डॉ. हेडगेवार के दो उत्तराधिकारी संघ के अगले क़दम के बारे में मतभेद के धरातल पर थे, लेकिन उनमें परस्पर आदर का भाव कभी कम नहीं हुआ। वे अपने मत पर बने रहे। दूसरा कोई होता तो टकराव तय था। सरसंघचालक पद की मर्यादा और गुरुजी के प्रति अपना सम्मान रखते हुए बालासाहब ने एक अलग रास्ता निकाला। वे संघ कार्य से विमुख नहीं हुए, निष्क्रिय हो गए। अपनी सक्रियता के लिए नया क्षेत्र चुना। वे प्रयोग उन्होंने अपनी सार्थकता के लिए किए। बालासाहब खेती बाड़ी में लग गए, इसको लेकर उनके नाम पर यह मज़ाक भी चलता रहा कि बालासाहब ‘कल्चर’ के बजाय ‘एग्रीकल्चर’ में लग गए हैं। दूसरा ‘नर केसरी’ के माध्यम से पत्रकारिता को नई दिशा दी।
देवरस राजनीति को बदलाव का रास्ता मानते थे, लेकिन गोलवलकर चुनावी राजनीति से परहेज रखते थे। देवरस के काम करने का तरीक़ा था- संगठन, आंदोलन और प्रचार, उस वक़्त संघ को यह कार्यशैली मंज़ूर नहीं थी। देवरस की काम करने की अपनी परिभाषा थी, अपना तरीक़ा था। वे लक्ष्य-प्रेरित काम में भरोसा करते थे। देवरस को हमेशा ही लगता रहा कि राजनीति ना केवल सेवा का, बल्कि समाज में बदलाव का सशक्त माध्यम है। वे लगातार संघ में एक अलग से राजनीतिक संगठन शुरू करने और उसका नेतृत्व संभालने की बात करते रहे थे, जन संघ बनने से पहले भी और बाद में भी।
पहले आम चुनाव के वक़्त जब जन संघ ने चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया और देवरस इसको देख रहे थे तब गोलवलकर पूरे चुनाव के दौरान पूना के पास सिंहगढ़ चले गए और वहाँ लोकमान्य तिलक के बंगले पर 25 दिसम्बर 1951 से 18 जनवरी 1952 तक रहे।
गोलवलकर जब वहाँ आध्यात्मिक साधना में लग गए, उस वक़्त देवरस नागपुर में राष्ट्रवादी संगठनों की चुनावों में मदद और मार्गदर्शन कर रहे थे। जन संघ ने पहला चुनाव देवरस के मार्गदर्शन में ही लड़ा।
चुनावों के बाद संघ की समीक्षा बैठक गाडरवाड़ा में हुई। इस बैठक में देवरस ने अपने ढाई घंटे के भाषण में चुनाव के कामकाज की समीक्षा तो की ही, साथ ही इस बात पर ज़ोर दिया कि संघ को दूसरे क्षेत्रों में भी काम शुरू करना चाहिए। उन्होंने गोलवलकर के निर्देश पर संघ की प्राथमिकता पर लंबा भाषण दिया, लेकिन इसी बैठक के बाद देवरस संघ के कार्य से निष्क्रिय हो गए।
देवरस ने तब संघ से दूरी भले ही बना ली हो, लेकिन उन्होंने गुरुजी गोलवलकर को लेकर कभी कोई टिप्पणी नहीं की। वे अपने काम में लग गए। उस दौरान भी जब संघ के नेता और कार्यकर्ता उनके पास आते थे तो बालासाहब उन्हें कहते थे कि – ‘यह मामला मेरे और गुरुजी के बीच का है। मेरी चिंता आप लोग मत करिए।’ जब उन पर ज़्यादा दबाव पड़ने लगा तो देवरस ने साफ़ शब्दों में कह दिया, ‘जो भी हो, मैं ऐसी परिस्थिति नहीं बनने दूँगा, जिसमें दो संघ बने-एक गुरुजी का और दूसरा देवरस का। यही मुझे डॉ. हेडगेवार ने सिखाया है।’ दूसरी तरफ़ गोलवलकर कहते थे कि संघ के सूत्रधार तो बालासाहब ही हैं। संघ जैसे हमेशा ही कहता रहा है कि मतभेद रहें, लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए। यह बात गोलवलकर और देवरस पर लागू होती है, उन दोनों के बीच उस दौरान मतभेद तो रहे, लेकिन उन्हें मनभेद में नहीं बदलने दिया।
सात साल 1953 से 1960 तक बालासाहब संघ से निर्लिप्त तो रहे, लेकिन दूर नहीं रहे। वे लोगों को बताते रहे कि संघ की ताक़त जितनी दिखती है, उससे कहीं ज़्यादा है। देवेन्द्र स्वरूप जी ने मुझे बताया कि उसी दौरान नागपुर में जन संघ की कार्यसमिति थी। उसमें देवरस बिना किसी पूर्व सूचना के आए। देर तक सुनते रहे, लेकिन बोले कुछ नहीं और फिर बैठक से चले गए…
