‘साहित्य की प्रगति’ नामक निबंध में प्रेमचन्द समाज के विकास कर्म पर विचार करते हैं। उनका प्रस्थान बिंदु साहित्य है। साहित्य जीवन का जयगान है, उसका उत्सव है। लेकिन प्रेमचंद के अनुसार सबसे पहले ‘साहित्य जीवन की आलोचना है।...’ और इस आलोचना का एक उद्देश्य है।
साहित्य जीवन की निंदा नहीं है, उसकी भर्त्सना नहीं है। लेखक जब रचता है तो कितने ही अन्याय, अत्याचार, अनाचार, अनैतिकता के बावजूद ज़िंदगी पर लानत नहीं भेजता।
सत्य की खोज
जीवन की आलोचना का एक मक़सद है। आलोचना ‘इस उद्देश्य से कि सत्य की खोज की जाय।’ यह ठीक है कि सत्य और असत्य के भेद का समाधान अब तक नहीं किया जा सका है। सत्य की अलग-अलग अवधारणा है, ‘एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य है।’
एक है प्रकृत सत्य और दूसरा है मानव सत्य। लेकिन यह मानव सत्य मानव समाज के संगठन से प्रभावित है। यह मानव संगठन जिस एक वस्तु से सबसे अधिक प्रभावित और संचालित है, वह है संपत्ति। निजी संपत्ति।
'पहले दस-पाँच भेड़ बकरियाँ और थोड़ा-सा नाज ही संपत्ति थी। फिर स्थावर संपत्ति का आविर्भाव हुआ और चूँकि मनुष्य ने इस संपत्ति के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ की थीं, बड़े बड़े कष्ट उठाए थे, वह उसकी नज़र में सबसे बहुमूल्य वस्तु थी। उसकी रक्षा के लिए वह अपनी और अपने पुत्रों के प्राणों की बाजी लगा सकता था। विवाह प्रथा को ऐसा रूप दिया गया कि संपत्ति घर से बाहर न जाने पाये। और उस धुँधले इतिहास से आज तक का मानव-इतिहास केवल संपत्ति-रक्षा का इतिहास है।' आप उतने ही सभ्य, सुसंस्कृत माने जाते हैं जितने संपत्तिशाली हैं। संपत्ति आपके अवगुणों को ढँक लेती है। आपमें जो क्षमताएँ नहीं हैं, आप पैसे के बल पर हासिल कर सकते हैं। पैसा हो तो आप दुनिया भर एक कलावंतों की महफ़िल सजा कर गुणी और गुणग्राहक साबित होंगे, महँगी से महँगी कलाकृतियाँ अपनी दीवारों पर सजा कर कला मर्मज्ञ का ओहदा हासिल कर लेंगे। स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, श्रवण, सारी ऐंद्रिक क्षमताएँ इस संपत्ति के अधीन हैं। वह आपको पशु से मनुष्य बनाती है।
प्रेमचंद लेकिन इसे न तो कुदरती मानते हैं और न स्वाभाविक और उचित। संपत्ति की केंद्रीयता के कारण समाज-संगठन दूषित हो जाता है और हर प्रकार के दुर्गुण समाज को जकड़ लेते हैं।
आलस्य, उदासीनता, निराशा, बेईमानी इन सबके मूल में यह रिश्ता है: एक है जो संपत्ति का मालिक है और एक जो उसपर उसका प्रभुत्व बनाए रखने के लिए अपना श्रम उसी में लगाने को बाध्य है। इस श्रम से संपत्ति की वह देह मुटाती जाती है। यह भी कह सकते हैं कि किसी और के पसीने से किसी दूसरे के चेहरे पर निखार आता है।
दूषित समाज-संगठन
कौन पशु है और कौन मनुष्य? प्रेमचंद फिर अपने उसी सरल अंदाज में एक कहानी लिखते हैं, ‘पशु से मनुष्य’ यह सरलता काफी धोखेबाज है क्योंकि प्रेमचंद में प्रायः जटिलता की खोज करके लोग निराश हो जाते हैं। लेकिन जैसे प्रेमचंद के तरह का एक वाक्य लिखने में दांतों तले पसीना आ जाएगा वैसे ही अत्यंत जटिल प्रश्नों को बहुत सादगी से, साधारण ढंग से सुलझा देना भी प्रेमचंद के बस की ही बात है। कहानी के आरंभ में ही दुर्गा माली के वेतन, उसके परिवार के आकार और उसके जीवन की कठिनाई के बारे में बिना अतिरेक के सूचना दी गई है:
