यदि भारत की वर्तमान राजनीति को समझना है तो क्षेत्रीय दलों की पृष्ठभूमि, भूमिका और प्रभाव को पढ़ना ही होगा। पुस्तक SENSEX OF REGIONAL PARTIES इसी का एक वस्तुनिष्ठ और सार्थक विश्लेषण है। इस पुस्तक के लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार और फिलहाल नवोदय टाइम्स/ पंजाब केसरी के संपादक अकु श्रीवास्तव हैं। अकु जी चालीस से ज्यादा साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत हैं और देश में ऐसे बहुत कम पत्रकार होंगे जिन्होंने पत्रकारिता से जुड़े लगभग सभी बड़े संस्थानों में ही सिर्फ काम नहीं किया है बल्कि देश के कई हिस्सों में सफलतापूर्वक अपने काम को अंजाम दिया है।
लेखक ने भारत की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की राजनीति को कई दशकों से बड़े क़रीब से देखा और कवर किया है। लेखक की पत्रकारीय शैली बेहद सहज, तथ्यपरक है, जिससे हर वर्ग का पाठक इसे आसानी से समझ सकता है। यह पुस्तक आसान भाषा में अपने पूरे इतिहास बोध के साथ पाठकों को अखिल भारतीय दृष्टिकोण देती है और पाठकों को भी अकादमिक कसरत से नहीं गुजरना पड़ता है। पुस्तक के पहले ही इसका हिंदी संस्करण "सेंसेक्स क्षेत्रीय दलों का" काफी चर्चित हो चुका है और उसके दो संस्करण भी आ चुके हैं।
पुस्तक में भारत में चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त लगभग हर एक पर विस्तृत लेखन किया गया है। पाठकों की सुविधा के लिए पुस्तक को पांच भागों में बांटा गया है। पुस्तक की शुरुआत में एक विस्तृत प्रस्तावना है, जिसमें लेखक ने क्षेत्रीय दलों और राष्ट्रीय दलों के अंतर को स्पष्ट करते हुए भारतीय राजनीति में उनके बढ़ते - घटते प्रभावों पर रोशनी डाली है। पाठक पहले ही अध्याय से पुस्तक से बंध जाते हैं। है। क्षेत्रीय दलों के उदय को लेखक, "आजादी के बाद के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक" मानते हैं। लेखक का मानना है कि, "असंतुलित क्षेत्रीय विकास, प्रतिस्पर्धा और जातीयता से लेकर धर्म की भावना इत्यादि ने इस आग में घी का काम किया।" साथ ही इंदिरा गांधी के एकाधिकारी रवैए ने भी इमरजेंसी के विरोध में कई क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया।
पुस्तक में लेखक ने भारत की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में शिरोमणि अकाली दल (1920), डीएमके (1949) के बारे में एक नई दृष्टि से विस्तृत चर्चा की है। ये दोनों दल मुख्यधारा की संस्कृति और राजनीति के विरूद्ध आंदोलन के रूप में उभरे और अपने क्षेत्र में छा गए। आज भी इनकी राजनीतिक और सांस्कृतिक जड़ें समाज में काफी गहरी हैं।
व्यक्ति केन्द्रित राजनीतिक चेतना का लेखक ने बेहतरीन विश्लेषण किया है। क्षेत्रीय दल अपने प्रमुख नेता के सक्रिय जीवन काल में ही टिके रहते हैं।
उनके बाद उनका संगठनात्मक बिखराव और चुनावी पराजय का दौर शुरू हो जाता है। जैसे करुणानिधि, जयललिता, प्रकाश सिंह बादल, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, एनटी रामाराव, बाल ठाकरे, शरद पवार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक के दल उनके व्यक्तिगत प्रभाव पर टिके रहे। पुस्तक की विशेषता आज़ादी के बाद जितने भी छोटे-बड़े दल हुए हैं, उनका विस्तार से विवरण है जो सम्भवतः अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। वो भी अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में।
पहले भाग 'THE ORIGIN OF REGIONAL PARTIES' में क्षेत्रीय दलों की संकल्पना, उदय, उनके जाति और धर्म की नींव पर बेहद अकादमिक और रोचक चार अध्याय लिखे गए हैं। भाग दो का शीर्षक 'POLITICAL PARTIES IN STATES' है। पुस्तक की मुख्य विषय वस्तु इसी अध्याय में है। यहां लेखक ने भारत के हर राज्य की क्षेत्रीयता, क्षेत्रीय राजनीति और वहां के प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर विस्तार से शोध पूर्ण लेखन किया है। अकाली दल, आप, झामुमो, समेत पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय दलों पर लिखी गई बेहद उपयोगी पुस्तक है।
भाग तीन 'FROM THE PAGES OF HISTORY' में लेखक ने क्षेत्रीय दलों के भारतीय राजनीति में आजादी से लेकर 2022 तक के प्रवास को किसी राजनीति वैज्ञानिक की दृष्टि से समझाया है। नेहरू से लेकर 1967 तक का कांग्रेस सिस्टम ने देश और प्रदेशों पर एकछत्र राज किया। लेकिन 1967 से 1975 का समय क्षेत्रीय दलों के लिए सबसे उपजाऊ रहा। लेखक बताते हैं कि इंदिरा गांधी के रवैये से दुखी या गुस्सा होकर देवराज अर्स, बीजू पटनायक, बाबू जगजीवन राम जैसे अनेक नेताओं ने पार्टियां बनाईं। इसी के साथ लेखक कहते हैं कि 1977 के बाद जनता दल के कई क्षेत्रीय दलों में बंटने से कांग्रेस पार्टी देश भर में सिमटती गई। 1990 के बाद तो इसके हाथ से सत्ता के प्रमुख राज्य यूपी और बिहार भी निकल गए।
1991 से 2014 तक की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का बोलबाला रहा। लेखक ने इस दौरान क्षेत्रीय दलों के अति स्वार्थी और महत्वाकांक्षी होने की बात कही है। अंत में क्षेत्रीय दलों के भविष्य पर भी लेखक ने बड़ा सटीक विश्लेषण किया है। यदि राष्ट्रीय दल के रूप में बीजेपी और कांग्रेस क्षेत्रीय भावनाओं, अस्मिता और विकास को भविष्य में अपना राजनीतिक रास्ता नहीं बनाते तो एक बार फिर क्षेत्रीय दलों की आवश्यकता और उनका प्रभाव बढ़ेगा। अंतिम पृष्ठों पर पाठकों की जानकारी के लिए सभी क्षेत्रीय दलों के नाम और उनके चुनाव चिन्ह संलग्न हैं।
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