मध्य प्रदेश में स्थानीय निकाय के चुनावों के दूसरे और अंतिम दौर के नतीजे भी आ गये। मेयर पद के चुनाव में भाजपा को जमकर ‘डेंट’ लगा। हार की समीक्षा होगी। समीक्षा के पहले ही पार्टी के भीतर दबी जुबान में कहा जा रहा है, ‘कमल नाथ का फैसला पलटना शिव ‘राज’ और भाजपा को भारी पड़ गया।’
सत्तारूढ़ दल और उसकी सरकार की चूक की वजह, चुनाव के ठीक पहले लिये गये उस निर्णय को माना जा रहा है, जिसमें शिवराज सरकार ने मेयर का चुनाव सीधे कराने का फैसला लिया था।
कमल नाथ जब सत्ता में आये थे और स्थानीय सरकार के चुनाव की स्थितियां बनी थीं तब नाथ सरकार ने भाजपा के राज में होने वाले महापौर और नगर पालिका के अध्यक्ष के प्रत्यक्ष चुनावों (जनता के जरिये दोनों को सीधे चुना जाता था) के पुराने निर्णय को बदल दिया था।
नाथ सरकार ने निर्णय लिया था कि स्थानीय निकाय के चुनावों में पुरानी पद्धति के अनुसार पार्षदों के जरिये ही महापौर और नगर पालिका अध्यक्ष को चुना जायेगा। यानी पार्षदों में से ही महापौर और अध्यक्ष होगा।
चुनाव हो पाते इसके पहले कमल नाथ की सरकार चली गई। कोविड आ गया। चुनाव टल गये और कोविड की लहरों के कारण यह टलते रहे।
विगत माह सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव कराने के आदेश के बाद आनन-फानन में मध्य प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव हो पाये हैं। साल 2015 में राज्य में त्रि-स्तरीय पंचायतों और स्थानीय सरकारों के चुनाव हुए थे। उस चुनाव में मेयर पद की सभी 16 सीटें भाजपा ने जीती थीं।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद चुनाव सिर पर आ गए तो शिवराज सरकार महापौर के चुनाव को पूर्व की तरह प्रत्यक्ष तरीके से कराने संबंधी अध्यादेश लेकर आयी थी। रातों-रात गवर्नर हाउस ने इस अध्यादेश को हरी झंडी दिखलाई थी।
कमल नाथ सरकार के फैसले को पलटने संबंधी मसौदा जब कैबिनेट में पहुंचा था तो कई मंत्रियों ने इसका विरोध किया था। तमाम दलीलों के बीच यह तर्क भी आया था, सीधे चुने वाला मेयर मनमानी करता है। सांसद और विधायक की अनदेखी की जाती है। पार्षद को उसके पद के अनुरूप तवज्जो नहीं मिल पाती है।
तमाम दलीलों को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दरकिनार कर दिया था। उनके वीटो और अनेक मंत्रियों की सहमति के बाद महापौर का चुनाव जनता के जरिये सीधे कराये जाने का निर्णय काबीना ने लिया था। अध्यादेश का प्रारूप मंजूर कर स्वीकृति के लिये राज्यपाल को भेजा गया था। महामहिम ने उसे मंजूरी दे दी थी।
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अब जब, मध्य प्रदेश के कुल 16 नगर निगमों में मेयर पद के चुनावों में भाजपा 7 सीटें हार गई है तो कहा जा रहा है कि नाथ सरकार का पुराना निर्णय नहीं बदला जाता तो पार्षदों की संख्या के हिसाब से 15 नगर निगमों में भाजपा का मेयर बनता। शहरी क्षेत्रों में हार का डेंट पार्टी पर नहीं लगता।
नतीजों के बाद भाजपा अब चिंतन, मंथन और आत्मावलोकन में जुट गई है। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र और कस्बे, कैसरिया रहे हैं। महापौर के सात पद गंवाने के बाद भाजपा के अदने से लेकर आला नेता मीडिया में अपनी लाज बचा रहे हैं। उनकी दलील है, ‘भले ही महापौर की 7 सीटें हार गये, मगर शहरी क्षेत्रों में भी बीजेपी का दबदबा बरकरार रहा है। जनता ने ज्यादा संख्या में पार्षद बीजेपी के जिताये हैं।’
दावा सही है। भाजपा ने कुल 16 नगर निगमों में जिन सात को हारा है, उनमें ग्वालियर, जबलपुर, कटनी और सिंगरौली में बोर्ड बनाने के लिये स्पष्ट बहुमत बीजेपी को मिला है। बुरहानपुर और रीवा में उसके पार्षद ज्यादा नंबर में विजयी रहे हैं।
मुरैना में पार्षद पद की 19 सीटें कांग्रेस और 15 सीटें भाजपा के खाते में गई हैं। लेकिन अस्पष्ट बहुमत और मुरैना में कम नंबरों के बावजूद पलड़ा भाजपा का ही भारी है। इसकी वजह, मुरैना में कुल 13 पार्षद अन्य दलों के साथ निर्दलीय होना भी हैं। सियासी गणित के अनुसार इन 13 में ज्यादातर का समर्थन भाजपा को मिलना तय माना जा रहा है।
अन्य 9 नगर निगमों में छिंदवाड़ा भर ऐसा निगम है जहां महापौर के साथ कांग्रेस 26 पार्षद पद जीतकर बोर्ड पर भी कब्जा जमाने में सफल रही है। कुल 48 पार्षदों वाली इस निगम में भाजपा के 18 पार्षद और 4 अन्य (विभिन्न क्षेत्रीय दल और निर्दलीयों) को कामयाबी मिली है।
भाजपा ने जमकर किया था विरोध
महापौर और निकाय अध्यक्षों का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने के कमल नाथ के फैसले को भाजपा ने लोकतंत्र की हत्या बताया था। जमकर विरोध किया था। भाजपा के सभी पुराने महापौर इस फैसले के खिलाफ तत्कालीन राज्यपाल लालजी टंडन से मिले थे। चुनाव से पहले संगठन स्तर पर लगातार बैठकें चलीं। यह मामला दिल्ली दरबार तक भी पहुंचा था।
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