'दुर्गा माली डॉक्टर मेहरा, बार-ऐट ला, के यहाँ नौकर था। पाँच रुपये मासिक वेतन पाता था। उसके घर में स्त्री और दो-तीन छोटे बच्चे थे। स्त्री पड़ोसियों के लिए गेहूँ पीसा करती थी। दो बच्चे, जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, गेहूँ, उपले चुन लाते थे। किंतु इतना यत्न करने पर भी वे बहुत तकलीफ़ में रहते थे।' ‘दो बच्चे, जो समझदार थे।..’ यह वाक्यांश कितनी खामोशी से अपनी जगह बनाता है पूरे वाक्य में और कितना स्वाभाविक लगता है। प्रेमचंद जैसे पाठक को चुनौती देते हैं, क्या तुम इस जगह अटक जाते हो, या इस पर तुम्हारा ध्यान नहीं जाता? बहुत बाद में ये ही समझदार बच्चे रघुवीर सहाय की कविता में लौटते हैं जिसमें दयाशंकर और उसकी बीवी को पुआ खाने का मन करता है लेकिन सारे बच्चों और उनके लिए इतना है नहीं कि सब पुआ खा सकें। जब वे चोरी चोरी, बच्चों के सोते समय पुआ बना कर खाते हैं तो बच्चे अचानक उठ पड़ते हैं, मुसकाते हैं, फिर सो जाते हैं!
दुर्गा माली के बारे में शायद आपकी राय अच्छी न बने क्योंकि
'दुर्गा, डॉक्टर साहब की नज़र बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाज़ार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था। कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता। यही उसकी ऊपरी आमदनी थी। इससे नोन-तेल आदि का काम चल जाता था।'
क्या दुर्गा माली बेईमान है, चोर है? ‘यही उसकी ऊपरी आमदनी थी’ में व्यंग्य है। ‘नमक का दारोगा’ कहानी में मुंशी वंशीधर को उनके पिता ऊपरी वेतन की महिमा समझाते हैं, उसकी याद क्या इस समय आनी चाहिए?
'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।' क्या दुर्गा माली की ऊपरी कमाई वही है जिसका गुण यहाँ गाया गया है?
दूषित समाज-संगठन एक साजिश है उनकी जो संपत्ति कैसे बँटे, इसका निर्धारण करते हैं। वह उनके बीच समझौता भी है, उस ग़ैरबराबरी को बनाए रखने का जो स्वाभाविक जान पड़ती है।
इसके लिए किसी बाहरी क्रूरता की ज़रूरत नहीं। वह कुचले गए व्यक्ति को निरुपाय करके जैसे उसी परिस्थिति को स्वीकार कर लेने को बाध्य कर देती है।
'उसने कई बार डॉक्टर महोदय से वेतन बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, परंतु डॉक्टर साहब नौकर की वेतन-वृद्धि को छूत की बीमारी समझते थे, जो एक से अनेक को ग्रस लेती है। वे साफ कह दिया करते कि, 'भाई मैं तुम्हें बाँधे तो हूँ नहीं। तुम्हारा निर्वाह यहाँ नहीं होता; तो और कहीं चले जाओ मेरे लिए मालियों का अकाल नहीं है।' दुर्गा में इतना साहस न था कि वह लगी हुई रोज़ी छोड़ कर नौकरी ढूँढ़ने निकलता। इससे अधिक वेतन पाने की आशा भी नहीं। इसलिए वह इसी निराशा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने भाग्य को रोता था।'
श्रम की मिल्कियत किसकी?
