‘साहित्य की प्रगति’ नामक निबंध में प्रेमचन्द समाज के विकास कर्म पर विचार करते हैं। उनका प्रस्थान बिंदु साहित्य है। साहित्य जीवन का जयगान है, उसका उत्सव है। लेकिन प्रेमचंद के अनुसार सबसे पहले ‘साहित्य जीवन की आलोचना है।...’ और इस आलोचना का एक उद्देश्य है।