इसाक बैबेल रूसी यहूदी लेखक थे। स्टालिन के शासन काल में सत्ता की कोप दृष्टि उनपर पड़ी। गिरफ़्तारी और निर्वासन के दौरान मृत्यु (हत्या?) के पहले उनकी प्रताड़ना के कई ब्योरे हैं। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक संघ की अनुमति के बिना किसी लेखक का प्रकाशित होना मुमकिन न था। उसके सामने एक बार बैबेल की पेशी हुई। उनकी विचारधारा की पड़ताल करने के लिए जो पूछताछ हुई उसमें उनसे पूछा गया कि तोल्स्तोय के बारे में उनका क्या खयाल है। बैबल इस प्रश्न का आशय समझने की कोशिश कर रहे थे। क्या तोल्स्तोय के बारे में उनके विचार लेखक संघ की आधिकारिक समझ के मेल में हैं? अगर नहीं तो उसका क्या नतीजा होगा? बैबेल ने उत्तर देने के पहले यह सब कुछ सोचा। फिर उत्तर दिया: 'तोल्स्तोय संसार को लिख रहे थे।'
बैबेल ने अपनी समझ से ऐसा उत्तर दिया था जिससे लेखक संघ तोल्स्तोय के बारे में उनका रुख न ताड़ सके। लेकिन बात उन्होंने सही कही थी। प्रेमचंद के बारे में यही कहा जा सकता है: प्रेमचंद संसार को लिख रहे थे। इसीलिए वह ऐसा समंदर है जिसमें आप जितनी बार हाथ डालें या गोता लगाएँ तो आपको अपने काम का कुछ न कुछ मिल ही जाता है। किसी भी पीढ़ी का पाठक प्रेमचंद से निराश नहीं हुआ।