भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता शायना एन. सी. ने अपनी ही पार्टी की यह कह कर परोक्ष आलोचना की है कि तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को छोड़ किसी राजनीतिक दल ने इस लोकसभा चुनाव में भी महिलाओं को 33% टिकट नहीं दिया है।
तमाम दलों का एक हाल
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देने वाली बीजेपी अकेली पार्टी नहीं है, जिसे इस बार भी टिकट बँटवारे में महिलाओं की अनदेखी की है। न सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने महिलाओं को अधिक सीटें दी हैं न ही उस बहुजन समाज पार्टी ने, जिसकी प्रमुख मायावती हैं। लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाली वामपंथी पार्टियों का रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है।अभी सभी दलों ने सभी सीटों पर उम्मीदवारों के नामों की घोषणा नहीं की है, लेकिन अधिक सीटों पर घोषणा हो चुकी है और स्थिति कमोबेश साफ़ हो चुकी है।
महिलाओं को सबसे अधिक सीटें पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने दी है। उसने सभी 42 सीटों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, जिनमें 17 महिलाओं को टिकट दिया गया है। यानी टीएमसी ने 41 प्रतिशत सीटें महिलाओं को दी हैं।
इसी तरह बीजू जनता दल ने एक तिहाई 33% सीटों पर महिलाओं को उतारने का फ़ैसला किया है। लेकिन यह अजीब बिडंवना है कि सबसे पहले 1998 में संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश करने वाली कांग्रेस पार्टी ने इस बार के चुनाव के लिए अब तक जिन 343 उम्मीदवारों का एलान किया है, उनमें सिर्फ़ 47 यानी 13.6 प्रतिशत ही महिलाएँ हैं।
बीजेपी की स्थिति बहुत अलग नहीं है। उसने 374 में से 45 यानी 12 प्रतिशत उम्मीदवार ही औरतें हैं। ऐसा तब है जब यह पार्टी महिलाओं के हक़ों की बात करती है।
इन पार्टियों ने जिन महिलाओं को टिकट दी हैं, उनमें ज़्यादातर पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से ही टिकट पाती हैं। कई महिलाए इसलिए टिकट पा जाती हैं कि उनके पिता या भाई या पति बड़े राजनेता होते हैं।
वे परिवार के राजनीतिक हितों को सुरक्षित रखने के लिए चुनाव लड़ती हैं। बीजेपी की प्रीतम मुंडे गोपीनाथ मुंडे की बेटी हैं तो पूनम महाजन के पिता प्रमोद महाजन थे। इसी तरह हीना गावित के पिता विजय कुमार गावित ख़ुद राजनेता थे। बीजेपी ने जलगाँव ज़िला अध्यक्ष की पत्नी उदय वाघ की पत्नी स्मिता वाघ को टिकट दिया है। इसी तरह महाराष्ट्र में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव में उतरी प्रिया दत्त सुनील दत्त की बेटी हैं। ये तो कुछ उदाहरण हैं। तमाम दलों में कमोबेश यही स्थिति है।
पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2014 में भी स्थिति बहुत अलग नहीं थी। उस समय कांग्रेस ने 464 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, इनमें सिर्फ़ 60 यानी 12.9 फ़ीसदी औरतें थीं। इसी तरह बीजेपी ने 428 में से 38 महिला उम्मीदवारों को मौक़ा दिया, यानी इसके महिला उम्मीदवारों की तादाद सिर्फ़ 8.9 प्रतिशत थी।
पिछले लोकसभा चुनाव में लोकसभा की 543 सीटों में सिर्फ़ 62 स्त्रियाँ चुनी गईं। बाद में उपचुनावों में 4 और महिलाएँ चुनी गईं। इस तरह यह तादाद बढ़ कर 66 हो गई। यानी हमारे संसद में 12 प्रतिशत महिला सदस्य हैं।
आख़िर ऐसा क्यों है? जो पार्टी महिला आरक्षण विधेयक लाती है, उसे पारित नहीं करा पाने की सूरत में एक बार नहीं, चार बार उसे पेश करती है, वह उसी विधेयक के अनुसार 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं को क्यों नहीं देती है? रक्षा जैसा मंत्रालय किसी महिला को देने वाली बीजेपी महिलाओं को टिकट देने से क्यों हिचकती है?
पुरुषवादी मानसिकता है ज़िम्मेदार?
पर्यवेक्षकों का मानना है कि इसकी बड़ी वजह यह है कि कोई पार्टी अपने यहाँ महिलाओं को नेतृत्व में जगह नहीं देना चाहती। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि महिलाएँ मोटे तौर पर पुरुषों की तरह जोड़- तोड़ करने वाली नहीं होती, वे पुरुषों की तरह ज़्यादा समय भी राजनीति को नहीं दे सकतीं। स्त्रियाँ घर-परिवार या ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई में लगी होती हैं। वे कैरियर के नाम पर नौकरी-चाकरी कर लेती हैं, समाज सेवा में भी कुछ महिलाएँ आ जाती हैं। पर सामाजिक कारणों से वे राजनीति जैसे बीहड़ इलाक़े में नहीं आतीं।विश्लेषकों का कहना है कि चुनाव के समय कोई राजनीतिक दल किसी तरह का प्रयोग करना नहीं चाहता, वह कोई जोख़िम नहीं उठाता। उसका पूरा ध्यान ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने पर होता है। ऐसे में वह पुराने और जमे हुए लोगों पर ही भरोसा करता है। पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली महिलाओं की बात और है।
लेकिन शायना एन. सी. इससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। वह इसके लिए पुरुष मानसिकता को ही ज़िम्मेदार मानती हैं। उनका मानना है कि तमाम राजनीतिक दलों में पुरुषवादी मानसिकता की वजह से स्त्रियों का विरोध होता है। ये पुरुष महिला विरोधी होते हैं और ज्यों ही किसी महिला का नाम सामने आता है, वे उसके जीतने की संभावना, पैसे की व्यवस्था और तमाम दूसरे तर्क ढूंढ लेते हैं।
विदेशों में क्या है स्थिति?
लेकिन राजनीति में महिलाओं की स्थिति दूसरे देशों में बहुत अच्छी नहीं है। अमेरिका और यूरोप में महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति निश्चित रूप से भारतीय महिलाओं की तुलना में बेहतर है, पर राजनीति में उन्हें भी जूझना पड़ रहा है। अमेरिका में अब तक एक बार भी कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनी है। पिछली बार हिलेरी क्लिंटन डेमोक्रेट्स उम्मीदवार थीं, पर उन्हें भी काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। ब्रिटेन में 1980 के दशक में पहली बार मार्गरेट थैचर प्रधानमंत्री बनी थीं, तक़रीबन 30 साल बाद टेरीज़ा मे प्रधानमंत्री बनीं जो फ़िलहाल पद पर हैं। जर्मनी में एंगेला मर्कल लगातार तीन बार चांसलर बनीं और अभी भी पद पर हैं, पर उन्हें अपवाद ही माना जा सकता है।पर्यवेक्षकों का कहना है कि जब तक स्त्रियाँ आर्थिक रूप से पूरी तरह आज़ाद नहीं होतीं और समाज में पुरुष वर्चस्व नहीं टूटता, तब तक दूसरे क्षेत्रों की तरह राजनीति में भी उन्हें जूझना पड़ेगा। ममता बनर्जी, मायावती, सुषमा स्वराज जैसी महिलाएँ हैं जो अपने बल बूते राजनीति में आईं और कामयाब भी हुईं, पर उनकी तादाद गिनी चुनी ही रहेंगी, ऐसा समझा जाता है।
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