डॉक्टर साहब प्रकृति प्रेमी हैं। मेहमाननवाज भी।
'डॉक्टर महोदय को बागबानी से विशेष प्रेम था। नाना प्रकार के फूल-पत्ते लगा रखे थे। अच्छे-अच्छे फलों के पौधे दरभंगा, मलीहाबाद, सहारनपुर आदि स्थानों से मँगवा कर लगाये थे। वृक्षों को फलों से लदे हुए देख कर उन्हें हार्दिक आनंद होता था। अपने मित्रों के यहाँ गुलदस्ते और शाक-भाजी की डालियाँ तोहफे के तौर पर भिजवाते रहते थे। उन्हें फलों को आप खाने का शौक न था, पर मित्रों को खिलाने में उन्हें असीम आनंद प्राप्त होता था। प्रत्येक फल के मौसम में मित्रों की दावत करते, और ‘पिकनिक पार्टियाँ’ उनके मनोरंजन का प्रधान अंग थीं।'
यह बागवानी जिसके बल पर है उसके और डॉक्टर साहब के रिश्ते को हमेशा याद रखिए और डॉक्टर साहब की रसज्ञता पर विचार कीजिए।
'एक बार गर्मियों में उन्होंने अपने कई मित्रों को आम खाने की दावत दी। मलीहाबादी में सुफेदे के फल खूब लगे हुए थे। डॉक्टर साहब इन फलों को प्रतिदिन देखा करते थे। ये पहले ही फले थे, इसलिए वे मित्रों से उनके मिठास और स्वाद का बखान सुनना चाहते थे। इस विचार से उन्हें वही आमोद था, जो किसी पहलवान को अपने पट्ठों के करतब दिखाने से होता है। इतने बड़े सुन्दर और सुकोमल सुफेदे स्वयं उनकी निगाह से न गुजरे थे।'
फल का बखान सुनने में वही ‘वही आमोद था, जो किसी पहलवान को अपने पट्ठों के करतब दिखाने से होता है। लेकिन पहलवन तो फिर भी पट्ठे तैयार करता है, इन फलों के रंग और स्वाद में योगदान दुर्गा के श्रम का है। उसकी मिल्कियत लेकिन डॉक्टर साहब की है।
'...जब सब सज्जन जमा हो गये तब उन्होंने कहा आपलोगों को कष्ट होगा, पर जरा चलकर फलों को पेड़ में लटके हुए देखिए। बड़ा ही मनोहर दृश्य है। गुलाब में भी ऐसी लोचनप्रिय लाली न होगी। रंग से स्वाद टपक पड़ता है। मैंने इसकी कलम खास मलीहाबाद से मँगवायी थी और उसका विशेष रीति से पालन किया है।' फल पेड़ पर नहीं हैं।
'...इसमें सन्देह नहीं कि वृक्ष यही है, पर फल क्या हुए? बीस-पच्चीस आम थे, एक का भी पता नहीं ! मित्रों की ओर अपराधपूर्ण नेत्रों से देख कर बोले आश्चर्य है कि इस पेड़ में एक भी फल नहीं है।'
उनका संदेह माली पर है।
'यह अवश्य माली की शरारत है। मैं आज उसकी हड्डियाँ तोड़ दूँगा। उस पाजी ने मुझे कितना धोखा दिया!'
चोरी से जितना दुख है उससे अधिक मित्रों की प्रशंसा से वंचित रह जाने से है। वे और उनके मित्र एक जाति के हैं। दुर्गा माली अलग जाति का। दोनों के जातिगत गुण भी अलग ही हैं।
'मित्रों ने सांत्वना देते हुए कहा नौकरों का सब जगह यही हाल है। यह जाति ही पाजी होती है। आप हम लोगों के कष्ट का खेद न करें।' दावत बेरंग और बेस्वाद हो जाती है। मित्र विदा होते हैं और डॉक्टर साहब ‘चोर’ दुर्गा माली की बाट जोह रहे हैं कि उसे सबक सिखला सकें।
'कुछ रात गये दुर्गा बाज़ार से लौटा। वह चौकन्नी आँखों से इधर-उधर देख रहा था। ज्यों ही उसने डॉक्टर साहब को हौज के किनारे हाथ में हंटर लिये बैठे देखा, उसके होश उड़ गये। समझ गया कि चोरी पकड़ ली गयी। इसी भय से उसने बाज़ार में खूब देर की थी। उसने समझा था, डॉक्टर साहब कहीं सैर करने गये होंगे, मैं चुपके कटहल के नीचे अपनी झोंपड़ी में जा बैठूँगा, सबेरे कुछ पूछताछ भी हुई तो मुझे सफाई देने का अवसर मिल जायगा। कह दूँगा, सरकार, मेरे