पाश महज पंजाबी कविता नहीं, बल्कि समूची भारतीय कविता के लिए एक ज़रूरी नाम हैं, क्योंकि उनके योगदान के उल्लेख के बिना भारतीय साहित्य और समाज के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं बनता है। उन्हें क्रांति का कवि कहा जाता है। जिस तरह की जीवनधारा पाश की रही, उसके बीच से फूटने वाली रचनाशीलता में उनका काम बेजोड़ है क्योंकि उन जैसा सूक्ष्म कलाबोध दुर्लभ है। उनका अपना सौंदर्यशास्त्र है, जो टफ़ तो है पर रफ़ नहीं। वहाँ ग़ुस्सा, उबाल, नफ़रत, प्रोटेस्ट और खूंरेजी तो है ही, गूंजें-अनुगूंजें भी हैं।
पाश यक़ीनन एक प्रतीक हैं और उनके क़िस्से पीढ़ी-दर-पीढ़ी दिमाग़ों में टंके हुए हैं। जब वह जीवित थे, तब भी, कई अर्थों में दूसरों के लिए ही थे। अदब में आसमाँ सरीखा कद रखने वाले पाश धरा के कवि थे।
वह पंजाबी के कवि थे लेकिन व्यापक हिंदी समाज उन्हें अपना मानता है। हिंदी कवि मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, राजेश जोशी, केदारनाथ सिंह, सौमित्र मोहन, अरुण कमल, ऋतुराज, वीरेन डंगवाल, कुमार विकल, उदय प्रकाश, लीलाधर जगूड़ी और गिरधर राठी आदि पाश की कविता के गहरे प्रशंसकों में शुमार रहे।
पाश ने 15 साल की किशोरवय उम्र में परिपक्व कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं। उनमें क्रांति की छाप थी, सो उन्हें क्रांतिकारी कवि कहा जाने लगा। पहले-पहल यह खिताब उन्हें महान (नुक्कड़) नाटककार गुरशरण सिंह ने दिया था। 20 साल की उम्र में उनका पहला संग्रह 'लौह कथा' प्रकाशित हुआ। यह कविता संग्रह आज भी पंजाबी में सबसे ज़्यादा बिकने वाली कविता पुस्तक है। 'कागज के कातिलों' के लिए यह मिसाल एक ख़ास सबक़ होनी चाहिए कि पाश ने अपने तईं अपना कोई भी संग्रह कभी भी किसी 'स्थापित' आलोचक को नहीं भेजा। जबकि पंजाबी के तमाम आलोचक बहुचर्चा के बाद उनकी कविता का नोटिस लेने को मजबूर हुए। कई ने उनकी कविता का लोहा माना और कुछ ने नकारा। प्रशंसा-आलोचना-निंदा से पाश सदा बेपरवाह रहे।
उनकी अध्ययन पद्धति ग़जब की थी। बेसमेंट में उन्होंने अपनी लाइब्रेरी बनाई थी। जहाँ दुनिया भर की किताबें थीं। नक्सली लहर के दौरान, 1969 में जब उन्हें झूठे आरोपों के साथ गिरफ्तार करके जेल भेजा गया तब इस किताबों के खजाने को पुलिस ने 'सुबूत' के बहाने 'लूट' लिया। पाश रिहा हुए लेकिन जब्ती का शिकार बनीं किताबें उन्हें कभी वापस नहीं मिलीं। पुलिसिया यातना का उन्हें इतना मलाल नहीं रहा जितना इस बात का। वह खुद पढ़ने के लिए कॉलेज नहीं गए लेकिन उनका कविता संग्रह एमए में पढ़ाया गया।
पाश की एक काव्यपंक्ति दुनिया भर में मशहूर है-
‘सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना!’
उनका मानना था कि पहले बेहतर दुनिया सपनों में आएगी और फिर यही सपने साकार होंगे लेकिन ज़रूरी लड़ाई अथवा संघर्ष के साथ! पंजाबी क्या, किसी भी भाषा में कविता का ऐसा सौंदर्यशास्त्रीय मुहावरा दुर्लभतम है। इसे लिखकर पाश 'महानता' की श्रेणी को छू गए।
विचारधारात्मक तौर पर वह हर क़िस्म की कट्टरता, अंधविश्वास और मूलवाद के ख़िलाफ़ थे। पंजाब में फिरकापरस्त आतंकवाद की काली आंधी आई तो उन्होंने वैचारिक लेखन भी किया। वह अपना दिमाग़ और शरीर इसलिए बचाना चाहते थे कि इन तमाम अलामतों का बादलील विरोध कर सकें। उनका मानना था कि अगर मस्तिष्क रहेगा तो बहुत कुछ संभव होगा। वह दुनिया बनेगी जिसकी दरकार है बेहतर जीवन के लिए। जीवन पर मंडराते ख़तरे के बाद वह विदेश चले गए। अपना अभियान जारी रखा। वहाँ से उन्होंने 'एंटी-47' पत्रिका निकाली। तब उनका नाम खालिस्तानी आतंकवादियों की हत्यारी 'हिटलिस्ट' के शिखर पर आ गया। अपनी धरती-अपना वतन बार-बार खींचता था। कुछ दिनों के लिए अपने गाँव पंजाब आ जाते थे।
23 मार्च, 1988 के दिन वह अपने गाँव में थे कि खालिस्तानी आतंकियों ने घात लगाकर उन्हें कत्ल कर दिया। कातिल नहीं जानते थे कि जिस्म कत्ल होने से फलसफा और लफ्ज़ कत्ल नहीं होते। 23 मार्च का दिन शहीद भगत सिंह के लिए भी जाना जाता है और आज पाश के लिए भी। न भगत सिंह मरे और न पाश!
पाश ने कविता 'अब मैं विदा लेता हूँ' में कहा है:
'मुझे जीने की बहुत चाह थी/ कि मैं गले-गले तक ज़िंदगी में डूब जाना चाहता था/मेरे हिस्से की ज़िंदगी भी जी लेना मेरे दोस्त!'
उनके हिस्से की ज़िंदगी बहुतेरे लोग जी रहे हैं।
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