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लीजिए, हमारी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था और आर्थिक विकास के तमाम दावों की खिल्ली उड़ाने और आईना दिखाने वाली एक और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट आ गई। संयुक्त राष्ट्र की 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2021’ बता रही है कि खुशमिजाजी के मामले में भारत का मुकाम दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान समेत तमाम छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्ध से त्रस्त फ़लस्तीन से भी पीछे है।
हमारे देश में पिछले तीन दशक से यानी जब से नव उदारीकृत आर्थिक नीतियाँ लागू हुई हैं, तब से सरकारों की ओर से आए दिन आँकडों के सहारे देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तसवीर पेश की जा रही है। आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले सर्वे भी अक्सर बताते रहते हैं कि भारत तेज़ी से आर्थिक विकास कर रहा है और देश में अरबपतियों की संख्या में भी इज़फ़ा हो रहा है। इन सबके आधार पर तो तसवीर यही बनती है कि भारत के लोगों की खुशहाली लगातार बढ रही है। लेकिन हक़ीक़त यह नहीं है।
हाल ही में जारी 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2021’ में भारत को 149 देशों में से 139वाँ स्थान मिला है। पिछले वर्ष 156 देशों में भारत 144वें पायदान पर था। उससे पहले यानी 2019 में 140वें, 2018 में 133वें और 2017 में 122वें पायदान पर था।
इस बार सर्वे में शामिल देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। यानी इन देशों के नागरिक भी भारतीयों के मुक़ाबले ज़्यादा खुश हैं।
'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान 'सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ (एसडीएसएन) हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके जारी करता है। इसमें अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, दीर्घ जीवन की प्रत्याशा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, उदारता आदि पैमानों पर दुनिया के सारे देशों के नागरिकों के इस अहसास को नापती है कि वे कितने खुश हैं।
इस साल जो 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ जारी हुई है, उसके मुताबिक़, भारत उन चंद देशों में से है, जो नीचे की तरफ खिसके है। हालाँकि भारत की यह स्थिति खुद में चौंकाने वाली नहीं है।
यह गुत्थी कम दिलचस्प नहीं है कि 105वें स्थान पर पाकिस्तान, 84वें स्थान पर चीन, और 101वें स्थान पर बांग्लादेश जैसे देश इस रिपोर्ट में आखिर हमसे ऊपर क्यों हैं, जिन्हें हम स्थायी तौर पर आपदाग्रस्त देशों में ही गिनते हैं।
हमारे अन्य पड़ोसी देश श्रीलंका, म्याँमार और भूटान भी हमसे ज्यादा खुशहाल हैं। सार्क देशों में सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान ही खुशमिजाजी के मामले में भारत से पीछे है।
खुशहाल देशों के साथ ही सर्वाधिक नाखुश देशों की सूची भी जारी हुई है, जिसमें अफ़ग़ानिस्तान शीर्ष पर है और भारत चौथे नंबर पर। दिलचस्प बात है कि आठ साल पहले यानी 2013 की रिपोर्ट में भारत 111वें नंबर पर था। तब से अब तक हमारे शेयर बाजार तो लगभग लगातार बढत पर ही रहे हैं। फिर भी इस दौरान हमारी खुशी का स्तर नीचे खिसक आने की वजह क्या हो सकती है?
दरअसल, यह रिपोर्ट इस हक़ीक़त को भी साफ तौर पर रेखांकित करती है कि केवल आर्थिक समृद्धि ही किसी समाज में खुशहाली नहीं ला सकती। इसीलिए आर्थिक समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त अरब अमीरात भी दुनिया के सबसे खुशहाल 10 देशों में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं।
अगर इस रिपोर्ट को तैयार करने के तरीकों और पैमानों पर सवाल खड़े किए जाएं, तब भी कुछ सोचने का मसाला तो इस रिपोर्ट से मिलता ही है। किसी भी देश की तरक्की को मापने का सबसे प्रचलित पैमाना जीडीपी या विकास दर है। लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठते रहे है।
एक तो यह कि जीडीपी किसी देश की कुल अर्थव्यवस्था की गति को तो सूचित करती है, पर इससे यह पता नहीं चलता कि आम लोगों तक उसका लाभ पहुँच रहा है या नहीं। दूसरे, जीडीपी का पैमाना केवल उत्पादन-वृद्धि के लिहाज से ही किसी देश की तसवीर पेश करता है।
ताज़ा हैपिनेस रिपोर्ट में फ़िनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल मुल्क है। वह लगातार चौथे साल शीर्ष पर बना हुआ है। उससे पहले वह पाँचवें स्थान पर था, लेकिन एक साल में ही वह पाँचवें से पहले स्थान पर आ गया। फ़िनलैंड को दुनिया में सबसे स्थिर, सबसे सुरक्षित और सबसे सुशासन वाले देश का दर्ज़ा दिया गया है।
वह कम से कम भ्रष्ट है और सामाजिक तौर पर प्रगतिशील है। उसकी पुलिस दुनिया मे सबसे ज्यादा साफ-सुथरी और भरोसेमंद है। वहां हर नागरिक को मुफ्त इलाज की सुविधा प्राप्त है, जो देश के लोगों की खुशहाली की बडी वजह है।