झोपड़े की तलाशी ले लें, इस प्रकार मामला दब जायगा। समय सफल चोर का सबसे बड़ा मित्र है। एक-एक क्षण उसे निर्दोष सिद्ध करता जाता है। किन्तु जब वह रँगे हाथों पकड़ा जाता है तब उसे बच निकलने की कोई राह नहीं रहती। रुधिर के सूखे हुए धब्बे रंग के दाग बन सकते हैं, पर ताजा लोहू आप ही आप पुकारता है। दुर्गा के पैर थम गये, छाती धड़कने लगी। डॉक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ गयी थी। अब उलटे पाँव लौटना व्यर्थ था।' दुर्गा ने चोरी की है और डरा हुआ है। प्रेमचन्द क्यों प्रेमचंद हैं और क्यों शिवपूजन सहाय उनका उपन्यास पढ़ते हुए भूल ही गए कि उनका काम भाषा संपादन का है, वे जुबां का मज़ा लूटते हुए पन्ने पलटते ही चले गए, यह इन पंक्तियों से मालूम होता है,
'समय सफल चोर का सबसे बड़ा मित्र है। एक-एक क्षण उसे निर्दोष सिद्ध करता जाता है। किन्तु जब वह रँगे हाथों पकड़ा जाता है तब उसे बच निकलने की कोई राह नहीं रहती। रुधिर के सूखे हुए धब्बे रंग के दाग बन सकते हैं, पर ताजा लोहू आप ही आप पुकारता है।'
आखिर दोनों का आमना-सामना होता है।
इस दृश्य में भी प्रेमचंद डॉक्टर साहब पर चुटकी लेना नहीं भूलते:
'डॉक्टर साहब उसे दूर से देखते ही उठे कि चल कर उसकी खूब मरम्मत करूँ। लेकिन वकील थे, विचार किया कि इसका बयान लेना आवश्यक है।'
दुर्गा अपराध से इनकार करता है। इसका कारण क्या है? आगे पढ़िए और समझिए कि क्यों प्रेमचंद की जगह साहित्य में क्यों कोई ले नहीं सकता:
'चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है। वह दंड से उतना नहीं डरता जितना अपमान से। जब उसे सजा से बचने की कोई आशा नहीं रहती, उस समय भी वह अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता। वह अपराधी बन कर छूट जाने से निर्दोष बन कर दंड भोगना बेहतर समझता है।'
‘दुर्बल हृदय’
डॉक्टर पुराना टोटका करके सच का पता करना चाहते हैं। वह कारगर है क्योंकि दुर्गा जैसे लोगों में धर्म भावना शेष है। डॉक्टर कड़ा इम्तहान ले रहे हैं,
'तुम पहले लोटे में पानी लाओ, उसमें तुलसी की पत्तियाँ डालो, तब कसम खा कर कहो कि अगर मैंने तोड़े हों तो मेरा लड़का मेरे काम न आये। तब मुझे विश्वास आवेगा।'
'यद्यपि दुर्गा जबान से हेकड़ी की बातें कर रहा था, पर उसके हृदय में भय समाया हुआ था। वह अपने झोपड़े में आया, लेकिन लोटे में पानी लेकर जाने की हिम्मत न हुई। उसके हाथ थरथराने लगे। ऐसी घटनाएँ याद आ गयीं जिनमें झूठी गंगा उठानेवाले पर दैवी कोप का प्रहार हुआ था। ईश्वर के सर्वज्ञ होने का ऐसा मर्मस्पर्शी विश्वास उसे कभी नहीं हुआ था। उसने निश्चय किया, ‘मैं झूठी गंगा न उठाऊँगा, यही न होगा, निकाल दिया जाऊँगा। नौकरी फिर कहीं न कहीं मिल जायगी और नौकरी भी न मिले तो मजूरी तो कहीं नहीं गयी है। कुदाल भी चलाऊँगा तो साँझ तक आध सेर आटे का ठिकाना हो जायगा।’ वह धीरे-धीरे खाली हाथ डॉक्टर साहब के सामने आ कर खड़ा हो गया !'
‘ईश्वर के सर्वज्ञ होने का मर्मस्पर्शी विश्वास’ अलग से जगमगाता है। झूठी गवाहियों के बल पर टिके पेशे के मालिक के सामने उनका नौकर झूठी गंगा नहीं उठा पाता। दुर्गा का जुर्म साबित हो जाता है। उसकी नौकरी जाती रहती है क्योंकि वह ‘दुर्बल हृदय’ पाया जाता है। वह सचमुच दुर्बल हृदय है, वरना गंगा न उठा लेता!
