इतिहास के सीने में त्रासदी और उल्लास, दोनों समाये हुए हैं। किसका चयन करें, यह हमारी दृष्टि पर निर्भर है। ऐसा इस लेखक ने कहीं पढ़ा था।
‘बँटोगे तो कटोगे’: क्या यह नारा राष्ट्र व अमन विरोधी नहीं है?
- विचार
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- 15 Nov, 2024

क्या सत्तारूढ़ हिंदुत्ववादी शक्तियाँ इतिहास के इस कटु यथार्थ से कोई सबक़ लेंगी या सत्ता में बने रहने के लिए ’बँटोगे तो कटोगे’ का हथियार चलाते हुए देश को अशांति की अग्नि में झोंकती रहेंगी?
“बांग्लादेश: संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाएंगे, मुज़ीब भी राष्ट्रपति नहीं रहेंगे, अंतरिम सरकार के अटॉर्नी जनरल ने समाजवाद शब्द भी हटाने को कहा है।“ (अमानुर रहमान, ढाका संवाददाता, भास्कर; 15 नवंबर, ‘24)
इस ख़बर से लेखक चिंतित है। कारण, 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को महीनों कवर किया था और आज़ाद ढाका से ‘72 में लौटा था। भारत के कूटनीतिक व सैन्य सहयोग से ही तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) ने पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्ण आज़ादी छीनी थी। अब वह फिर से ‘इस्लामी राष्ट्र’ बनने की राह पर है; जिस खंदक से वह निकला था, अब उसी में कूदने की कोशिश में है। निश्चित ही यह तक़लीफ़देह है। अब सम्भावी त्रासदी को बृहत् आकाश से देखा जाए।