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पतंजलि भ्रामक विज्ञापन: बीमार समाज या सिस्टमिक फेल्योर?

“किस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद, 

कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया”

-कायम चांदपुरी

धर्म का चोला, योग के नाम पर मदारी का करतब, दार्शनिक ज्ञान के नाम कुछ पिटे-पिटाये श्लोक, विज्ञान की समझ के नाम पर मानव-शरीर के कुछ अंगों का अंग्रेजी नाम और बीमारियों के कारक के रूप में वायरल, सेल और ग्लैंड शब्दों का जिक्र। लेकिन ये “छोटी सी “घुट्टी” धार्मिक भावना से आच्छादित विवेक वाले भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के बीच सहज पैठ बना लेती है। उस पर से मोदी जैसा छलावा पैदा करने वाले नेतृत्व के वरदहस्त तले “दाढ़ी बाबा” से “बाबा राम देव” और फिर “कॉर्पोरेट जायंट” तक का सफ़र इस यथार्थ की तस्दीक है कि किसी कदर भारतीय समाज की विलुप्त होती तार्किकता पर धर्मान्धता हावी है। यह बताता है कि भारत को गुलाम बनाना आज भी कितना आसान है। घटिया और लगातार टेस्ट में फेल होते प्रोडक्ट्स के बावजूद आयुर्वेद का छौंका लगा कर कोरोना की दवा से लेकर “शुद्ध देशी गाय का घी” (मार्केट की डिमांड हो तो “काली गाय भी जोड़ा जा सकता है) महंगे दामों पर बेचने वाला बाबा अंततः फंसे भी तो तब जब दीवार फांद कर उस पार निकलना मात्र कुछ हाथ ही रह गया था।

कभी निष्पक्ष विश्लेषण करें तो पायेंगे कि मोदी की स्टाइल और बाबा की स्टाइल में खास अंतर नहीं है बल्कि बहुत सारी समानताएँ हैं। उनमें एक खास है- ऑडिएंस देखकर सौदा बेचना। देश के प्रधानमंत्री में भी यह अद्भुद ईश्वर-प्रदत्त क्षमता है- वह भीड़ को देख कर उसकी औसत शिक्षा, आय, तबका, समझ और उसकी धार्मिक निष्ठा के बारे में अंदाज लगा सकते हैं। बाबा जी भी इसका बड़ा प्रैक्टिसनर रहे हैं।

मकबूलियत और जन-भरोसे के जिस सैलाब के मौज पर हिलोरे लेता बाबा (और मोदी भी) एफएमसीजी प्रोडक्ट्स में अगले दो सालों में एक लाख करोड़ का टर्नओवर मुकम्मल करने जा रहे थे। इस धर्म-आयुर्वेद-स्टेट सपोर्टेड वेंचर को बादलों के पार ले जाने के हौसले को शायद ही कोई रोक सकता था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को साधुवाद!! उसने बाबा के वाणिज्यिक अश्वमेध का घोड़ा न केवल रोका बल्कि जब सोटा मार कर तासीर देखी तो पता चला कि यह अरबी नहीं किसी और प्रजाति का है। बाबा ने पहले तो कोर्ट को अर्दब में लेना चाहा, कोर्ट के आदेशों को ठेंगे पर रखते हुए और ठीक उसके विपरीत काम करते हुए। उन्हें लगा कि अपना यार तो दुनिया से गलबहियां करता है और अपने भक्त तो इशारे पर “अनुलोम-विलोम” के नाम पर पार्कों में पेट फूलाते-पिचकाते हैं फिर ये “मी लॉर्ड्स” किस खेत की मूली हैं। बाबा जैसे लोग शायद रफ़्तार से ज़माने को मूर्ख बनाने में भूल जाते हैं कि जो पेट पिचका रहा है, गाय के नाम पर एक वर्ग के घरों में फ्रिज खोलकर मांस की क़िस्म देख रहा है या दाढ़ी वाले को देख कर भारतमाता का नारा लगाने को कह रहा है वह भी संविधान की ईमानदार संस्थाओं के तेवर देख कर काँप जाता है।

उत्तराखंड की सरकार की क्या हैसियत थी बाबा के झूठे और फर्जी विज्ञापनों पर रोक लगाने की जब “पीएम का बाबा पर” और “बाबा का पीएम पर” “एक ने कही, दूजे ने मानी; नानक दोनों ब्रह्मग्यानी” वाला हाथ हो। 

सुप्रीम कोर्ट की सख्ती पर पता चला कि किस तरह बाबा की कम्पनियां भ्रामक विज्ञापन दे कर आयुर्वेद के नाम पर वर्षों से जनता से धोखा कर रही थीं।

इसके खिलाफ कानून तो एक नहीं दो थे- ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (ऑब्जेक्शनेबल एडवरटीजमेंट) एक्ट। लेकिन कार्रवाई के नाम पर राज्य और केंद्र “फ़ाइल-फ़ाइल” खेलते रहे। एससी ने कहा कि प्रश्न केवल कोर्ट की अवमानना का या सरकारों की निष्क्रियता का नहीं है बल्कि उन करोड़ों लोगों का है जिनके स्वास्थ्य और जीवन की अपूरणीय क्षति होती रही है। और कोर्ट ने यह सवाल पूछा भी। साथ ही कोर्ट ने माना कि यह केवल एक कंपनी का नहीं, बल्कि समूचे एफएमसीजी कंपनियों द्वारा की जा रही धोखेबाजी का है।

कोर्ट का रुख देख कर बाबा को उसके वकीलों ने समझाया कि ये काला चोखा पहने “न्यायमूर्ति” कुछ अलग टाइप की मूर्तियाँ हैं जो छलावा देख कर और भड़कती हैं। भला इसी में है कि मोदी, गेरुआ, करतब, पेट फुलाना, विश्व के मेडिकल ज्ञान को चुनौती देने का दंभ भूल कर शाष्टांग लेमलेट हो जाओ। मरता क्या न करता। पहले बाबा और “छोटू” ने कोर्ट में सशरीर उपस्थित हो कर बार-बार माफी माँगी, बोले “बड़ी गलती हो गयी”।

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यह सुप्रीम कोर्ट ही था जिसने जब इलेक्टोरल बांड को असंवैधानिक बता कर ख़त्म किया तो बाबा-मोदी राष्ट्रवाद ब्रांड के समर्थक जो देश के शरीर के हर भाग में मौजूद हैं, उसका एक धड़ा एक बड़े वकील की रहनुमाई में कोर्ट को ही गुमराह होने के खिलाफ आगाह करने लगा। प्रधानमंत्री ने शालीनता की सारी हदें पार करते हुए एक “वेजेटेरियन इंटरव्यू” में कहा “ईमानदारी से सोचेंगे तो चुनावी बांड ख़त्म करने का हर व्यक्ति को मलाल होगा”। दरअसल निशाना था सुप्रीम कोर्ट और इशारों-इशारों में उसके फैसले को “गैर-ईमानदार सोच” की उपज भी बता दिया।

लेकिन बाबा पर हुई सख्ती शायद बड़े “आका” को भी पंजे सिकोड़ने को मजबूर करेगी।

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एन.के. सिंह
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