“यह बहुसंख्यकों का कर्तव्य है कि वे अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भेदभाव न करें। अल्पसंख्यकों का (देश में) निरंतर होना या मिटना बहुसंख्यकों के व्यवहार पर निर्भर करता है।” -डॉ. आंबेडकर, नवंबर 4, 1949
क्या मंदिर-मस्ज़िद जंग के साथ भारत चांद पर उतरेगा?
- विचार
- |
- |
- 4 Dec, 2024

क्या प्रतीकों के युद्ध और इतिहास में हुए अन्यायों को पुनर्जीवित कर विश्व की तीसरी ‘आर्थिक शक्ति’ बन सकते हैं? 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद के ध्वस्त होने के बाद देश की मूलभूत समस्याओं का हल हो सका है?
“हम, जोकि बहुसंख्यक हैं, अल्पसंख्यकों के संबंध में सोचें कि उनकी भावना क्या है। यह भी विचार करें कि यदि हम लोग उनकी जगह हुए होते और उनके साथ आज जैसा व्यवहार हो रहा है, वैसा ही हमारे साथ होता तो हमें कैसा लगता।” -सरदार पटेल, 25 मई, 1949
हाल ही में देश के विख्यात वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे की छोटे पर्दे पर गहरे तक दिल-दिमाग़ को झकझोरने वाली ‘पुकार’ सुनी। क्षण थे जब वे जामामस्जिद (संभल), ज्ञानव्यापी मस्ज़िद (बनारस), ख्वाज़ा दरगाह शरीफ़ (अजमेर) जैसे सदियों पुराने अल्पसंख्यक धार्मिक स्थलों को लेकर हिन्दुत्ववादियों द्वारा उठाये जा रहे आक्रामक विवादों पर अपने उद्गार व्यक्त कर रहे थे। जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के साथ इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के वकील दवे की पीड़ा छलक गई और रुआंसे स्वरों में उन्होंने हैरानी जताई कि ये लोग पांच हज़ार साल पुराने भारत को क्या बनाना चाहते हैं? “मुझे गर्व है मैं हिन्दू हूं, ब्राह्मण हूँ। लेकिन, मेरी संस्कृति-सभ्यता तमाम संस्कृतियों को आत्मसात करने की रही है। यह विभाजनकारी नहीं है। ऐसे विवादों से देश का विकास नहीं होगा।” अक़्सर वक़ील व्यावहारिक व यथार्थवादी माने जाते हैं। उनकी भावना, भावुकता और संवेदनशीलता के साथ मित्रता संकोच के साथ ही होती है। लेकिन, टीवी स्क्रीन पर दवे के रुंधे स्वर और चेहरे से संवेदनशील नागरिक व देशभक्त भारतीय द्रवित हुए बिना नहीं रहेंगे। सोचने के लिए विवश हो जाएंगे कि कहीं 140 करोड़ के भारत राष्ट्र को किसी अंधी सुरंग में धकेला तो नहीं जा रहा है, जिसमें दीवारों से टकरा टकरा कर लहूलुहान होने के अलावा कुछ नहीं है!