लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया जिस दौर में एक भ्रष्ट व्यवस्था का पहरेदार और पैरोकार बन चुका हो और पत्रकारिता सिर्फ एक धंधा बन कर रह गई हो, उस समय रामेश्वर पांडेय का निधन सिर्फ निजी स्मृतियों में बसे किसी बेहद आत्मीय व्यक्ति, एक वरिष्ठ पत्रकार और एक संपादक के गुज़र जाने की वजह से दुखद नहीं है। यह  परिस्थितियों से हार न मानने वाली जिजीविषा और अथक जुझारूपन से बने ऐसे व्यक्तित्व का अचानक लोप हो जाना है जिसमें अभी बहुत कुछ करने की इच्छा और क्षमता बाक़ी थी, सिर्फ अपने आपको साबित करने या बाज़ार में सर्कुलेशन में बने रहने के लिए नहीं, बल्कि पत्रकारिता के क्षरण को अपनी तरफ से रोकने की भरसक कोशिश के लिए भी। इस नाते रामेश्वर पांडेय का निधन दोहरा आघात है।