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कोई और वक़्त होता तो वे तस्वीरें हमें अच्छे समय की एक आम सी कहानी बतातीं लेकिन फ़िलहाल वे डरा रही हैं। सबसे पहले शिमला के माल और लोअर माल की तस्वीरें आईं जहाँ भीड़ इतनी थी कि लोगों के कंधे टकरा रहे थे। फिर मनाली के माल रोड की तस्वीरें आई वहाँ भी क़रीब वही हाल था। ‘हिमालयन एक्सप्रेस वे’ एक वीडियो भी आया जिस पर चंडीगढ़ से शिमला की ओर बढ़ती कारों ने जाम लगा दिया था। कारण दो बताए गए कि एक तो हिमाचल सरकार ने पर्यटन क़ारोबार में दुबारा जान फूंकने के लिए पर्यटकों के आवागमन पर लगी पाबंदियाँ हटा ली हैं और अब वहाँ जाने के लिए कोई टेस्ट रिपोर्ट की भी ज़रूरत नहीं है। दूसरा कारण यह सामने आया कि मानसून में काफ़ी देरी होने के कारण उत्तर भारत के सभी मैदानी इलाक़े बुरी तरह तप रहे हैं। सो जैसे ही पाबंदियाँ हटीं और लोगों को मौक़ा मिला वे पहाड़ों की ओर भागे।
जिस सप्ताह हिमाचल प्रदेश ने ये पाबंदियाँ हटाई उस समय तक उत्तराखंड में सभी प्रतिबंध जारी थे, आप वहाँ बिना आरटीपीसीआर रिपोर्ट के प्रवेश नहीं कर सकते थे। लेकिन जब इस राज्य को यह अहसास हुआ कि गर्मियों की सारी भीड़ हिमाचल खींच रहा है तो उसने भी सभी पाबंदियाँ हटा लीं। फिर मसूरी के माल और कैंपटी फाल की भी वैसी ही तस्वीरें दिखाई देने लगीं जिनमें भारी भीड़ थी। ज़्यादातर लोगों के चेहरों पर तो मास्क भी नहीं थे।
इन तस्वीरों के सामने आने के बाद ये आशंकाएँ भी जताई जाने लगीं कि अगर कोविड की तीसरी लहर आएगी तो शायद वह इन्हीं पयर्टन केंद्रों से ही शुरू होगी। मीडिया में आमतौर पर उन्हीं पर्यटकों को दोषी ठहराया गया जो गरमी बढ़ते ही पहाड़ों की ओर भाग खड़े हुए थे। पर क्या वे सचमुच दोषी थे? गर्मियाँ तो एक सप्ताह पहले तक भी काफ़ी थीं लेकिन वे अपने कमरों में बैठे हुए एयरकंडीश्नर के सहारे समय गुजार रहे थे। अगर पाबंदियाँ न हटतीं तो वे शायद उस ओर बढ़ते भी नहीं।
तो क्या पाबंदियाँ हटाने के लिए राज्य सरकारों को ही पूरी तरह दोषी ठहराया जा सकता है? ठीक यहीं पर हमें राज्य सरकारों की मजबूरी को भी समझना होगा। हिमाचल और उत्तराखंड के कुछ शहर ऐसे हैं जहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी रोजी-रोटी के लिए पूरी तरह से पर्यटन पर ही निर्भर है। पिछले डेढ़-दो साल से वे सब लोग काफ़ी बुरी स्थिति में हैं और एक के बाद एक कई पर्यटन सीज़न निकल गए लेकिन उनकी तरफ़ ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है। राज्य सरकारों की हालत भी आर्थिक मोर्चे पर खस्ता है और वे इस स्थिति में नहीं हैं कि ऐसे लोगों को सीधे मदद दे सकें।
ऐसे में उनके सामने रास्ता यही है कि महामारी के ख़तरे के बावजूद वे ज़्यादातर पाबंदियाँ हटाकर इन पर्यटन स्थलों को सबके लिए खोल दें। खुद राज्य सरकारों की आमदनी का एक हिस्सा भी इसी कारोबार से आता है।
