अमेरिका में पचास राज्य हैं और विभिन्न मुद्दों पर हर राज्य में अलग-अलग कानून संभव हैं। फिर भी अमेरिका की एकता और अखंडता पर कोई सवाल उठाना हास्यास्पद ही होगा। ‘लोकतंत्र की जननी’ भारत के प्रधानमंत्री बतौर नरेंद्र मोदी अपनी हालिया यात्रा के दौरान अगर ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ अमेरिका की इस विशिष्टता की ओर ध्यान दे पाते तो शायद मध्यप्रदेश पहुँचकर समान नागरिक संहिता को ज़रूरी बताते हुए ये सवाल न उठाते कि एक देश में दो कानून कैसे रह सकते हैं? या फिर हक़ीक़त वे जानते हैं पर मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की दुर्गति की आशंका से घबराकर ऐसे मुद्दों को हवा देने में जुट गये हैं जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की बीजेपी की रणनीतिक योजना के अनुकूल हैं।
संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता को कानूनी मान्यता न देते हुए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में अपनाया था। संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा’। उन्हें यह अच्छी तरह पता था कि विभिन्नताओं से भरे भारत में समान नागरिक संहिता एक दूरगामी लक्ष्य ही हो सकता है। लेकिन बीजेपी अपने पूर्व अवतार जनसंघ के समय से ही समान नागरिक संहिता के विचार को मुसलमानों को सबक़ सिखाने के मक़सद से उछालती रही है। लगातार यह दुष्प्रचार किया गया कि मुसलमान चार शादी करते हैं जबकि हिंदू एक ही कर सकता है। समान नागरिक संहिता इस पर रोक लगाएगी। चार बीवियों वाले किसी मुस्लिम परिवार का अता-पता तो उन्हें भी नहीं मालूम लेकिन ‘चार बीबी-चालीस बच्चे’ का नारा उन्होंने खूब चलाया। बल्कि समान नागरिक संहिता के पूरे विचार को इतने तक ही सीमित रखने में ही रुचि दिखायी।
समान नागरिक संहिता एक गंभीर विषय है और इस पर पूरी गंभीरता से विचार होना चाहिए। इसका चुनावी दाँव-पेच की तरह इस्तेमाल बताता है कि बीजेपी वास्तव में इसे लेकर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। यह बात इसलिए भी प्रमाणित होती है कि दशकों क प्रचार-दुष्प्रचार के बावजूद बीजेपी की ओर से समान नागरिक संहिता का कोई प्रारूप (ड्राफ्ट) जनता के सामने पेश नहीं किया गया ताकि यह समझा जा सकता कि मौजूदा कानूनों को यह किस कदर प्रभावित करेगा। समान नागरिक संहिता तो पूरे देश पर लागू होगी। यानी शादी-विवाह, उत्तराधिकार, विरासत आदि मसलों पर एक ही क़ानून होगा। पर मौजूदा स्थिति को देखते हुए क्या यह संभव है? 21वें लॉ कमीशन ने तो अपने निष्कर्ष में साफ़ कहा था कि भारत के लिए समान नागरिक संहिता न ज़रूरी है और न वांछित है। यह निष्कर्ष चूँकि बीजेपी के प्रचार अभियान की पोल खोल रहा था, इसलिए अब 22वें विधि आयोग के ज़रिए, इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है।
बीजेपी को उम्मीद थी कि समान नागरिक संहिता का मुस्लिम समुदाय मुखर विरोध करके उसकी रणनीति को क़ामयाब करेगा, लेकिन सबसे ज़्यादा विरोध तो आदिवासी समुदायों की ओर से हो रहा है।
26 जून को झारखंड की राजधानी में 20 से ज्यादा आदिवासी संगठनों ने समान नागरिक संहिता के विरोध में आवाज़ बुलंद की। आदिवासी संगठनों का कहना है कि अगर समान नागरिक संहिता लागू हुई तो उनकी अस्मिता खतरे में पड़ जाएगी। इस कानून से उनके विवाह, तलाक, बंटवारे, गोद लेने आदि से जुड़े तमाम क़ानून ही नहीं, जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार स्वीकार करने वाला ‘पेसा’ जैसा कानून भी प्रभावित होगा जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। 1928 में एम्सटर्डम ओलंपिक में पहली बार स्वर्णपदक जीतने वाली टीम के कैप्टन और संविधान सभा में आदिवासियों के नेता बतौर शामिल रहे कैप्टन जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था कि ‘वे पं. नेहरू के आश्वासन पर सदियों से चला आ रहा एक युद्ध स्थगित कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि आज़ाद भारत में आदिवासियों को न्याय मिलेगा।’ अगर नेहरू की ओर से दिये गये आश्वासन को तोड़ने की कोशिश की गयी तो यह ‘स्थगित युद्ध’ फिर से नहीं भड़केगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
कुछ ऐसा ही विरोध पूर्वोत्तर के राज्यों की ओर से भी हो रहा है। मिजोरम की विधानसभा ने तो फरवरी 2023 में समान नागरिक संहिता के ख़िलाफ़ एक प्रस्ताव ही पारित कर दिया था। उधर मेघालय में खासी, गारो और जंयतिया जैसे मातृसत्तात्मक समुदाय हैं जिनके अपने अलग नियम हैं। वहीं नागालैंड ट्राइबल काउंसिल भी समान नागरिक संहिता के खिलाफ ताल ठोंक रहा है।
भारत की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधिता को देखते हुए युनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल जैसे राजनेताओं ने इसके निकट भविष्य में टूट जाने की भविष्यवाणी की थी लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन से तपकर निकले नेतृत्व ने देश की विविधता को सीमा नहीं शक्ति में बदल दिया। ऐसा लचीला संविधान बनाया गया जिसमें सबकी विशिष्टता की सुरक्षा की गारंटी थी। भारत का संविधान ही भारत की एकता का आश्वासन है, लेकिन अफ़सोस बीजेपी और आरएसएस इसी पर निशाना साध रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी को समझना चाहिए कि समानता एक पवित्र लक्ष्य है न कि चुनावी रणनीति। अगर समान नागरिक संहिता बनेगी तो इसे बनाने में समान रूप से सभी प्रभावित पक्षों की भागीदारी भी होनी चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि असमानता की खाई दिनों दिन गहराती जाए और देश में समान नागरिक संहिता लागू हो। चुनावी लाभ को ध्यान में रखते हुए समान नागरिक संहिता थोपने की कोशिश ख़तरनाक़ नतीजे देगी। हालाँकि यह थोपी भी कैसे जा सकेगी अगर सरकार इस सिलसिले में कोई ड्राफ़्ट भी पेश करने की स्थिति में नहीं है!
अपनी राय बतायें