बचपन में जिन दो लेखकों ने हमारे भीतर व्यंग्य की समझ पैदा की उनमें से एक थे केपी सक्सेना और दूसरे थे उर्मिल कुमार थपलियाल। उर्मिल जी की सप्ताह की नौटंकी पढ़ते हुए ही हम बड़े हुए थे। बहुत सारे मूल्यों और विडंबनाओं को हमें नट और नटी ने जिस खूबी से समझाया वैसा और किसी ने भी नहीं।
इसलिए जब मुझे हिंदुस्तान अखबार में संपादकीय पेज की जिम्मेदारी मिली तो मैंने इन दोनों महान हस्तियों को अखबार से जोड़ने की कोशिश की। केपी सक्सेना अखबार में पहले भी लिखते रहे थे इसलिए उन्हें जोड़ने में तो दिक्कत नहीं आई लेकिन उर्मिल जी को जोड़ना आसान नहीं था और यह काम लखनऊ में नवीन जोशी जी के प्रयासों से ही संभव हो सका।
मज़ेदार वाकया
लेकिन उनके पहले ही व्यंग्य में एक दुर्घटना हो गई। उन्होंने अपना व्यंग्य एक कागज पर लिखकर हिंदुस्तान के लखनऊ दफ्तर में पहुंचा दिया, जिसमें कहीं भी उनका नाम नहीं लिखा था। वहां उसे वैसे ही कंपोज़ कर दिया गया और जैसी परंपरा है उसके काफी नीचे कंपोजिटर ने अपना नाम लिख दिया। वह हमें दिल्ली में मेल से भेजा गया। लेखक का नाम हमारे लिए नया था लेकिन व्यंग्य अच्छा था इसलिए हमने उस कंपोजिटर को ही लेखक मानकर उसके नाम से ही अखबार में छाप दिया।
व्यंग्यकार सरकारी नीतियों को नहीं बख्शते लेकिन फिर ऐसा समय आया जब सरकार की नीति ने उर्मिल जी को नहीं बख्शा।
पैन नंबर का मामला
एक नियम आया कि कोई भी नियमित भुगतान उन्हीं लोगों को ही होगा जो अपना पैन नंबर कंपनी को देंगे। अब उर्मिल जी के पैन नंबर की एक दिक्कत थी। हमें पहली बार पता पड़ा कि जिन्हें बचपन से उर्मिल थपलियाल के नाम जानते आए हैं उनका असली नाम सोहन लाल थपलियाल है। सरकारी नौकरी में रहते हुए अखबारों में लिखने के लिए उन्होंने यह नाम रख लिया था।
पैन नंबर सोहन लाल थपलियाल के नाम से था तो पेमेंट उर्मिल थपलियाल को कैसे होती। सभी अखबार संगठनों में अगर किसी विभाग की नौकरशाही सबसे ज्यादा होती है तो वह एकाउंट डिपार्टमेंट ही होता है। उसे यह समझाना काफी टेढ़ी खीर था कि उर्मिल कुमार थपलियाल का पेमेंट अब सोहन लाल थपलियाल के नाम से ही होगा।
लेकिन अगला काम इससे भी कठिन था- एकाउंट विभाग को इसके लिए जिस भाषा में ऐफिडेविट चाहिए था उस भाषा में उर्मिल जी से लिखवाना। इसका जो पहला ड्राफ्ट आया वह कुछ इस तरह था- नाम से क्या होता है, नाम तो प्रेमचंद का भी कुछ और था। फिर उन्होंने इतिहास के उन सारे लेखकों के नाम गिना दिए जो दूसरे नाम से लिखते थे।
बड़ी मुश्किल से लखनऊ में नवीन जी ने उनसे सरकारी भाषा में पत्र लिखवाया और संबधित दस्तावेज भी लिए। आज मैं यहां सोहन लाल थपलियाल को श्रद्धांजलि दे रहा हूं। उर्मिल कुमार थपलियाल तो उनके रचनाकार का नाम है और रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से हमेशा जिंदा रहता है।
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