महामारी ऐसा संकटकाल है जिससे हम उम्मीद तो यही करते हैं कि इससे विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा पर लोगों का विश्वास बढ़ेगा लेकिन कई बार इसका उलटा होता हुआ भी दिखता है। कई बार अचानक ही वैज्ञानिक सोच अपने ज्ञान की सीमाओं को समझते हुए बेबस खड़ी दिखाई देती है और अवैज्ञानिक सोच हंगामा करने लगती है।
इसे ज़्यादा अच्छी तरह से समझना हो तो हमें 19वीं सदी के अंत में आ धमकने वाले प्लेग को देखना होगा। प्लेग ने जब दस्तक दी और मुंबई के अस्पतालों में बड़ी संख्या में लोग मरने लगे तो लोगों को यह धारणा देने की कोशिशें भी होने लगीं कि अस्पताल में किसी को ले जाने का अर्थ है उसे मौत के मुँह में धकेलना। मरीज़ों को लोग अस्पताल में ले जाने से बचने लगे। अब उनके पास एक ही आसरा था शहर के नीम-हकीम। महामारी में नीम-हकीमों की उन दिनों बन आई थी।
उन्हीं दिनों मुंबई में एक नाम चर्चा में आया- प्लेग का डाॅक्टर। डाॅक्टर तो वो नहीं ही था, शायद हकीम भी नहीं था। तंतनपुरा की कापस गली में अपना धंधा चलाने वाला यह शख्स ख़ुद को हकीम के बजाए डाॅक्टर कहलाना ही पसंद करता था। उसका कहना था कि शरीर में जहरीले ख़ून की वजह से यह रोग होता है और ख़ून के इस ज़हर को निकाल कर वह मरीज़ को ठीक कर देता है। ख़ून से ज़हर निकालने का उसका तरीक़ा बहुत क्रूर था। वह अपने पास एक बड़े मर्तबान में बहुत सारी जोक रखता था। वह जोक को प्लेग मरीज़ के शरीर में उभरी गाँठों में लगा देता और वे खून चूसतीं। ये गाँठें आमतौर पर प्लेगग्रस्त लोगों की गर्दन के पास होती थीं, कई मामलों में ये जांघों के पास या बगल में भी होती थीं। उसका दावा था कि इससे उसके ज़्यादातर मरीज़ ठीक हो जाते हैं, कुछ जो नहीं ठीक हो पाते वो ऊपर वाले की मर्जी।
मुंबई में जब प्लेग फैला था तो एक समय सामाजिक तनाव इतना ज़्यादा बढ़ गया था कि आर्थर रोड के बाम्बे प्लेग हाॅस्पिटल पर भीड़ ने आकर दंगे तक करने शुरू कर दिए थे। जहाँ एक तरफ़ लोग मरीज़ को इस अस्पताल में लाने से बचते थे वहीं तंतनपुरा के इस डाॅक्टर के यहाँ भीड़ लगी रहती थी। इसकी चर्चा इतनी ज़्यादा बढ़ गई थी कि बाम्बे प्लेग हाॅस्पिटल के चीफ़ मेडिकल ऑफिसर डाॅक्टर नौसरवानजी एच चैकसे पूरा माजरा समझने के लिए ख़ुद तंतनपुरा गए। यह बात अलग है कि इलाज का पूरा तरीक़ा जानने के बाद उन्होंने अपना सर पीट लिया।
लेकिन ऐसे इलाज की बात सिर्फ़ जोक तक ही नहीं रुकी। कुछ लोगों ने तो इससे आगे जाकर साँप के जहर से प्लेग का इलाज ढूंढने का दावा तक किया। यह दावा इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि अंतरराष्ट्रीय चर्चा में आ गया।
साँप के जहर से प्लेग का इलाज
प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लांसेट के आठ जुलाई, 1898 के अंक में इस पर बाकायदा एक रिपोर्ट छपी जिसे भारत से इस पत्रिका के विशेष संवाददाता ने भेजा था। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में उस समय साँप के जहर से प्लेग के इलाज पर प्रयोग चल रहा था। प्रयोग करने वालों का कहना था कि पश्चिमी इलाज पद्धति सांप के जहर के चिकित्सकीय गुणों से वाकिफ नहीं है, जबकि भारत में इसका जो परंपरागत ज्ञान है वह प्लेग से मुक्ति दिलवा सकता है। बाद में इस प्रयोग के बारे में इंडियन मेडिकल गजट में भी कुछ चिट्ठियाँ छपी थीं। यह प्रयोग किसने किया, कहाँ हुआ और इसके क्या नतीजे निकले, इस बाबत कोई डिटेल उपलब्ध नहीं है।
यह ऐसा दौर था जब देश में दो ही चीजों का विस्तार हो रहा था, एक तो प्लेग की महामारी का जो तमाम कोशिशों के बावजूद पूरे देश में फैल रही थी। इसके साथ ही पूरे देश में अस्पताल खोले जा रहे थे और आधुनिक चिकित्सा का अभूतपूर्व विस्तार हो रहा था। इस विस्तार ने परंपरागत चिकित्सकों, वैद्यों और हकीमों को परेशान कर दिया था। उन्हें लग रहा था कि वे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
यह वही दौर था जब प्लेग की वैक्सीन लगभग तैयार हो चुकी थी। हालाँकि देश के पूरी तरह प्लेगमुक्त होने में तो काफ़ी समय लगा लेकिन वैक्सीन ने एक तरफ़ तो इस त्रासदी को काफ़ी कम कर दिया तो दूसरी तरफ़ लोगों को एक नई उम्मीद दी।
वह प्लेग का दौर ही था जिसके बाद भारत में आधुनिक चिकित्सा पद्धति मुख्यधारा में आ गई और परंपरागत चिकित्सा पद्धतियाँ हाशिये पर चली गईं।
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