“किस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद,
पतंजलि भ्रामक विज्ञापन: बीमार समाज या सिस्टमिक फेल्योर?
- विचार
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- 19 Apr, 2024

पतंजलि के उत्पादों के विज्ञापनों में कथित उल-जलूल दावों पर बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण की माफी के बाद भी उनकी मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं। आख़िर किन वजहों से पतंजलि ने ऐसे दावे करने शुरू कर दिए थे?
कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया”
-कायम चांदपुरी
धर्म का चोला, योग के नाम पर मदारी का करतब, दार्शनिक ज्ञान के नाम कुछ पिटे-पिटाये श्लोक, विज्ञान की समझ के नाम पर मानव-शरीर के कुछ अंगों का अंग्रेजी नाम और बीमारियों के कारक के रूप में वायरल, सेल और ग्लैंड शब्दों का जिक्र। लेकिन ये “छोटी सी “घुट्टी” धार्मिक भावना से आच्छादित विवेक वाले भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के बीच सहज पैठ बना लेती है। उस पर से मोदी जैसा छलावा पैदा करने वाले नेतृत्व के वरदहस्त तले “दाढ़ी बाबा” से “बाबा राम देव” और फिर “कॉर्पोरेट जायंट” तक का सफ़र इस यथार्थ की तस्दीक है कि किसी कदर भारतीय समाज की विलुप्त होती तार्किकता पर धर्मान्धता हावी है। यह बताता है कि भारत को गुलाम बनाना आज भी कितना आसान है। घटिया और लगातार टेस्ट में फेल होते प्रोडक्ट्स के बावजूद आयुर्वेद का छौंका लगा कर कोरोना की दवा से लेकर “शुद्ध देशी गाय का घी” (मार्केट की डिमांड हो तो “काली गाय भी जोड़ा जा सकता है) महंगे दामों पर बेचने वाला बाबा अंततः फंसे भी तो तब जब दीवार फांद कर उस पार निकलना मात्र कुछ हाथ ही रह गया था।