पर्यटन स्थलों पर बढ़ती भीड़ को लेकर पश्चिम के देश भी काफ़ी चिंतित हैं। लेकिन भारत और उनमें एक बड़ा फर्क है। उन देशों में अब एक बड़ी आबादी ऐसी है जिन्हें वैक्सीन की दोनों डोज़ दी जा चुकी हैं। कुछ जगह तो सिर्फ़ उन्हीं लोगों को जाने की इजाज़त दी जा रही है जिनका वैक्सीनेशन पूरा हो चुका है। भारत में ऐसे लोगों की संख्या काफ़ी कम है इसीलिए हर भीड़ में हमें तीसरी लहर का ख़तरा दिखाई देता है।
इस मामले का एक और पक्ष है। बहुत से देशों के मॉडल को अगर हम देखें तो वहाँ महामारी के कारण जिन लोगों के सामने आर्थिक संकट आया है उन्हें सीधे मदद दी जा रही है। हमारे यहाँ ग्रामीण स्तर पर मनरेगा से कुछ लोगों को मामूली मदद ज़रूर मिल रही है। लेकिन यह महामारी के पहले की योजना है और महामारी से प्रभावित लोगों के लिए हमने ऐसी कोई योजना नहीं बनाई। केंद्र सरकार ने जो भी आर्थिक पैकेज घोषित किए हैं वे उद्योगों के लिए हैं जबकि ज़्यादा समस्या आम लोगों की है। राज्य सरकारें तो पहले ही आर्थिक तंगी से जूझ रही हैं इसलिए ख़तरों की अनदेखी करते हुए वे सारे कामकाज को फिर से खोलने के लिए बेताब हो रही हैं। शराब की दुकानों पर लगने वाली लाईनें भी एक तरह से वही कहानी कहती हैं जो शिमला की भीड़।
एक और ज़रूरत यह भी थी कि महामारी काल में एक स्वतंत्र एडवाइजरी समिति बनाई जाती जो केंद्र और राज्य सरकारों को हालात के हिसाब से सलाह देती कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। कब क्या खोलना है और कब क्या नहीं। अभी जो व्यवस्था है उसमें सलाह कम दिखाई देती है और राजनीति ज़्यादा झलकती है। इसे और अच्छी तरह समझना हो तो हर रोज दिल्ली में इसके लिए होने वाली मीडिया ब्रीफिंग को देखना होगा। इनमें कुछ राज्यों में बढ़ते संक्रमण का ज़िक्र विशेष रूप से किया जाता है जबकि कई राज्यों और बहुत सारे तथ्यों से आँखें मूंद ली जाती हैं। इसका एक उदाहरण पिछले कुछ दिनों से इस ब्रीफिंग में होने वाला महाराष्ट्र और केरल का ज़िक्र है। इन बातों से ट्रोल आर्मी को भी काफ़ी मसाला मिल जाता है।
इन ब्रीफिंग में जो कहा गया उसके बाद खासकर केरल को लेकर सोशल मीडिया पर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है। जबकि इस बात को ब्रीफिंग में छुपाया गया कि केरल में महामारी के इस शिखर पर भी न तो ऑक्सीजन का कोई संकट है और न ही बीमार लोगों को अस्पताल में बेड न मिलने जैसी ख़बरें ही कहीं से आ रही हैं। इन सब कारणों से वहाँ मृत्यु दर भी काफ़ी कम है। आँकड़ों के इस्तेमाल से बहुत सारे सच कैसे छुपाए जाते हैं यह ब्रीफिंग इसका उदाहरण बनती जा रही है।
महामारी से निपटने के लिए विस्तृत नीति की ज़रूरत होती है, लेकिन फ़िलहाल इसके लिए राजनीति का इस्तेमाल हो रहा है।
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