उन्हें मौत सामने दिख रही थी। कुछ घंटे पहले ही एक पत्रकार साथी से अपील की कहा, ‘मुझे मरने से बचा लें।’
एम्बुलेंस तक नहीं आ रही थी। इंतज़ाम सब हुआ पर देर हो गई और चली गईं तविषी श्रीवास्तव। कौन थीं ये तविषी श्रीवास्तव?
इंटरनेट के इस दौर में उत्तर प्रदेश की एक मशहूर और दिग्गज पत्रकार, पाइनियर अख़बार की राजनीतिक संपादक तविषी श्रीवास्तव की मैं फोटो तलाश रहा था पर नहीं मिली। इससे पता चलता है कि वे कितनी लो प्रोफाइल रहती थीं। खैर बहुत कम लोग उनके बारे में और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानते होंगे। कुछ तथ्य जानने वाले हैं। उनके पिता प्रोफ़ेसर काली प्रसाद लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे और उससे पहले मनोविज्ञान और दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे।
मनोविज्ञान की एक शाखा है इंडस्ट्रियल एंड मैनेजीरियल साइकोलोजी जिसमें मैंने मास्टर डिग्री ली थी। तब मेरी विभागाध्यक्ष थीं प्रोफ़ेसर विमला अग्रवाल जो अपने से दुखी रहती थीं क्योंकि मैं लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ में कला संकाय से चुनाव जीत कर गया था और अपना अड्डा मनोविज्ञान विभाग या स्टेटिक्स विभाग होता था। तब अनुशासन का पाठ पढ़ाते हुए प्रोफ़ेसर विमला अग्रवाल ने प्रोफ़ेसर काली प्रसाद का ज़िक्र किया था। यह बात अस्सी के दशक की शुरुआत की है।
खैर इन्हीं प्रोफ़ेसर काली प्रसाद की पुत्री थीं तविषी। विधिवत परिचय हुआ वर्ष 2003 में जब जनसत्ता का उत्तर प्रदेश का ज़िम्मा दिया गया। परिचय कराया ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के साथी अमित शर्मा ने। एक छोटा सा दायरा सा बना जिसमें एशियन एज की अमिता वर्मा, एक्सप्रेस के अमित शर्मा, हिंदू के जेपी शुक्ल, टेलीग्राफ़ के तापस चक्रवर्ती और पाइनियर की तविषी श्रीवास्तव और मैं। ख़बरों पर रोज़ ही चर्चा होती। उनका एक कॉलम जाता था जिसके लिए वे हफ्ते में एक बार लंबी बात करतीं। मेरा भी जनसत्ता में साप्ताहिक कॉलम था जिसके लिए हर बार माथापच्ची करनी पड़ती। तभी से उनसे जान-पहचान हुई और बहुत से लोगों से ख़ासकर नौकरशाहों से उन्हीं के ज़रिये परिचय भी हुआ, जिसमें शैलेश कृष्ण भी शामिल हैं।
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तविषी उनकी छोटी बहन थीं। कुल दो बहन और दो भाई थे। अमीनाबाद के झंडेवाला पार्क के सामने की आलीशान कोठी इन्हीं लोगों की हैं जिसमें तविषी रहती थीं। उन्होंने शादी नहीं की और पत्रकारिता को ही पूरा समय दिया। उत्तर प्रदेश का कोई मुख्यमंत्री ऐसा नहीं हुआ जो उनका सम्मान न करता हो। कभी किसी की कोई बुराई करते उन्हें नहीं देखा। न ही वे कभी किसी पर नाराज़ हुईं। ऐसा शालीन व्यवहार करते मैंने बहुत कम लोगों को ही देखा है। पत्रकारिता में उनका सम्मान हम सब ही नहीं सभी दलों के नेता करते रहे।
वे शायद अकेली ऐसी पत्रकार थीं जो किसी भी मुख्यमंत्री से सीधे फोन लगाकर बात कर लेती थीं। कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह हों या मुलायम सिंह, इनसे फोन पर बात आसानी से हो जाती थी। मायावती ज़रूर अपवाद थीं।
नौकरशाही भी तविषी श्रीवास्तव को बहुत गंभीरता से लेती और कई बार कुछ जानकारी ऑफ़ डी रिकार्ड हमें उन्हीं से मिली जिसपर मैंने बड़ी ख़बर तक की। सचिवालय एनेक्सी से लेकर प्रेस रूम तक हम लोग तब लगभग रोज़ ही मिलते पर सिर्फ़ यहीं तक नहीं बल्कि बड़ी रैलियों की कवरेज भी उनके साथ करने का मौक़ा मिला। कुछ सीखने का, समझने का भी मौक़ा मिला।
दुर्भाग्य देखिये इतनी वरिष्ठ पत्रकार जिन्हें प्रदेश के सारे नेता, दिग्गज नौकरशाह जानते थे, उनके लिए अंतिम समय में एक एम्बुलेंस नहीं मिल पाई। इसे क्या कहा जाए! वे साधन संपन्न परिवार से थीं। सत्ता के बीच उठना बैठना होता रहा। उसके बावजूद अगर ऐसी स्थिति आई तो इसपर मीडिया से जुड़े सभी मित्रों को सोचना चाहिए। एक इतनी सम्मानित पत्रकार की हम मदद नहीं कर पाये तो इसके लिए हम भी कम दोषी नहीं हैं। मरने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने एक पत्रकार साथी से बचा लेने की मार्मिक अपील की थी पर देर हो गई और वे बच नहीं पाईं। बहुत याद आएँगी तविषी जी।
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