भले ही “सखी सैयां तो खूबै कमात हैं, महंगाई डायन खाय जात है” के रचयिता को गूढ़ अर्थ-शास्त्र न मालूम हो लेकिन योजना भवन में बैठे बहुत से अर्थ-शास्त्रियों को भी “सैयां की कमाई के बावजूद गरीबी” का कारण पिछले 75 साल में समझ में नहीं आया। वरना वे यह भी जानते कि वर्ष 2022 में कृषि के सेक्टर्स में 10.05 लाख करोड़ रुपये के इनपुट में 50.71 लाख करोड़ के जीवीओ (कुल आउटपुट वैल्यू) मिला। यानी 20 प्रतिशत लागत में 80 प्रतिशत वैल्यू-एडेड जबकि मैन्युफैक्चरिंग में 122.93 लाख करोड़ रुपये के इंटरमीडियरी इनपुट लगा कर भी मात्र 156.90 लाख करोड़ रुपये का जीवीओ मिला। किसान का मुख्य इनपुट जमीन है और इसके साथ हर 100 रुपये के जीवीओ में बीज, खाद, पानी, दवा और हाड़तोड़ मेहनत पर 20 रुपये ख़र्च होता है।
आख़िर क्यों नहीं गरीबी तेजी से ख़त्म होती?
- विचार
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- 16 Apr, 2024

खेतिहर मजदूर की उत्पादकता एक रुपया है तो मैन्युफैक्चरिंग के श्रमिक की 3.5 रुपये और सेवा क्षेत्र के कर्मचारी की 4.7 रुपये। कमाल काम करने वाले का क्यों नहीं है?
मैन्युफैक्चरिंग में पूँजी, तकनीक और श्रम का इस्तेमाल होता है जिसमें हर 100 रुपये में 80 प्रतिशत कुल उपादान लगता है। लेकिन कृषि में आज भी देश की 50 करोड़ से ज़्यादा श्रम-शक्ति (46 प्रतिशत) लगी है, जबकि मैन्युफैक्चरिंग में केवल 11.5 करोड़। यानी कृषि आबादी का बोझ अपने कन्धों पर ढो रही है। जरा सोचिये। वर्ष 1993 में देश की 64.6 प्रतिशत श्रम-शक्ति कृषि में लगी थी जो 30 साल में घट कर केवल 46 प्रतिशत हुई जबकि मैन्युफैक्चरिंग में इसी काल में जॉब्स 10.4 से बढ़ कर मात्र 11.4 प्रतिशत हुआ। यानी किसान के बेटों का उद्योगों में जॉब बेहद कम मिला। उनकी खपत हुई भी तो कंस्ट्रक्शन, ढाबों, रेस्टोरेंट, दुकानों या रेहड़ी/ठेला लगाने वाली निम्न आय वाले कामों में। योजनाकारों के सामने चीन का उदाहरण होते हुए भी कोई उपक्रम नहीं हुआ खेती से श्रमिकों को कारखानों में लाने का। कारखानों का कहना है कि श्रमिक जरूरत के मुताबिक स्किल्ड नहीं हैं। चूंकि मैन्युफैक्चरिंग में टेक्नोलॉजी की ज़रूरत है इसलिए किसान के बेटों को स्किल देने का कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ।