राहुल गाँधी अब डरते नहीं. हिचकिचाते भी नहीं. 2019 में विपक्षी गठबन्धन अगर जीता, तो कौन प्रधानमंत्री होगा? अब राहुल के पास इस यक्ष-प्रश्न का जवाब है। सहयोगी अगर चाहेंगे, तो राहुल प्रधानमंत्री बनने से हिचकिचायेंगे नहीं। उन्होंने साफ़ संकेत दे दिया. उनका 'वैराग्य भाव' अब ख़त्म हो गया है। वह अब 'विथड्राल सिंड्रोम' के अनमने धुँधलकों के बाहर देखने लगे हैं। राहुल गाँधी से हिन्दुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में जब यह सवाल पूछा गया कि अगर सहयोगी दल उन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहें, तो वह तैयार होंगे क्या? राहुल का जवाब था, 'अगर वे चाहेंगे तो ज़रूर बनूँगा!'
राहुल ने फेंका पाँसा
साफ़ है कि प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल भी अब पाँसा फेंक चुके हैं। हालाँकि इसके पहले वह यह ज़ोर देकर कहते हैं कि विपक्ष ने तय किया है कि पहला लक्ष्य 2019 में बीजेपी को हराना है, फिर तय होगा कि कौन प्रधानमंत्री बने। कहने का मतलब यह कि प्रधानमंत्री का पद लोकसभा चुनाव के पहले विपक्षी एकता की राह में रोड़ा नहीं बनेगा। पहले चुनाव हो, नतीजे आ जायें, देख लें कि किसको कितनी सीटें मिलीं और तब तय हो कि प्रधानमंत्री किसको बनना चाहिए। यानी राहुल गाँधी ने साफ़ कर दिया कि विपक्षी गठबन्धन किसी को प्रधानमंत्री के तौर पर आगे करके चुनाव नहीं लड़ेगा।इधर हाल में जब-जब 2019 के लिए बनने वाले विपक्षी महागठबन्धन की चर्चा उठी, हमेशा यह सवाल उठता रहा कि आख़िर विपक्ष की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा?
एक समय था, जब बहुत-से राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते थे कि नीतिश कुमार 2019 में विपक्ष के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर उभर सकते हैं और उनके नाम पर सर्वसम्मति भी बन सकती है। नीतिश ने ममता, नवीन पटनायक समेत विपक्ष के कई नेताओं से बात कर एक फ़ेडरल फ़्रंट बनाने की कोशिशें भी कीं, लेकिन बात नहीं बन सकी। फिर राजनीति ऐसी घूमी कि नीतिश को विपक्ष में रहना घाटे का सौदा लगने लगा और पाला बदल कर वह बीजेपी के साथ हो लिये। तो यह कहानी यहीं पर ख़त्म हो गयी।
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ममता बनर्जी और मायावती : अपने-अपने दावे
माया के नाम पर मुश्किल
फिर इधर हाल के कुछ महीनों में ममता बनर्जी और मायावती दोनों की पार्टियों की तरफ़ से उनके नाम प्रधानमंत्री पद के लिए उछाल कर हवा भाँपने की कोशिश की गयी। इस पर बाक़ी विपक्ष में कहीं कोई ख़ास सुगबुगाहट नहीं हुई। ममता बनर्जी तो ख़ैर सिर्फ़ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित हैं, इसलिए उनके दावे में उतना दम नहीं है। मायावती उन पर कहीं बीस पड़ती हैं। छिटपुट ही सही, बिखरा हुआ ही सही, लेकिन मायावती का थोड़ा-बहुत जनाधार उत्तर प्रदेश के अलावा देश के दूसरे कई राज्यों में और यहाँ तक कि दक्षिण में भी है। अभी हाल में कर्नाटक विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी बीएसपी ने जेडीएस के साथ मिल कर लड़ा था। दूसरे, किसी दलित और वह भी दलित महिला को पहली बार देश का प्रधानमंत्री बनाया जाय, अपने आप में यह एक आकर्षक और लाजवाब नारा है, जिसके आगे विपक्ष के तमाम और नेताओं के दावों को साँप सुँघाया जा सकता है।लेकिन मायावती के नाम पर सहमति बन पायेगी, यह थोड़ा मुश्किल नज़र आता है। वह कब तिनक जायेंगी, कब उनका मूड किस बात पर उखड़ जायेगा, कब वह ग़ुस्से में आ कर कौन-सा क़दम उठा लेंगी, यह कोई नहीं जानता। यही एक बात उनके ख़िलाफ़ जाती है।
विपक्ष के पास विकल्प क्या है?
इन नामों के अलावा विपक्ष में और कौन हो सकता है प्रधानमंत्री पद का दावेदार? शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि वह इस दौड़ में नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव अब इस स्थिति में ही नहीं हैं कि कोई दावेदारी ठोक सकें। अखिलेश यादव अभी बहुत जूनियर हैं। लालू प्रसाद यादव तो अदालती सज़ा के कारण राजनीति से बाहर हो चुके हैं। नवीन पटनायक तो ख़ुद को विपक्ष की राजनीति से पहले ही दूर रखे हुए हैं। तो फिर ममता, मायावती के अलावा विपक्ष के पास और क्या विकल्प हो सकते हैं? प्रधानमंत्री के मसले पर काँग्रेस अब तक बिलकुल चुप थी। इसके कई कारण थे। एक तो यही कि 2014 की हार के बाद से पार्टी का जनाधार लगातार छीजता गया और एक के बाद एक चुनावों में उसकी बुरी, और बुरी गत बनती गयी। लगने लगा था कि नरेन्द्र मोदी ने 2014 में 'काँग्रेस मुक्त भारत' का जो नारा दिया था, वह शायद जल्दी ही पूरा होता हुआ दिखाई दे जायगा। उधर, राहुल गाँधी की अपनी ख़ुद की छवि भी बड़ी लुंजपुंज थी। यहाँ तक कि लोग मज़ाक़ में कहते थे कि विपक्ष अगर राहुल को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश कर चुनाव लड़ेगा, तो उसे जो वोट मिलने वाले भी होंगे, वह भी नहीं मिलेंगे! तीसरी बात यह कि विपक्ष के बहुत-से दिग्गज राहुल को बहुत जूनियर और अनुभवहीन मानते रहे हैं। राहुल के नेतृत्व में काम करना उन्हें कुछ जमता नहीं।इधर कुछ महीनों में राहुल का 'इमेज इंडेक्स' काफ़ी सुधरा है, वह बेबाकी से अपनी बातें कहने लगे हैं, आत्मविश्वास बढ़ा है। उनके ट्वीट अब पहले से कहीं ज़्यादा पसन्द किये और 'रि-ट्वीट' किये जा रहे हैं।
पंजाब की जीत से तो नहीं, लेकिन कर्नाटक की राजनीतिक सफलता ने राहुल और कांग्रेस दोनों के लिए काफ़ी हद तक संजीवनी का काम किया है। फिर इस बीच एक और बात हुई। चार साल पहले बहुत-से लोगों ने नरेन्द्र मोदी के जिस जादुई चिराग़ के नाम पर बीजेपी को वोट दे दिया था, उसकी लौ अब टिमटिमा रही है। इसका फ़ायदा भी काँग्रेस को दिख रहा है।
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