लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया जिस दौर में एक भ्रष्ट व्यवस्था का पहरेदार और पैरोकार बन चुका हो और पत्रकारिता सिर्फ एक धंधा बन कर रह गई हो, उस समय रामेश्वर पांडेय का निधन सिर्फ निजी स्मृतियों में बसे किसी बेहद आत्मीय व्यक्ति, एक वरिष्ठ पत्रकार और एक संपादक के गुज़र जाने की वजह से दुखद नहीं है। यह परिस्थितियों से हार न मानने वाली जिजीविषा और अथक जुझारूपन से बने ऐसे व्यक्तित्व का अचानक लोप हो जाना है जिसमें अभी बहुत कुछ करने की इच्छा और क्षमता बाक़ी थी, सिर्फ अपने आपको साबित करने या बाज़ार में सर्कुलेशन में बने रहने के लिए नहीं, बल्कि पत्रकारिता के क्षरण को अपनी तरफ से रोकने की भरसक कोशिश के लिए भी। इस नाते रामेश्वर पांडेय का निधन दोहरा आघात है।
रामेश्वर पांडेय का जाना, एक फक्कड़ पत्रकार का जाना!
- श्रद्धांजलि
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- 7 Jun, 2023

कई प्रमुख अख़बारों में संपादक रहे देश के जाने माने पत्रकार रामेश्वर पांडेय का आज निधन हो गया। जानिए उनको कैसे याद किया जाएगा। पढ़िए अमिताभ की क़लम से...
रामेश्वर जी जिस दौर में पत्रकारिता में आए थे, तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था। अख़बार थे और पत्रिकाएँ थीं। हिंदी की प्रिंट पत्रकारिता में आने वाले लोग आम तौर पर या तो किसी जनसंघर्ष से जुड़ाव और झुकाव की वजह से पत्रकार बनते थे या उनके भीतर व्यवस्था को लेकर खदबदाहट रहती थी जो उनकी निजी राजनैतिक चेतना और विचारधारा के हिसाब से अभिव्यक्त होती थी। पत्रकारिता प्रोफेशन तो थी लेकिन उसमें मिशन की भावना भी बची हुई थी। पत्रकारिता जनपक्षधरता से जुड़ा काम था। समाजवादी, वामपंथी, गांधीवादी, दक्षिणपंथी सभी तरह के लोग न्यूज़ रूम का हिस्सा होते थे। धारदार पत्रकारिता के लिए एक्टिविज्म को एक अतिरिक्त योग्यता का सम्मानजनक दर्जा हासिल था। आंदोलनों से निकले पत्रकार आज की तरह अर्बन नक्सल नहीं कहे जाते थे। रामेश्वर पांडेय भी वामपंथी सोच से प्रभावित पत्रकार थे।