देवरस 1960 में फिर से संघ के कार्य में लौटे। बताया जाता है कि गुरुजी गोलवलकर ने एम एन काले से देवरस को संघ में लौटने का एक संदेश भिजवाया। गुरुजी का कहना था कि बालासाहब जैसे कार्यकर्ता संघ से दूर हो जाएँगे तो स्वयंसेवकों पर इसका क्या असर पड़ेगा? इसलिए उन्हें वापस लौटना चाहिए। बालासाहब ने इसका पॉजिटिव रेस्पांस दिया और कहा कि दो-तीन महीने बाद वापस लौटता हूँ।
गोलवलकर से रिश्तों में दूरी बनने के बाद भी देवरस जब भी नागपुर आते तो संघ कार्यालय में ही रुकते और कई बार उन्होंने विजयादशमी के सालाना कार्यक्रम में भी हिस्सा लिया, लेकिन इस दौरान गोलवलकर और देवरस के बीच बातचीत कभी नहीं हुई।
देवरस अपने मित्र और संघ के पुराने कार्यकर्ता तालातुले के माध्यम से संघ से जुड़े कोई सवाल लिख कर सरसंघचालक के पास भेज देते और गोलवलकर उनका जवाब तालातुले को दे देते थे। मगर गोलवलकर उन्हें वापस संघ में लाने की कोशिश अपने स्तर पर करते रहे। संघ के दो बड़े नेता भैयाजी दाणी और रानाडे, देवरस को समझाने और मनाने में लगे रहे, फिर देवरस की वापसी हुई नागपुर के कार्यवाह के तौर पर। रेशिमबाग में हेडगेवार मेमोरियल के उद्घाटन समारोह से एक दिन पहले उन्हें अप्रैल,1962 में संयुक्त प्रांत प्रचारक बनाया गया।
इसके बाद बालासाहब को सह-सरकार्यवाह बनाया गया। फिर भैयाजी दाणी के निधन के बाद वह सरकार्यवाह बने। यानी वह सात साल गोलवलकर और देवरस के बीच दूरी नहीं बना पाए। गोलवलकर ने उनकी ससम्मान वापसी की तो बालासाहब ने उस सम्मान का मान रखा। यह कोई आसान काम नहीं था। लौटने के बाद बालासाहब ने संघ में सामाजिक क्षेत्र के कार्यों में भागीदारी बढ़ाने पर ज़ोर दिया। उसके बाद ही संघ के सेवा क्षेत्र में नए संगठन शुरू हुए।
फ़रवरी 1962 में हुए तीसरे आम चुनाव में देवरस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा कहा जाता है कि आमतौर पर संघ टिकटों या उम्मीदवारों के चयन को लेकर दखल नहीं देता, लेकिन उन चुनावों में देवरस ने उम्मीदवारों की लिस्ट भी फ़ाइनल की। फिर 1963 के उप-चुनाव में देवरस ने ही दीन दयाल उपाध्याय को चुनाव मैदान में उतारने का फ़ैसला किया। हालाँकि दीन दयाल चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, लेकिन देवरस के निर्णय के बाद वे जौनपुर से चुनाव लड़े और हार का सामना करना पड़ा। यह उनका पहला चुनाव था। दीन दयाल ने अपनी डायरी में हार का कारण लिखा कि कांग्रेस ने उन्हें बाहरी उम्मीदवार बता कर चुनाव प्रचार किया। बताया जाता है कि देवरस ने तब अटल बिहारी वाजपेयी के बजाय दीन दयाल को उम्मीदवार बनाने का फ़ैसला किया था। इसको लेकर संघ में ख़ासा विवाद भी हुआ, क्योंकि वाजपेयी उस वक़्त भी ज़्यादा लोकप्रिय और बेहतर उम्मीदवार साबित हो सकते थे। इसके अलावा दीन दयाल उपाध्याय को संगठन का आदमी माना जाता था कि वे संगठन को मज़बूत करने के लिए बेहतर व्यक्ति हैं। गोलवलकर इस मत के थे कि प्रचारकों को चुनावी राजनीति के बजाय सिर्फ़ संगठन पर ध्यान देना चाहिए। इसलिए वे 1967 में भी दीन दयाल जी को जन संघ का अध्यक्ष नहीं बनाना चाहते थे।
‘संघम् शरणम् गच्छामि’ पुस्तक के अंश
प्रकाशक- एका वेस्टलैंड
लेखक- विजय त्रिवेदी
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