ख़बर सिर्फ इतनी है कि भारतीय रेल 151 रेलगाड़ियों का परिचालन निजी क्षेत्र के हवाले करने जा रहा है। अब इसके आगे का मामला व्याख्या का है। क्या इसे रेलवे का निजीकरण कहा जा सकता है? खुद रेलमंत्री ऐसा नहीं मानते।
निजीकरण नहीं?
चार महीने पहले जब नीति आयोग ने इसकी सिफ़ारिश की थी तो रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि रेलवे का निजीकरण नहीं होने जा रहा है, बस उसकी कुछ सेवाओं को निजी क्षेत्र को ‘आउटसोर्स’ किया जाएगा। निजीकरण नहीं होने जा रहा है, इस बात को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दोहरा चुके हैं।
अब जब 151 रेलगाड़ियों के परिचालन को निजी क्षेत्र के हवाले करने की प्रक्रिया शुरू हो गई, स्पष्ट है कि यह किसी भी तरह से निजीकरण नहीं है। ये 151 नई ट्रेनें जिन पटरियों पर और जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर के भरोसे दौड़ेंगी, वह सार्वजनिक क्षेत्र का ही होगा।
क्या होता है निजीकरण?
आमतौर पर निजीकरण को हम दो तरह से देखते हैं। एक तो तब जब किसी ऐसे क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोल दिया जाता है जो अब तक सिर्फ सरकारी कंपनियों के लिए ही रिजर्व था। जैसे कि देश में एअरलाइंस का या दूरसंचार क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोला गया था। दूसरी तरह से निजीकरण का अर्थ होता है कि किसी सरकारी उद्यम को निजी क्षेत्र के हवाले कर देना, यानी एक दाम वसूल कर उसकी संपत्ति का हस्तांतरण निजी कंपनी के हवाले कर देना। जैसे कभी विदेश संचार निगम को निजी क्षेत्र को सौंपा गया था।
रेलवे के साथ क्या होगा?
इन दोनों ही अर्थों में देखें तो रेलवे का निजीकरण नहीं होने जा रहा है।
न तो निजी क्षेत्र को अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करके समानांतर कारोबार चलाने की इजाज़त दी जा रही है और न ही संपत्ति का कोई हस्तांतरण होने जा रहा है।
अभी तक जितनी ख़बर सामने आई है उससे तो सीधे तौर पर यही कहा जा सकता है कि भारतीय रेलवे अपनी कुछ नई ट्रेनों को चलाने का ठेका निजी क्षेत्र को देने जा रहा है।
तेजस
जब रेलवे के निजीकरण की बात आती है तो अक्सर ‘तेजस’ का उदाहरण दिया जाता है। यह कहा जाता है कि ‘तेजस एक्सप्रेस’ भारत में निजी क्षेत्र के परिचालन वाली पहली रेल है। लेकिन क्या तेजस को रेलवे में निजी क्षेत्र की नई भूमिका के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है? इसका परिचालन इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टिकटिंग कार्पोरेशन यानी आईआरसीटीसी कर रही है जो भारतीय रेलवे की ही एक सहायक कंपनी है।
इस कंपनी को भारतीय रेलवे नेटवर्क की सबसे पेशेवर आधुनिक इकाइयों में गिना जाता है, हालांकि इसके कामकाज का रिकाॅर्ड मिलाजुला रहा है। ऑनलाइन टिकटिंग के मामले में यह काफी कामयाब रही है, जबकि कैटरिंग को लेकर यह लगातार आलोचना का शिकार भी बनती रही है।
सही मायने में निजीकरण नहीं
तेजस एक्सप्रेस को निजी परिचालन का अच्छा उदाहरण इसलिए भी नहीं माना जा सकता कि इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई उसे वाजिब नहीं कहा जा सकता।
न तो निविदाएं ही आमंत्रित की गईं, न कोई बोली लगी, बस भारतीय रेलवे ने अपनी एक नई प्रीमियम ट्रेन का परिचालन सीधे तौर पर अपनी ही एक सहायक कंपनी को सौंप दिया।
इसके बाद दो और ट्रेनों का परिचालन भी आईआरसीटीसी के हवाले किया गया। यह कहा जा सकता है कि तेजस के मामले में रेलवे ने जो किया वह एक नई ट्रेन को बाहरी हाथों में सौंपने का एक आधा-अधूरा सा प्रयोग था।
यह प्रयोग कितना सफल या असफल रहा, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन अब जब इसे एक बड़ा विस्तार देने के लिए कमर कसी जा चुकी है तो यह साफ़ है कि रेलवे को अपना पुराना रवैया और रंग-ढंग बदलना होगा।
