नामवर सिंह परलोक लीन हो गए। ऐसा लग रहा है कि मानो मेरे भीतर कुछ टूट गया हो। कुछ अपूरणीय-सा। असहनीय-सा। यह हिन्दी आलोचना की तीसरी परम्परा का चले जाना है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद अब नामवर जी। मुझे आज हिंदी साहित्य की चिर-मशाल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आ रहे हैं। उनसे एक बार किसी ने पूछा कि आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति क्या है? आचार्य हजारी प्रसाद के मुँह से बस एक नाम निकला- ‘नामवर सिंह।’ यह वही नामवर थे जिन्होंने हिंदी साहित्य का एक युग गढ़ा, उसे ध्वनि दी। भाषा के अद्भुत अलंकारों से सुशोभित किया। समय की दीवार पर उसकी अविस्मरणीय शिनाख्त मुक़म्मल की। जिस बनारसी मिट्टी ने नामवर को बनाया, वह सृजन के अक्षुण्ण प्राणतत्व से भरी पूरी थी। उसमें कबीर का साहस, तुलसी का लोकतत्व, प्रेमचंद का समाजशास्त्र और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पांडित्य था। जब ये सारे तत्व एक साथ मिलते हैं तब एक नामवर सिंह बनते हैं। उनकी यही पहचान उनके जीवन भर साथ रही।