खय्याम जैसे धीमी उदासी के एक राग का नाम था। उनके प्रत्येक सुर के भीतर जैसे एक मद्धिम दर्द और अवसाद के स्पंदन बहते थे। यहाँ तक कि उल्लास और उम्मीद को व्यक्त करने वाली रचनाएँ भी एक कशिश और तड़प से भरी होती थीं। उसे ‘बहारो मेरा जीवन भी संवारो, कोई आये कहीं से’, ’चोरी-चोरी कोई आये चुपके-चुपके’, ‘आजा रे मेरे दिलबर आजा’, ‘तेरे चेहरे से नज़र हटती नहीं’, ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’, ‘दिखाई दिए यूँ कि बेसुध किया’ और ‘इन आँखों की मस्ती में मस्ताने हज़ारों हैं’ में सुना और महसूस किया जा सकता है।
खय्याम: धीमी उदासी का राग
- श्रद्धांजलि
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- 22 Aug, 2019

ऐसा संयोग कम ही होता है कि किसी रचनाकार की हर रचना हमेशा आला दर्जे की, अनोखी और लाजवाब हो और कुछ भी फालतू और कामचलाऊ न लगे। खय्याम ऐसे ही दुर्लभ संयोगों से बने थे। हिंदी सिनेमा में पश्चिमी तर्ज़ का बोलबाला होने के बावजूद खय्याम अपनी खाँटी हिन्दुस्तानी धुन पर डटे रहे। उनका संगीत जटिल नहीं रहा, बल्कि मद्धिम और सहजता लिए हुए था, लेकिन सिर्फ़ यमन जैसे एक ही राग में जितनी रंगतें उन्होंने पैदा कीं उतनी कम ही संगीतकार कर पाए।
यह खय्याम की बुनियादी स्वर-लिपि थी, जो सन 1953 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘फ़ुटपाथ’ में तलत महमूद के विरागपूर्ण स्वर में गायी गयी साहिर लुधियानवी की नज़्म ‘शामे गम की कसम आज गमगीं हैं हम’ के साथ उभरी थी और जिसने मुहम्मद ज़हूर हाशमी उर्फ़ खय्याम को सिर्फ़ इक्कीस वर्ष की उम्र में एक अलग तरह के संगीतकार की प्रतिष्ठा दिलायी। इससे पहले सन 1950 में फ़िल्म ‘बीवी’ में उनके संगीत और मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में ‘अकेले में वो घबराते तो होंगे’ भी एक हिट गीत बना था। यह वह दौर था, जिसमें अनेक दिग्गज संगीतकार विशाल पेड़ों की तरह छाये हुए थे और उनके तले उभर पाना आसान नहीं था।
मंगलेश डबराल मशहूर साहित्यकार हैं और समकालीन हिन्दी कवियों में सबसे चर्चित नामों में से एक हैं।