मेहरा साहब कुछ वक्त के बाद अपने मित्र बाबू प्रेमशंकर से मिलने जाते हैं। दोनों बागवानी के प्रेमी हैं। उनके मित्र ज़रा झक्की माने जाते हैं क्योंकि
'मानव-चरित्र और वर्तमान सामाजिक संगठन के विषय में उनके विचार विचित्र थे। इसीलिए शहर के सभ्य समाज में लोग उनकी उपेक्षा करते थे और उन्हें झक्की समझते थे। इसमें संदेह नहीं कि उनके सिद्धान्तों से लोगों को एक प्रकार की दार्शनिक सहानुभूति थी, पर उनके क्रियात्मक होने के विषय में उन्हें बड़ी शंका थी। संसार कर्मक्षेत्र है, मीमांसा क्षेत्र नहीं। यहाँ सिद्धांत सिद्धांत ही रहेंगे, उनका प्रत्यक्ष घटनाओं से सम्बन्ध नहीं।'
सभ्य समाज में इतने सुशिक्षित और सुसंस्कृत व्यक्ति को क्यों अपना नहीं माना जाता? बहरहाल! उनके बाग़ में मेहरा साहब का सामना दुर्गा माली से हो जाता है।
'डॉक्टर साहब बगीचे में पहुँचे तो उन्होंने प्रेमशंकर को क्यारियों में पानी देते हुए पाया। कुएँ पर एक मनुष्य खड़ा पम्प से पानी निकाल रहा था। मेहरा ने उसे तुरंत ही पहचान लिया। वह दुर्गा माली था। डॉक्टर साहब के मन में उस समय दुर्गा के प्रति एक विचित्र ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ। जिस नराधम को उन्होंने दंड दे कर अपने यहाँ से अलग कर दिया था, उसे नौकरी क्यों मिल गयी ? यदि दुर्गा इस वक्त फटेहाल रोनी सूरत बनाये दिखायी देता तो डॉक्टर साहब को उस पर दया आ जाती। वे सम्भवतः उसे कुछ इनाम देते और प्रेमशंकर से उसकी प्रशंसा भी कर देते। उनकी प्रकृति में दया थी और अपने नौकरों पर उनकी कृपादृष्टि रहती थी। परंतु उनकी इस कृपा और दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुत्तों और घोड़ों से थी। इस कृपा का आधार न्याय नहीं, दीन-पालन है।' मेहरा साहब की ईर्ष्या पर ध्यान दीजिए। फिर दया, न्याय और दीन-पालन के संबंध का विवेचन भी गुनिए। अगला दृश्य और भी मारक है।
'दुर्गा ने उन्हें देखा, कुएँ पर खड़े-खड़े सलाम किया और फिर अपने काम में लग गया। उसका यह अभिमान डॉक्टर साहब के हृदय में भाले की भाँति चुभ गया। उन्हें यह विचार कर अत्यंत क्रोध आया कि मेरे यहाँ से निकलना इसके लिए हितकर हो गया। उन्हें अपनी सहृदयता पर जो घमंड था, उसे बड़ा आघात लगा।'
नौकर सर उठाकर रहे! फिर समाज का क्या हो?
