मध्य प्रदेश में 2 नवंबर को अधिसूचना जारी होगी और 28 नवंबर को चुनाव होंगे। प्रदेश में अब तक बीजेपी और कांग्रेस का ही राजनीतिक दबदबा रहा है। पिछले 15 सालों से बीजेपी यहां जीत हासिल करती आ रही है। कांग्रेस को उम्मीद है कि जनता इस बार उसे मौका देगी और इसके लिए वह कई कारण गिना रही है। लेकिन बीएसपी से गठबंधन न होने के कारण कांग्रेस के लिए बीजेपी को सत्ता से हटाना आसान नहीं होगा। चुनाव से ठीक पहले प्रदेश में कई छोटे राजनीतिक दलों का गठन हुआ है और इसने बीजेपी की चिंता बढ़ा दी है। आइए समझते हैं कि प्रदेश के राजनीतिक हालात क्या हैं।
कांग्रेस को कमलनाथ पर भरोसा, लेकिन गुटबाजी का है डर
15 साल तक सत्ता से दूर रही कांग्रेस इस बार अपने वरिष्ठ नेता कमलनाथ की कप्तानी में चुनाव लड़ रही है। प्रदेश कांग्रेस में कई अनुभवी नेता हैं। लेकिन गुटबाजी के कारण पार्टी को नुकसान हो सकता है। कांग्रेस ने इसी डर के कारण राज्य में किसी भी नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है।कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया राहुल गांधी के नजदीकी हैं और कांग्रेस के सत्ता में आने पर इनमें से ही कोई एक सीएम बनेगा। दिग्विजय सिंह वरिष्ठ नेता हैं लेकिन कई साल से राज्य की राजनीति से बाहर हैं। इसके अलावा नेता विपक्ष अजय सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी का भी आधार है। कांग्रेस नेताओं को सत्ता में आने के लिए गुटबाजी से दूर रहना होगा।
बीएसपी के ऐलान के बाद बदले समीकरण
बीएसपी के अकेले चुनाव लड़ने के एलान के बाद प्रदेश में सियासी समीकरण बदलना तय है। पिछले विधानसभा चुनाव में बीएसपी के चार विधायक जीते थे और उसे छह फीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे। कांग्रेस और बीएसपी का गठबंधन होने पर दलित वोट नहीं बंटते लेकिन अब दलित बीएसपी के खेमे में जा सकते हैं। इससे कांग्रेस काे नुकसान हो सकता है।दूसरी ओर बीजेपी को दलितों की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सीएम शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि राज्य में एससी-एसटी एक्ट के तहत जांच के बिना किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। इसलिए इस बयान का भी चुनाव में असर होगा।शिवराज को मिल सकती है चुनौती
राज्य में सीएम शिवराज सिंह चौहान के सामने बीजेपी के कुछ दिग्गज नेता चुनौती पेश कर सकते हैं। इनमें केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मजबूत दावेदार हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में तोमर ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे और बीजेपी को जीत मिली थी। तोमर के अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी सीएम के दावेदारों में हैं। हाल ही में मुंगावली और कोलारस विधानसभा उपचुनाव और नगरपालिका चुनाव में मिली हार के बाद भी शिवराज की मुश्किलें बढ़ी हैं। इसके अलावा व्यापंम घोटाले के कारण भी शिवराज सरकार की मुश्किलें बढ़ी हैं। हालांकि शिवराज ने सत्ता बचाने के लिए जनआशीर्वाद यात्रा निकालकर अपने पक्ष में माहौल बनाया है।एससी-एसटी एक्ट को लेकर बंटा समाज
एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का मध्य प्रदेश में ज़ोरदार विरोध हुआ था। इसके बाद केंद्र सरकार ने बिल लाकर जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया तो सवर्णों ने इसका विरोध किया। इससे प्रदेश में समाज बंट गया है। सामान्य और ओबीसी वर्ग एससी-एसटी एक्ट और एससी-एसटी कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण के ख़िलाफ़ है। अभी तक सामान्य और ओबीसी वर्ग बीजेपी के साथ रहा है। लेकिन इस बार हालात पहले जैसे नहीं हैं। सीएम शिवराज सिंह चौहान, पूर्व सीएम उमा भारती ओबीसी वर्ग से संबंध रखते हैं।‘सपाक्स' से डर रही बीजेपी
