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शाहबानो की रूह आज भी ‘छटपटा’ रही होगी! जी हाँ, वही शाहबानो, जिन्होंने भारत में सबसे पहले ‘तलाक़-ए-बिद्दत’ (तीन तलाक़) के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। मुसलिम पर्सनल लॉ और इसलाम धर्म के रीति-रिवाज़ों को खुली चुनौती देने वाली शाहबानो संयोगवश मध्य प्रदेश की रहने वाली थीं। सात साल की लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद 1985 में तीन तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक क़रार दिया था तो माना गया था कि शाहबानो की मेहनत सफल हो गई। हालाँकि फ़ैसला शाहबानो और उन सरीखी मजलूम मुसलिम महिलाओं को कुछ ही दिनों की खुशी और राहत देने वाला साबित हुआ था। राजीव गाँधी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को 1986 में संसद में एक क़ानून लाकर भोथरा कर दिया था और शाहबानो जीत कर भी ‘हार’ गई थीं।
तलाक़-ए-बिद्दत को अपराध क़रार दिए जाने वाला विधेयक मंगलवार को राज्यसभा में पारित हुआ तो कहा गया, ‘34 साल पहले शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट से करोड़ों मुसलिम महिलाओं के लिए जो हक़ लिया था और उसे संसद ने छीन लिया था आज उसी संसद ने मुसलिम औरतों के उस वाजिब हक़ को ससम्मान लौटा दिया।’ लोकसभा में बिल पहले ही पारित हो चुका था। हालाँकि यद्यपि राज्यसभा में बिल पास हो जाने के बाद जिस तरह की राजनीति शुरू हुई है - उसे देखते हुए यह भी कहा जा रहा है, ‘शाहबानो की रूह उसी तरह से छटपटा रही होगी, जैसी कि जीवित रहते 1985 में सुप्रीम कोर्ट से केस जीत लेने के बाद संसद द्वारा कोर्ट का फ़ैसला पलट दिये जाने से उसके मन पर बीतती रही थी।’
इंदौर निवासी पाँच बच्चों की माँ शाहबानो को उनके पति मुहम्मद अहदम ख़ान ने तलाक़ दे दिया था। इसके ख़िलाफ़ शाहबानो 1978 में गुज़ारे-भत्ते की माँग के साथ कोर्ट गईं। इस पर भारी बवाल मचा था। उलेमा समेत मुसलिम समाज ने शाहबानो के दुस्साहस की जमकर आलोचना की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के हक़ में फ़ैसला दिया था तो बवाल और बढ़ गया था। दरअसल, मुसलिम बड़ा वोट बैंक है। यह वर्ग उस वक़्त एकतरफ़ा कांग्रेस के साथ हुआ करता था। लिहाज़ा कांग्रेस के नेताओं ने शाहबानो विरोधी बड़े मुसलिम धड़े का साथ देने में कोई कोर और कसर नहीं छोड़ी थी।
कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को बुरी तरह से डरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को इसलाम में दख़ल मानते हुए राजीव गाँधी सरकार ने नया क़ानून बना दिया था।
शाहबानो की कहानी कुछ इस तरह थी कि उनके पति अहमद ने दूसरी शादी कर ली थी, जो इसलाम के कायदों के तहत जायज़ भी था। अहमद नामी वकील थे। वह विदेश से वकालत पढ़कर भारत लौटे थे और सुप्रीम कोर्ट तक में वकालत के लिए जाते थे। शाहबानो की बेटी सिद्दिका बेगम के अनुसार, अहमद की दूसरी बीवी शाहबानो से क़रीब 14 साल छोटी थी। शाहबानो और दूसरी बीबी के बीच खटपट होने लगी थी। आए दिन झगड़े हुआ करते थे। परेशान होकर अहमद ने पहली बीवी यानी शाहबानो को तलाक़ दे दिया था।
शाहबानो ने संसद द्वारा सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पलट दिये जाने के बाद भी हार नहीं मानी थी। वह कोर्ट और सड़क पर अपनी लड़ाई को निरंतर लड़ती रही थीं। उन्हें समर्थन देने वालों की कमी भी नहीं थी। शाहबानो की लड़ाई 1992 में थम गई थी। दिमाग की नस फट जाने (ब्रेन हेमरेज) की वजह से 92 में वह चल बसी थीं।
इधर तीन तलाक बिल राज्यसभा से पारित हो जाने के बाद एक बार फिर रार मची हुई है। कांग्रेस जमकर शोर मचा रही है। बिल का विरोध करने वाले अन्य राजनैतिक दल और उसके नेता भी ख़ासे सक्रिय हैं।
उधर मुसलिम समुदाय में पुरुष वर्ग के सुर ख़ासे बुलंद हैं। दिल्ली के शाही इमाम और मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कार्यकारी सदस्य मुफ़्ती मुहम्मद मुकर्रर अहमद ने कहा है, ‘हम तो मानते हैं कि बिल को पास नहीं होना चाहिए था। यह मुसलिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप है। हमारे मज़हब में वैसे भी तलाक़ देने का हुक़्म नहीं है- अल्लाह इससे नाराज़ होता है। अगर मुसलमान शरीयत के क़ानून पर अमल करेंगे तो भला ही भला है।’
क़ानून के जानकारों का कहना है कि तीन तलाक के नये क़ानून का हश्र क़ानून की धारा 498 (दहेज़ प्रताड़ना) की तरह हो सकता है। ऐसे केस लड़ने वाले मध्य प्रदेश के वरिष्ठ वकील ललित मीठवानी ने ‘सत्य हिन्दी’ से कहा, ‘जिस तरह कई बार दहेज़ उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के झूठे मामले सामने आते हैं, वैसे ही अब इस क़ानून के ज़रिए भी झूठे मामले सामने आ सकते हैं।’
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