यूटोपिया
मेहरा साहब दुर्गा का इत्मीनान देखकर खुद को रोक नहीं पाते। वे दुर्गा की बुराई करते हैं जिससे बाबू प्रेमशंकर के मन में उसे लेकर संदेह पैदा हो। लेकिन वे विचलित नहीं होते। उनके यहाँ का दुर्गा भिन्न है। क्योंकि उनकी जीवन व्यवस्था अलग है:
'यहाँ किसी को वेतन नहीं दिया जाता। सब लोग लाभ में बराबर के साझेदार हैं। महीने भर में आवश्यक व्यय के पश्चात् जो कुछ बचता है, उनमें से 10 रु प्रति सैकड़ा धर्मखाते में डाल दिया जाता है, शेष रुपये समान भागों में बाँट दिये जाते हैं।' बाबू प्रेमशंकर ने वह रिश्ता बदल दिया है जो स्वाभाविक माना जाता है:
'मैं इन्हीं आदमियों के-से कपड़े पहनता हूँ, इन्हीं का-सा खाना खाता हूँ और मुझे कोई दूसरा व्यसन नहीं है। ... यह सायकिल जो आप देखते हैं संयुक्त आय से ही ली गयी है। जिसे ज़रूरत होती है इस पर सवार होता है। मुझे ये सब अधिक कार्यकुशल समझते हैं और मुझ पर पूरा विश्वास रखते हैं। बस मैं इनका मुखिया हूँ। जो कुछ सलाह देता हूँ, उसे सब मानते हैं। कोई भी यह नहीं समझता कि मैं किसी का नौकर हूँ। सब-के-सब अपने को साझेदार समझते हैं और जी तोड़ कर मिहनत करते हैं'
यह यूटोपिया है लेकिन क्या यह संभव है? द्वेष, चोरी , कामचोरी क्यों?
'जहाँ कोई मालिक होता है और दूसरा उनका नौकर तो उन दोनों में तुरंत द्वेष पैदा हो जाता है। मालिक चाहता है कि इससे जितना काम लेते बने, लेना चाहिए। नौकर चाहता है कि मैं कम से कम काम करूँ, उसमें स्नेह या सहानुभूति का नाम तक नहीं होता। दोनों यथार्थ में एक दूसरे के शत्रु होते हैं। इस प्रतिद्वंद्विता का दुष्परिणाम हम और आप देख ही रहे हैं। मोटे और पतले आदमियों के पृथक्-पृथक् दल बन गए हैं और उनमें घोर संग्राम हो रहा है। काल-चिह्नों से ज्ञात होता है कि यह प्रतिद्वंद्विता अब कुछ ही दिनों की मेहमान है। इसकी जगह अब सहकारिता का आगमन होने वाला है। मैंने अन्य देशों में इस घातक संग्राम के दृश्य देखे हैं और मुझे घृणा हो गयी है। सहकारिता ही हमें इस संकट से मुक्त कर सकती है।' क्या प्रेमशंकर बाबू समाजवादी हैं या डेमोक्रैट?
'मैं केवल न्याय और धर्म का दीन सेवक हूँ। मैं निःस्वार्थ सेवा को विद्या से श्रेष्ठ समझता हूँ। मैं अपनी आत्मिक और मानसिक शक्तियों को, बुद्धि-सामर्थ्य को, धन और वैभव का ग़ुलाम नहीं बनाना चाहता।'
जिस शिक्षा, विद्या और ज्ञान को सभ्यता का आधार माना जाता है, वे सब स्वार्थ, आत्मोत्थान के साधन मात्र हैं।
'मुझे वर्तमान शिक्षा और सभ्यता पर विश्वास नहीं। विद्या का धर्म है आत्मिक उन्नति का फल, उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायप्रियता और दयाशीलता। जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का ग़ुलाम बनाये, जो हमें भोग-विलास में डुबाये, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाये, वह शिक्षा नहीं है। अगर मूर्ख लोभ और मोह के पंजे में फँस जायँ तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थान्धता अत्यंत लज्जाजनक है। हमने विद्या और बुद्धि-बल की विभूति के शिखर पर चढ़ने का मार्ग बना लिया। वास्तव में वह सेवा और प्रेम का साधन था। कितनी विचित्र दशा है कि जो जितना ही बड़ा विद्वान् है, वह उतना ही बड़ा स्वार्थसेवी है। बस, हमारी सारी विद्या और बुद्धि, हमारा सारा उत्साह और अनुराग, धनलिप्सा में ग्रसित है।'
इसके बाद का हिस्सा अधिक मनन योग्य है:
‘समय धन है’ इसी वाक्य को हम ईश्वर-वाक्य समझ रहे हैं। इन महान् पुरुषों में से प्रत्येक व्यक्ति सैकड़ों नहीं हजारों-लाखों की जीविका हड़प जाते हैं। और फिर भी उनका जाति का भक्त बनने का दावा है। वह अपने स्वजाति-प्रेम का डंका बजाता फिरता है।'
‘स्वजाति प्रेम’का डंका कौन बजाता है और कौन बजा सकता है?