रेलवे की यह नई कोशिश भले ही पूर्ण निजीकरण न हो, लेकिन उससे उम्मीदें वही बाँधी जा रही हैं जो निजीकरण से बाँधी जाती हैं।
प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी
यह कहा जा रहा है कि इससे राजधानी और शताब्दी जैसी प्रीमियम ट्रेन ही नहीं, हवाई यात्रा करने वालों को भी नए विकल्प मिलेंगे। साथ ही इससे जो स्पर्द्धा पैदा होगी उसके चलते भारतीय रेलवे पर भी अपनी प्रीमियम सेवाओं को सुधारने का दबाव बनेगा।
ऐसे मौकों पर सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने के दावे भी किए जाते रहे हैं। ये दावे भी आते रहे हैं कि ऐसी नई ट्रेन पटरियों पर 180 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकेंगी।
दबाव
रेलवे का पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर पहले ही काफी दबाव में है, 151 नई ट्रेन शुरू होने का अर्थ है कि इस पर दबाव बढ़ेगा। हो सकता है कि निजी परिचालन वाली नई ट्रेन की गुणवत्ता बेहतर हो और इन ट्रेनों के बिना बाधा बढ़ते रहने के नए जुगाड़ भी तलाश लिए जाएँ, लेकिन इस दबाव से रेलवे की कुल जमा गुणवत्ता पर खराब असर भी दिख सकता है।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि स्पर्द्धा के तौर-तरीके तय करने के लिए कोई स्वतंत्र रेगुलेटरी अथाॅरिटी बनाई जाएगी या नहीं। अगर यह नहीं बनाई जाती है तो इसका अर्थ होगा कि किसी भी विवाद की स्थिति में अंतिम फैसला खुद भारतीय रेल ही करेगा। यानी जो निजी क्षेत्र का स्पर्द्धी है और जो उनके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर का प्रदाता भी है वही खुद ही पूरे खेल का रेफ़री भी होगा।
मेट्रो का उदारण
अगर एक संगठन के तौर पर भारतीय रेलवे को छोड़ दें तो देश में निजी क्षेत्र में ट्रेन संचालन के तीन उदाहरण हमारे सामने हैं। ये तीनों ही उदाहरण मेट्रो ट्रेन के हैं। दिल्ली एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन, मुंबई मेट्रो लाइन-1 और हैदराबाद मेट्रो का परिचालन पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हवाले किया गया था। ये तीनों ही सेवाएँ इस समय कानूनी पचड़े में फँसी हुई हैं।
भारत में रेल किसी व्यावसायिक संगठन की तरह नहीं, एक सार्वजनिक सेवा की तरह चलता रहा है। सब्सिडी के ज़रिये सस्ती यात्रा की व्यवस्था हमेशा से भारतीय रेलवे की पहचान रही है।
गुणवत्ता पर ध्यान नहीं
इसका नुकसान यह हुआ है कि रेलवे की गुणवत्ता पर कभी बहुत ज्यादा ध्यान देने की ज़रूरत भी नहीं समझी गई। इसका बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि इसके बड़े पैमाने पर श्रमिकों के आवागमन को सहज और सुलभ बनाया। खासकर उन कृषि मज़दूरों के मामले में जो हर साल धान की रोपाई और फसल की कटाई के मौसम में बड़ी संख्या में पंजाब जैसे राज्यों का रुख करते हैं। अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा के मामले में रेलवे के इस योगदान को हम नज़अंदाज नहीं कर सकते।इस मामले में रेलवे की क्या भूमिका हो सकती है, इसे हम कोविड काल के उस शुरूआती दौर से समझ सकते हैं जब बड़े पैमाने पर मज़दूरों ने अपने घरों की ओर वापसी शुरू की थी। बाद में इस मानवीय त्रासदी का हल काफी कुछ रेलवे के प्रयासों से ही निकल सका। ऐसे में अगर निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका को लेकर आशंकाएं उभरती हैं तो कोई हैरत नहीं है।
बहरहाल, इस तरह के फ़ैसले से सरकार उन आलोचकों का मुँह ज़रूर बंद कर सकती है जो यह मानते हैं कि रेलवे जैसी सेवा में एक तो सार्वजनिक धन का अपव्यय हो रहा है और दूसरे उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा भी नहीं मिल रही। दूसरी तरफ विपक्ष को इससे यह कहने का मौका मिल गया है कि सरकार देश पर रेलवे का निजीकरण थोपने जा रही है। हकीक़त में फ़िलहाल शायद ये दोनों ही चीजें नहीं होने जा रहीं हैं।
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