गेहूँ खरीद के अजीबोगरीब रुख को लेकर जिस ख़तरे की आशंका जताई जा रही थी, उसके संकेत अब साफ़ दिखने लगे हैं। गेहूँ की सरकारी खरीद का जो अनुमान पहले लगाया गया था उससे 50 फ़ीसदी कम ख़रीद की आशंका है। यह 13 साल में रिकॉर्ड होगा। खरीद कम होने का असर अभी से दिखने लगा है और खाद्य सुरक्षा के लिए पीडीएस के तहत कई राज्यों को दिए जाने वाले गेहूँ की जगह अब चावल दिए जाएँगे। तो क्या ये बड़ी समस्या के संकेत हैं? खाद्य सुरक्षा योजना के लिए भी गेहूँ पूरा क्यों नहीं हो रहा? आख़िर सारा गेहूँ गया कहाँ? इससे एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या कुछ महीने बाद ही गेहूँ के दाम आसमान पर होंगे और क्या खाद्य महंगाई बढ़ने के भी संकेत हैं?