एससी-एसटी एक्ट का विरोध करने वाली सामान्य पिछड़ा अल्पसंख्यक कल्याण समाज संस्था (सपाक्स) ने 2 अक्टूबर को राजनीतिक पार्टी का गठन किया है। सपाक्स ने प्रदेश की सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने की बात कही है। इससे बीजेपी को डर सता रहा है कि प्रदेश की सामान्य वर्ग की 148 सीटों पर सपाक्स इस बार उसका खेल बिगाड़ सकती है।पिछड़ा वर्ग के ज्यादातर संगठन इन दिनों सपाक्स व अनुसूचित जाति जनजाति अधिकारी कर्मचारी संघ (अजाक्स) के बीच फंसे हुए हैं। सपाक्स और अजाक्स दोनों का दावा है कि पिछड़ा वर्ग उनके साथ है। वहीं, पिछड़ा वर्ग के सामाजिक संगठनों में एक राय नहीं है। कुछ सपाक्स का साथ दे रहे हैं तो कुछ अजाक्स के साथ होने की बात कह रहे हैं। इसी तरह सपाक्स ने अपने साथ अल्पसंख्यक समुदाय के समर्थन का भी दावा किया है लेकिन ज़मीन पर ऐसा नहीं दिखता।‘जयस’ भी उतरा मैदान में
मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में आदिवासी वोट बैंक की बड़ी भूमिका है। प्रदेश में 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को इनमें से 32 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन इस बार आदिवासियों की लड़ाई लड़ने वाले संगठन जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) ने भी ताल ठोक दी है। जयस के नेता हीरालाल अलावा ने बीजेपी को चुनौती दी है कि इस बार वह इन 47 सीटों में से एक भी सीट जीतकर दिखाए। ऐसे में बीजेपी को तो मुश्किल होगी ही, कांग्रेस के लिए भी आदिवासियों का वोट हासिल करना मुश्किल होगा।जातीय व क्षेत्रीय समीकरण
राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी 33 फ़ीसदी है। अनुसूचित जाति समाज 16 फ़ीसदी और अनुसूचित जनजाति समाज की आबादी 21 फ़ीसदी है। सवर्ण 22 फ़ीसदी और अल्पसंख्यक 8 फ़ीसदी हैं। मध्य प्रदेश की सबसे ज्यादा 38 सीटें जबलपुर संभाग यानी महाकौशल क्षेत्र में हैं। दूसरे नंबर पर इंदौर (मालवा क्षेत्र) संभाग है, जहां 37 सीटें हैं। रीवा संभाग में 30 और ग्वालियर-चंबल संभाग में 34 सीटें हैं। सागर संभाग में 26, भोपाल संभाग में 25, उज्जैन में 29 और होशंगाबाद में कुल 11 सीटें हैं।2013 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों को देखा जाए तो कुल 230 सीटों में से बीजेपी को 165 सीटें मिली थीं और उसका वोट प्रतिशत 44.88 फ़ीसदी था। वहीं, कांग्रेस को 36.38% प्रतिशत वोट के साथ 58 सीटों पर जीत मिली थी। बीएसपी को महज 4 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन उसका वोट प्रतिशत 6.29% रहा था। बीएसपी 11 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी।कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए ही यह विधानसभा चुनाव बहुत अहम है। विधानसभा चुनाव के परिणाम अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित करेंगे। इसलिए कांग्रेस, भाजपा ने यह चुनाव जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। इसके अलावा बसपा, सीपीआई, सीपीएम, बहुजन संघर्ष दल, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, समाजवादी पार्टी, ‘सपाक्स' और जयस संगठन भी चुनाव पर असर डालेंगे। शिवराज सरकार से जनता खुश है या नहीं, इसका पता चुनाव के नतीज़ों के बाद ही चलेगा।
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