अलका लांबा
कांग्रेस - कालकाजी
हार
अलका लांबा
कांग्रेस - कालकाजी
हार
रमेश बिधूड़ी
बीजेपी - कालकाजी
हार
कपिल मिश्रा
बीजेपी - करावल नगर
आगे
प्रवेश सिंह वर्मा
बीजेपी - नई दिल्ली
जीत
प्रतिपक्ष की संसदीय भूमिका को लेकर किसी भी प्रधानमंत्री के लिए अपशब्द कहना शोभाजनक नहीं है। लेकिन, वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने विपक्ष के प्रति सम्मानजनक शब्दों के प्रयोग से दूरी बनाये रखने का संकल्प-सा ले रखा है। संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही प्रतिपक्ष ने दोनों सदनों में सिर्फ चर्चा की मांग की थी। लेकिन, मोदी जी ने उसे ठुकराते हुए फैसला दे दिया, ”नकारे गए लोग गुंडागर्दी कर रहे हैं।” यह मोदी -उवाच प्रधानमंत्री पद की गरिमा को लजानेवाला है। हांलाकि, वे अपनी चुनावी सभाओं में इससे भी लज्जाजनक शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए कुख्याति अर्जित कर चुके हैं। उनके अशोभनीय चुनावी -उवाचों को यहां दोहराने की ज़रूरत नहीं है। उनकी भाषण शैली से अपभाषाण -संस्कृति की गंध आती है। लेकिन, उनके ताज़ा उवाच पर कुछ याद दिलाने की दरकार है।
प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि विपक्ष को जनता ने 80 -90 बार नकार दिया है। अब उन्हें स्वयं के दल को नकारे जाने के दिन याद करने चाहिए। क्या उन्हें याद नहीं है कि 2004 के चुनावों में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व ने भाजपा के विशाल गठबंधन ने चुनाव लड़ा था; इंडिया शाइनिंग और फील गुड फैक्टर के गगनभेदी नारों के साथ चुनाव लड़ा था। जनता ने उसे एक ही झटके में नकार दिया था। इसके बाद 2009 के चुनावों में भी भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को नकार दिया गया था। 2014 में भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद मोदी जी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे को उछाला था।लेकिन, 2024 के चुनावों में भाजपा 303 सीटों से धड़ाम के साथ नीचे गिर कर 240 पर सिमट गई और आज वे दूसरों की बैसाखियों के सहारे सत्ता पर काबिज़ हैं। जबकि, कांग्रेस 44 से 100 तक पहुँच गई। अब प्रतिपक्ष के विधिवत नेता राहुल गांधी हैं। प्रतिपक्ष की तगड़ी उपस्थिति है। क्या यह माना जाए कि जून के चुनावों में जनता ने भाजपा को नकार दिया था?
वास्तव में, मोदी जी का ख्वाब ‘प्रतिपक्ष मुक्त संसद‘ का है। जब मोदी जी कहते हैं कि प्रतिपक्ष ने गुंडागर्दी मचा रखी है, तब उन्हें याद करना चाहिए कि मनमोहन सिंह -सरकार के दौरान भाजपा ने कितनी बार संसद नहीं चलने दी थी। कई कई दिन तक संसद को ठप रखा था। इससे पहले राजीव गांधी के समय भी बोफोर्स काण्ड पर प्रतिपक्ष ने कितना शोर मचाया था। संयुक्त संसदीय समिति की गठन की मांग की थी। ‘राजीव गांधी चोर है’ के नारे उछले थे। प्रतिपक्ष की मांग पर समिति को गठित किया गया था। क्या मोदी जी ने प्रतिपक्ष की इस मांग को स्वीकार किया है? वे सेबी की मुखिया और गौतम अदानी पर बहस से क्यों कतरा रहे हैं?