आगे डॉक्टर साहब और बाबू प्रेमशंकर का वाद विवाद है। जैसे आप एक साथ मार्क्स, गाँधी और इमर्सन को पढ़ रहे हों।
नमक सत्याग्रह के पहले गाँधी ने वायसरॉय को जो ख़त लिखा था उसमें आय की भीषण असमानता की तीखी आलोचना की थी;
'और यदि एक मजूर 5 रुपया में अपना निर्वाह कर सकता है, तो एक मानसिक काम करने वाले प्राणी के लिए इससे दुगुनी-तिगुनी आय काफी होनी चाहिए और वह अधिकता इसलिए कि उसे कुछ उत्तम भोजन-वस्त्र तथा सुख की आवश्यकता होती है। मगर पाँच और पाँच हजार, पचास और पचास हजार का अस्वाभाविक अंतर क्यों हो ? इतना नहीं, हमारा समाज पाँच और पाँच लाख के अंतर का भी तिरस्कार नहीं करता; वरन् उसकी और भी प्रशंसा करता है। शासन-प्रबंध, वकालत, चिकित्सा, चित्र-रचना, शिक्षा, दलाली, व्यापार, संगीत और इसी प्रकार की सैकड़ों अन्य कलाएँ शिक्षित समुदाय की जीवन-वृत्ति बनी हुई हैं। पर इनमें से एक भी धनोपार्जन नहीं करतीं। इनका आधार दूसरों की कमाई पर है। किसान भूमि जोतेंगे, जुलाहे कपड़े बुनेंगे, बढ़ई, लोहार, राज, चर्मकार, सब-के-सब पूर्ववत् अपना-अपना काम करते रहेंगे। उनकी पंचायतें उनके झगड़ों का निबटारा करेंगी। लेकिन यदि किसान न हों तो सारा संसार क्षुधा-पीड़ा से व्याकुल हो जाय। परन्तु किसान के लिए 5 रु. बहुत समझा जाता है और वकील साहब या डॉक्टर साहब को पाँच हजार भी काफी नहीं।' गर्व भाव का अर्जन
शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति में अनैतिकता अन्तर्निहित है:
'जिसे परमात्मा ने विचार की शक्ति दी है, वह शास्त्रों की विवेचना करे। जो भावुक हो, वह काव्य की रचना करे। जो अन्याय से घृणा करता हो वह वकालत करे। मेरा कथन यह है कि विभिन्न कार्यों की हैसियत में इतना अंतर न रहना चाहिए। मानसिक और औद्योगिक कामों में इतना फर्क न्याय के विरुद्ध है। यह प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल ज्ञात होता है कि आवश्यक और अनिवार्य कार्यों पर अनावश्यक और निवार्य कार्यों की प्रधानता हो। कतिपय सज्जनों का मत है कि इस साम्य से गुणी लोगों का अनादर होगा और संसार को उनके सद्विचारों और सत्कार्यों से लाभ न पहुँच सकेगा। किंतु वे भूल जाते हैं कि संसार के बड़े-से-बड़े पंडित, बड़े-से-बड़े कवि, बड़े-से-बड़े आविष्कारक, बड़े-से-बड़े शिक्षक धन और प्रभुता के लोभ से मुक्त थे।' वकालत वह करे जो अन्याय से घृणा करता हो! प्रेमचंद पागल हो गए हैं!
इसके बाद का दृश्य:
'यही बातें हो रही थीं कि दुर्गा माली एक डाली नारंगियाँ, गोभी के फूल, अमरूद, मटर की फलियाँ आदि सजा कर लाया और उसे डॉक्टर साहब के सामने रख दिया। उसके चेहरे पर एक प्रकार का गर्व था, मानो उसकी आत्मा जागरित हो गई है। वह डॉक्टर साहब के समीप एक मोटे मोढ़े पर बैठ गया और बोला हुजूर को कैसी कलमें चाहिए ? आप बाबू जी को एक चिट पर उनके नाम लिख कर दे दीजिए। मैं कल आपके मकान पहुँचा दूँगा। आपके बाल-बच्चे तो अच्छी तरह हैं?
डॉक्टर साहब ने कुछ सकुचा कर कहा हाँ, लड़के अच्छी तरह हैं, तुम यहाँ अच्छी तरह हो ?'
दुर्गा का नव अर्जित गर्व भाव और उसके आगे डॉक्टर मेहरा की झेंप!!
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