनाव केवल भाजपा बनाम इंडिया एलाइंस नहीं है बल्कि भाजपा में भी अंदरूनी घमासान जारी है। 2024 का यह चुनाव भाजपा के भीतर 2029 के लिए भी लड़ा जा रहा है। यह चुनाव जितना नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी है, उतना ही अमित शाह बनाम योगी आदित्यनाथ भी है। दरअसल, यह चुनाव अब पूर्णतया यूपी केंद्रित हो चुका है। यूपी तय करेगा कि भाजपा की सरकार बनेगी या नहीं। हालांकि यह तो पुरानी कहावत है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ होकर जाता है। जिसने यूपी जीता उसने भारत जीता। इसलिए यूपी की राजनीति पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई हैं। नरेंद्र मोदी को मालूम है कि अगर यूपी से वह 70 सीटें जीतते हैं तो केंद्र में भाजपा की सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता। यानी, मोदी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, यह उत्तर प्रदेश तय करेगा।
नरेंद्र मोदी को यूपी से उम्मीदें भी रही हैं। राम मंदिर के उद्घाटन से उपजी हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर मोदी चुनाव फतह करना चाहते थे। लेकिन पूरे देश में भगवा पाटने और शौर्य दिवस मनाने के बावजूद मंदिर की लहर जनवरी बीतते-बीतते ख़त्म हो गई। यहां एक सवाल है कि जिस मंदिर आंदोलन पर सवार होकर भाजपा देश की राजनीति में आगे बढ़ी उसी राम मंदिर का निर्माण चुनाव जिताऊ मुद्दा क्यों नहीं बन सका? पहली बात तो यह है कि राम मंदिर आंदोलन के ज़रिए भाजपा, संघ और विश्व हिंदू परिषद ने पूरे देश में जो सांप्रदायिक उन्माद पैदा किया था, वह अगड़ी जातियों को ही राजनीतिक घेरे में खींच सका। गौरतलब है कि जब तक भाजपा ने दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में जातिगत फूट पैदा करके अपने साथ जोड़ने की कोशिश नहीं की, तब तक वह सत्ता के गलियारे तक नहीं पहुंच सकी। मंडल के बरक्स कमंडल की राजनीति को जब सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए मज़बूत किया गया, तभी भाजपा पहली बार 1998 में दिल्ली की गद्दी तक पहुंच सकी। यह भी गौरतलब है कि एनडीए के प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेई तभी स्वीकार किए गए जब बीजेपी ने अपने तीनों कोर एजेंडे त्याग दिए। लेकिन 2014 में यूपीए सरकार के ख़िलाफ खड़े किए गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के ज़रिए भाजपा और संघ ने ऐसी बिसात बिछाई, जिसमें कांग्रेस ही नहीं, देश का मतदाता भी मात खा गया।
पिछड़ों का मुखौटा लगाकर नरेंद्र मोदी कॉर्पोरेट रथ पर सवार होकर तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुए। अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और रवि शंकर जैसे मोहरों का इस्तेमाल करके मीडिया के सहारे जो आंदोलन खड़ा किया गया उसमें सामाजिक न्याय के सवाल दफन हो गए। ऐसे आंदोलन से लोकतंत्र का कितना नुकसान हुआ इसका मूल्यांकन, नरेंद्र मोदी के 10 साल के कार्यकाल में बनी नीतियों और देश के हालातों से किया जा सकता है। आज बेहिचक कहा जा सकता है कि 2012-13 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लोकतंत्र और समाज के रिश्तों को गहरी चोट पहुंची। इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि स्वतंत्र भारत में किसी आंदोलन या क्रांति की ज़रूरत नहीं है। लेकिन उनका यह भी मानना था कि सामाजिक और आर्थिक न्याय के सवालों पर आंदोलन की जरूरत हो सकती है। दलितों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के उत्थान और न्याय के मुद्दों पर आंदोलन हो सकते हैं, भ्रष्टाचार और न्यायिक फैसलों जैसे मुद्दों पर नहीं।
बहरहाल, मोदी के 10 साल के शासन में अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया गया और अदालती आदेश के ज़रिए राम मंदिर भी बनकर तैयार हो गया। नरेंद्र मोदी ने इन 10 सालों में अपने आप को इतना मज़बूत कर लिया कि भाजपा को पीछे से नियंत्रित करने वाला संघ भी मोदी की परछाई लगने लगा। राम मंदिर उद्घाटन के समय हिंदू धर्मगुरु शंकराचार्यों की अवहेलना को तो छोड़ ही दीजिए, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को भी मोदी से नीचे स्थान दिया गया। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को भी बार-बार उनकी स्थिति का एहसास कराया जाता रहा। 25 करोड़ की आबादी और 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य के मुख्यमंत्री को नरेंद्र मोदी की गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ते देखा गया। मुख्य सचिव से लेकर योगी कैबिनेट के कई मंत्री भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खास लोग हैं। कहा जाता है कि योगी सरकार के अधिकांश फ़ैसले मोदी के चुनिंदा अधिकारियों द्वारा ही लिए जाते हैं।
कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा हों या राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया, मध्य प्रदेश का सबसे लोकप्रिय चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हों या छत्तीसगढ़ के रमन सिंह, गुजरात के विजय रूपाणी हों या महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस; सबको निपटा दिया गया।
चुनाव के ठीक पहले यह नैरेटिव सामने आ चुका था कि अगर मोदी फिर से प्रधानमंत्री बने तो योगी आदित्यनाथ यूपी के मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे। जिस तरह से यूपी की ठाकुर लॉबी को कमजोर किया गया उससे योगी की आशंका और बलबती हुई। इसलिए यूपी के राजपूतों के बीच एक नारा तेजी से फैला, 'योगी को बचाना है तो मोदी को हराना है'। गुजरात, राजकोट के बीजेपी प्रत्याशी पुरुषोत्तम रुपाला द्वारा राजपूतों के बारे में की गई टिप्पणी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन राजस्थान होते हुए यूपी तक आ पहुंचा। पश्चिमी यूपी में राजपूतों की अनेक सभाएं हुईं। राजपूत भाजपा के खिलाफ लामबंद होने लगे। जाहिर तौर पर योगी के संकेत के बिना यूपी में विरोध प्रदर्शन संभव नहीं है। राजपूतों के विरोध को देखते हुए नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभा में योगी की भरपूर प्रशंसा की। बनारस से सांसद मोदी ने योगी को अपना मुख्यमंत्री तक बताया। लेकिन शह और मात का खेल अभी भी जारी है। अमित शाह ने यूपी की ठाकुर लॉबी के बृजभूषण शरण सिंह, राजा भैया और धनंजय सिंह जैसे तमाम नेताओं को अपने पाले में खींच लिया है। भाजपा के इस अंदरूनी खेल से भाजपा को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह चुनाव तय करेगा कि यूपी का बॉस कौन होगा- योगी या कोई और? लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या यूपी तीसरी बार नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के लिए तैयार है? हकीकत यह है कि हालात बदले हुए हैं। यूपी में भाजपा बेहद कमजोर स्थिति में है। इंडिया गठबंधन को भरपूर जन समर्थन मिल रहा है। जबकि भाजपा और मोदी महंगाई और बेरोज़गारी के सवालों से घिरी हुई है। संविधान बचाने के मुद्दे का भी असर वोटिंग पर दिखाई पड़ रहा है।
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