संसद में पहले भी उद्योगपतियों के कारनामों पर बहस हो चुकी है। याद करें, नेहरू -शासन में कतिपय उद्योगपतियों के कारनामों को लेकर बहस हुई थी। उनके दामाद फ़िरोज़ गाँधी ने ही भ्रष्टाचार के काण्ड उठाये थे। नेहरू सरकार को कटघरे में खड़ा किया था। एक -दो वरिष्ठ मंत्रियों को इस्तीफ़ा भी देना पड़ा था। तब तो नेहरू जी ने प्रतिपक्ष की गतिविधियों को ‘गुंडागर्दी’ से परिभाषित नहीं किया था। इतना ही नहीं, इंदिरा सरकार के समय कांग्रेस पार्टी के युवा तुर्क (चंद्र शेखर, कृष्ण कांत, मोहन धारिया, शशि भूषण, अमृत नाहटा, चंद्रजी यादव, अर्जुन अरोड़ा आदि ) ने बिड़ला घराने पर करारे हमले किये थे। भूख हड़ताल तक की थी। इंदिरा जी ने ‘गुंडागर्दी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया था। मोहन सिंह-सरकार के समय कोयला खदान और 2 -जी स्पेट्रम को लेकर प्रतिपक्ष ने तूफ़ान खड़ा कर दिया था। सम्बंधित मंत्रालय के मंत्री को तिहाड़ जेल जाना पड़ा था। डीएमके की सांसद कनिमोझी करूणानिधि को भी तिहाड़ जेल में रहना पड़ा था। तब भी गुंडागर्दी का शब्द नहीं उछला था।
मोदी जी को यह भी याद करा दिया जाए कि 1980 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने धमाकेदार सत्ता-वापसी की थी। जनता ने उसे नकारा नहीं था।
आपातकाल के चुनावों के बाद हुए 1977 के चुनावों में जनता पार्टी जीती थी। उस समय भाजपा की मूल पहचान जनसंघ जनता पार्टी की सिर्फ एक घटक मात्र थी। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। मोदी जी को यह भी याद होगा कि जे.पी. आंदोलन में शामिल होने और जनता पार्टी की घटक बनने के बाद ही जनसंघ या भाजपा की राजनैतिक अस्पृश्यता समाप्त हुई थी। लेकिन, 1996 में भी अटल-सरकार उसकी शिकार फिर से हो गयी थी। विपक्ष की किसी भी पार्टी ने उसे समर्थन नहीं दिया था और उसका अंत तेरहवें दिन हो गया था। इसलिए तमगा चस्पा ‘सरकार की तेहरवीं’।
प्रधानमंत्री मोदी जी को यह भी याद होगा कि 1992 में बाबरी मस्ज़िद को ढहाने के बाद कांग्रेस की राव-सरकार ने भाजपा की प्रदेश सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। अगले वर्ष उत्तरप्रदेश में 1993 में हुए मध्यावधि चुनावों में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा हारी और सपा+बसपा सरकार बनी थी। भाजपा को उम्मीद थी कि ‘रामलला -लहर’ में वह उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में चुनाव जीत लेंगी। लेकिन, जनता ने उन्हें नकार दिया था। 1971 में भी इंदिरा गांधी से जनसंघ परास्त हुआ था। 1951 -52 के चुनावों में जनसंघ, हिन्दू महासभा, राम राज्य परिषद सहित कुछ धर्म आधारित दलों ने चुनाव लड़ा था। क्या धर्मप्रेरित पार्टियां बहुसंख्यक हिन्दुओं का विश्वास जीत सकी थीं? 1947 में देश के विभाजन के बावज़ूद चरम दक्षिणपंथी पार्टियों को तगड़ी शिकस्त मिली थी। धर्मनिरपेक्षता के परचम के सामने वे लगातार परास्त होती रही हैं। इस परचम को थामे रखा नेहरू और अन्य प्रगतिशील दलों ने। इतना ही नहीं, 1967 के चुनावों में भी जनसंघ धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की धारा को निरस्त नहीं कर सका था। कांग्रेस की सीटें घटी थीं, लेकिन वामपंथी और समाजवादी अपनी तगड़ी उपस्थिति को संसद में दर्ज़ करा सके थे।
लेकिन उन्हें ‘श्मसान बनाम कब्रिस्तान, मंगल सूत्र, गाय-भैंस चोरी, घुसपैठिये ’ जैसे बेतुके शब्दों से फुरसत कहां? मोदी जी बतलायें, क्या भाजपा ने विभिन्न प्रदेशों में चुनाव नहीं हारे हैं?
यह भी याद रखना चाहिए कि झारखण्ड की प्राकृतिक सम्पदा पर कॉर्पोरेट की गिद्ध दृष्टि गड़ी हुई है। स्वयं गौतम अदानी का काफी कुछ दाँव पर लगा हुआ है। मोदी जी को यह भी याद रखना चाहिए कि महाराष्ट्र में उनके दल ने सत्ता में वापसी की है, लेकिन जहाँ उनकी सरकारें नहीं हैं, वहां भाजपा ने उपचुनाव हारे भी हैं; कर्नाटक में एक भी सीट नहीं मिली है। यही हाल पश्चिम बंगाल का है। केंद्र और भाजपा ममता -दुर्ग को भेद नहीं सके हैं। वहां की सभी सीटें तृणमूल कांग्रेस ने जीत ली हैं, भाजपा की मुट्ठी खाली है। जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहीं के उपचुनावों में उसकी जीत हुई है। इसमें कमाल क्या है? सिर्फ महाराष्ट्र के आधार पर कह देना कि जनता ने विपक्ष को ‘नकारा’ है, यह बात प्रधानमंत्री की अशोभनीय अदूरदर्शिता का प्रतीक है। लोकतंत्र में उत्थान-पतन होते रहते हैं; प्रधानमंत्री मोदी स्वयं अपने गिरेबां में झांक कर देख लें -भाजपा - 2 से 240; कांग्रेस -420 से 100 ।
याद रखें, मोदी जी, भाषा का रचनात्मक ढंग से प्रयोग करें क्योंकि प्रधानमंत्री के प्रत्येक ‘एक्शन’ से पीढ़ियां प्रभावित होती हैं।
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