वर्ष 2021 की रिपोर्ट में सबसे खुशहाल मुल्कों में फ़िनलैंड के बाद क्रमश: डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, लक्समबर्ग, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रिया हैं। इन सभी देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज़्यादा है। यानी भौतिक समृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और व्यक्ति की प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है। इन देशों में भ्रष्टाचार भी कम है और सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा काफी है। लोगों पर आर्थिक सुरक्षा का दबाव कम है, इसलिए जीवन के फ़ैसले करने की आज़ादी भी ज़्यादा है।
भारत की स्थिति इन सभी पैमानों पर बहुत अच्छी नहीं है। फिर भी हम पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान से भी बदतर स्थिति में है, यह बात हैरान करने वाली है।
लेकिन इस हक़ीक़त की वजह शायद यह है कि भारत में विकल्प तो बहुतायत में हैं, लेकिन सभी लोगों की उन तक पहुँच नहीं है, जिसकी वजह से लोगो में असंतोष है। इस स्थिति के बरक्स कई देशों में जो सीमित विकल्प उपलब्ध हैं, उनके बारे में भी लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है, इसलिए वे अपने सीमित दायरे में ही खुश और संतुष्ट हैं।
फिर भारत में तो जितनी आर्थिक असमानता है, वह भी लोगों में असंतोष या मायूसी पैदा करती है। मसलन, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च ज्यादा होता है, पर स्वास्थ्य के मानकों के आधार पर पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
दरअसल किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है, जब वह नागरिकों के स्तर पर हो।
भारत और चीन का जोर अपने आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर रहता है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ में 84वें स्थान पर है।
अमेरिका सबसे अधिक उन्नत देश है, लेकिन डोनल्ड ट्रंप की 'कृपा’ से वह अब कई पायदान नीचे है।
ताजा 'हैपिनेस रिपोर्ट’ में बताई गई भारत की स्थिति चौंकाती भी है और चिंतित भी करती है। चौंकाती इसलिए है कि हम भारतीयों का जीवन दर्शन रहा है- 'संतोषी सदा सुखी।' हालात के मुताबिक़ खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है।
दुनिया में भारत ही संभवत: एकमात्र ऐसा देश है जहाँ आए दिन कोई न कोई तीज-त्योहार-व्रत और धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव मनते रहते हैं, जिनमें मगन रहते हुए ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी अपने सारे अभाव और दुख-दर्द को अपना प्रारब्ध मानकर खुश रहने की कोशिश करता है।
इसी भारत भूमि से वर्धमान महावीर ने अपरिग्रह का संदेश दिया है और इसी धरती पर बाबा कबीर भी हुए हैं, जिन्होंने इतना ही चाहा है जिससे कि उनकी और उनके परिवार की दैनिक जरुरतें पूरी हो जाए और दरवाजे पर आने वाला कोई साधु-फकीर भी भूखा न रह सके।
दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में यदि तेजी से बदलाव आ रहा है और लोगों की खुशी का स्तर गिर रहा है तो इसकी वजहें सामाजिक मूल्यों में बदलाव, भोगवादी जीवन शैली अपनाने और सादगी के परित्याग से जुड़ी हैं।
आश्चर्य की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक खुशहाल दिखते हैं जो अभावग्रस्त हैं। हालांकि अब ऐसे लोगों की तादाद में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका यकीन 'साई इतना दीजिए...’ के उदात्त कबीर दर्शन के बजाय 'ये दिल मांगे मोर’ के वाचाल स्लोगन में है। यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो, कोई खास हर्ज नहीं था।
लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे सामूहिक अथवा राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे है। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने 'ऋणं कृत्वा, घृतं पीवेत' की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछा कर अपने खजाने खोल रखे हैं।
भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल 'पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है' के अमूर्त दर्शन पर आधारित नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण से प्रेरित बाज़ारवाद के आगमन के बाद समाज में बचपन से अच्छे नंबर लाने, कॅरिअर बनाने, पैसे कमाने और सुविधाएं-संसाधन जुटाने की एक होड़ सी शुरू हो गई है।
इसमें जो पिछड़ता है वह निराशा और अवसाद का शिकार हो जाता है, लेकिन जो सफल होता है वह भी अपनी मानसिक शांति गंवा बैठता है। एकल और डिजाइनर परिवारों के चलन ने लोगों को बडे-बुजुर्गों के सानिध्य की उस शीतल छाया से भी वंचित कर दिया है जो अपने अनुभव की रोशनी से यह बता सकती थी कि जिंदगी का मतलब सिर्फ 'सफल’ होना नहीं, बल्कि समभाव से उसे जीना है।
जाहिर है, इसी का दुष्प्रभाव बढ़ती आत्महत्याओं, नशाखोरी, घरेलू कलह, रोडरेज और अन्य आपराधिक घटनाओं में बढोतरी के रूप में दिख रहा है। कुल मिलाकर संयुक्त राष्ट्र की ताजा 'हैपिनेस रिपोर्ट’ में भारत की साल दर साल गिरती स्थिति बताती इस हकीकत की ओर इशारा करती है कि विपन्नता और बदहाली के महासागर में समृद्धि के चंद टापू खडे हो जाने से पूरा महासागर समृद्ध नहीं हो जाता।
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