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महाराष्ट्र में एनसीपी के असली बॉस शरद पवार और शिवसेना के उद्धव?

महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद माहौल बदला सा नज़र आ रहा है। अजित पवार गुट की स्थिति बेहद ख़राब है तो एकनाथ शिंदे की शिवसेना भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है। दोनों शिवसेना में अंतर दो सीटों का ही है, लेकिन शिवसेना बनाम शिवसेना की लड़ाई में फ़ैसला उद्धव ठाकरे के पक्ष में जाता दिख रहा है।

उद्धव की पार्टी ने 21 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा और 47% की स्ट्राइक रेट के साथ 7 सीटें जीतीं। इस तरह उद्धव खेमे ने दो सीटें ज़्यादा जीतकर एक तरह से शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की विरासत पर दावेदारी पेश कर दी है।

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इस चुनाव को 'असली शिवसेना' और 'नकली शिवसेना' के बीच परीक्षा के तौर पर लिया जा रहा था। उद्धव की शिवसेना को प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान ‘नकली सेना’ करार दिया था। फिर भी असली शिवसेना के रूप में उद्धव की स्थिति और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत पर उनका दावा जताने में मुंबई में चुनावी सफलता ने मदद की है। मुंबई शहर पार्टी का केंद्र है, जहां उसने 4 सीटों पर चुनाव लड़ा और 3 पर जीत हासिल की। शिवसेना बनाम शिवसेना की एकमात्र सीट मुंबई उत्तर पश्चिम में उसकी हार हुई और वह भी पुनर्मतगणना के बाद 48 वोटों के बहुत कम अंतर से। 

इसके अलावा, 13 सीटों पर जहाँ सीधे तौर पर शिवसेना बनाम शिवसेना की लड़ाई थी, यूबीटी शिवसेना ने 7 सीटें जीतीं और शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को 6 सीटें मिलीं। ऐसा तब है जब पार्टी का चुनाव चिह्न, संगठन और पूरे संसाधनों पर शिंदे का कब्जा था।

इस तरह के नतीजे के बाद अब एकनाथ शिंद के भविष्य को लेकर सवाल उठाए जाने लगे हैं। टीओआई ने पर्यवेक्षकों के हवाले से कहा है कि मुंबई में जीतना और शिंदे की तुलना में ज़्यादा सीटें जीतना, शिवसेना के लिए उद्धव की व्यक्तिगत जीत है। विभाजन के कुछ दिनों बाद शिंदे सीएम बन गए और प्रशासन पर उनकी पकड़ बन गई। 
भाजपा और शिवसेना ने कहा था कि उद्धव गुट का लगभग सफाया हो चुका है। लेकिन अब जिस तरह से उद्धव खेमे का प्रदर्शन रहा है उससे शिंदे खेमे पर ही सवाल उठने लगे हैं।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि स्थिति अब ऐसी हो गई है कि विधानसभा चुनाव से पहले शिंदे को अपने लोगों को रोककर रखना मुश्किल हो सकता है। हालाँकि, उद्धव ने यह साफ़ कर दिया है कि वे 'गद्दारों' का स्वागत नहीं करेंगे, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए 'घर वापसी' हो सकती है। इधर, शिंदे के पक्ष में एक बात कही जा रही है कि बीजेपी की स्ट्राइक रेट शिंदे खेमे से ख़राब होने से उसके लिए अच्छा है। यदि ऐसा नहीं होता तो विधानसभा चुनाव में उसको टिकट का काफी नुक़सान उठाना पड़ सकता था।
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अजित पवार की पार्टी बुरी तरह हारी

एनसीपी में बँटवारा होने के बाद लोकसभा चुनाव दोनों खेमों के लिए पहली बड़ी परीक्षा था। अजित पवार चुनाव आयोग द्वारा उन्हें पार्टी का नाम और चिह्न दिए जाने के बाद पहली चुनावी लड़ाई में अपने चाचा शरद पवार की एनसीपी पर अपना दबदबा बनाने की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने अजित पवार को निराश कर दिया। 

अजित पवार को पारिवारिक गढ़ बारामती में प्रतिष्ठा की लड़ाई में बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। उनकी पत्नी सुनेत्रा पवार शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले से 1 लाख 58 हज़ार मतों के अंतर से हार गईं। रायगढ़ से उनके चार उम्मीदवारों में से केवल एक सुनील तटकरे ही निर्वाचित हुए हैं।

इसके विपरीत शरद पवार ने अपनी एनसीपी (एसपी) द्वारा लड़ी गई 10 सीटों में से 8 पर जीत हासिल की है। इससे पार्टी के लंबे समय से चले आ रहे पश्चिमी महाराष्ट्र के किले पर उनकी मजबूत पकड़ बनी हुई है और 25 साल पहले स्थापित की गई पार्टी पर उनका दावा मजबूत हुआ है।

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अजित को पिछले साल शिंदे-फडणवीस सरकार में शामिल होने पर उपमुख्यमंत्री पद से पुरस्कृत किया गया था, और चुनाव आयोग ने उनके समूह को असली एनसीपी के रूप में मान्यता दी थी। लेकिन अब अजित पवार का भविष्य कुछ ठीक नहीं लगता है।

कहा जा रहा है कि मतदाताओं ने जिस तरह से शरद पवार पर भरोसा जताया है, उससे अब अजित पवार खेमे के विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों में अपने भविष्य को लेकर संशय पैदा होगा। कुछ रिपोर्टों में तो कहा जा रहा है कि अजित पवार के खेमे से राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले बड़ा पलायन संभव है। शरद पवार की पार्टी के बेहतर नतीजे आने के बाद अजित पवार के कई विधायक राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए उनके पास लौट सकते हैं। व्यक्तिगत मोर्चे पर लोकसभा चुनावों ने पवार परिवार में अजित पवार को अलग-थलग कर दिया है।

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क़मर वहीद नक़वी
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