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…बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई। 1974 में आई सुपरहिट फ़िल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ का यह गाना आज के हाल पर एकदम फिट बैठता है। कोरोना की बीमारी और उससे उपजी बेरोजगारी की मार झेल रहे देश को अब महंगाई भी बुरी तरह सता रही है।
पेट्रोल और डीजल के चर्चे तो हुए भी, पेट्रोल का दाम सेंचुरी लगा भी चुका है। बंगाल चुनाव ख़त्म होने के बाद से यानी चार मई से बीते शनिवार तक इनके दाम बाइस बार बढ़ चुके हैं। सोशल मीडिया पर एक नया मीम चल रहा है। पेट्रोल का नया भाव, पच्चीस रुपए पाव! मज़ाक उड़ाने का अंदाज दिलचस्प हो सकता है। लेकिन पेट्रोल कोई पाव भर तो लेता नहीं है। पाव यानी ढाई सौ ग्राम और उससे भी कम यानी सौ या पचास ग्राम में जो तेल बिकता है वो है खाने का तेल या खाना बनाने का तेल। मगर पेट्रोल डीज़ल के चक्कर में उसके भाव पर खास बातचीत नहीं हो रही है। जबकि उसके भाव में भी कम आग नहीं लगी हुई है। पिछले कुछ महीनों में तो इन तेलों की महंगाई बहुत तेज़ हुई है। सरसों के तेल ने तो डबल सेंचुरी मार दी लेकिन चर्चा वैसी ही हुई जैसे सचिन, द्रविड़ और गांगुली के आगे मिताली राज की बल्लेबाज़ी की होती है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक मूंगफली का तेल बीस परसेंट, सरसों का तेल चवालीस परसेंट से ज्यादा, वनस्पति क़रीब पैंतालीस परसेंट, सोया तेल क़रीब तिरपन परसेंट, सूरजमुखी का तेल छप्पन परसेंट और पाम ऑयल क़रीब साढ़े चौवन परसेंट महंगा हुआ। ये आँकड़े 28 मई 2020 से 28 मई 2021 के बीच का हाल बताते हैं।
मई में ही अप्रैल महीने के लिए थोक महंगाई का जो आँकड़ा आया उसमें महंगाई बढ़ने की दर ग्यारह साल की नई ऊंचाई पर दिख रही है। पिछले साल के मुक़ाबले साढ़े दस परसेंट ऊपर। जाहिर है, थोक भावों का असर कुछ ही समय में खुदरा बाजार में दिखता है और वो दिख भी रहा है। किराने के सामान यानी घर में रोजमर्रा इस्तेमाल की चीजें औसतन चालीस परसेंट महंगी हो गई हैं, जबकि खाने के तेल पचास परसेंट से ज्यादा बढ़ चुके हैं।
और अगर आपको लगता है कि जैसे मौसम के साथ सब्जियां सस्ती हो जाती हैं वैसे ही तेल के दाम भी कम हो जाएँगे तो यह बात दिमाग से निकाल दें। हालात बता रहे हैं कि इनके दाम बढ़ने का सिलसिला अभी रुकने वाला नहीं है।
सिर्फ यह तेल ही नहीं सभी कमोडिटीज़ के दाम बढ़ रहे हैं। कमोडिटी कारोबारी और सट्टेबाज़ों का कहना है कि इस वक्त तेजी का एक सुपर साइकिल यानी महा तेजी चल रही है।
दुनिया भर में खाने पीने की चीजों और बाक़ी इस्तेमाल की चीजें जैसे धातुओं और कच्चे तेल के दाम भी लगातार बढ़ रहे हैं। इस तेजी की एक बड़ी वजह वही है जो शेयर बाज़ार में तेजी की है। यानी महामारी से निपटने के लिए सरकारी राहत पैकेजों की रक़म बड़े पैमाने पर बाज़ार में आना। अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में कोरोना राहत या स्टिमुलस के नाम पर नोट छाप छापकर जनता को जो पैसा बांटा जा रहा है वो घूम फिरकर इक्विटी और कमोडिटी बाजारों में पहुंच रहा है।
इसके अलावा अमेरिका और अर्जेंटाइना के कुछ हिस्सों में सूखा पड़ने की वजह से सोया की फसल कमज़ोर हुई है। और अगले साल भी वहाँ किसान इसकी खेती से बचने की सोच रहे हैं। यानी खतरा अभी और बढ़नेवाला है। दुनिया भर में खाने के तेल की कीमत बढ़ने की एक वजह यह भी है कि यह तेल अब सिर्फ खाने के लिए ही इस्तेमाल नहीं होते बल्कि बहुत से देशों में इनका इस्तेमाल पेट्रोल और डीजल के साथ ईंधन के लिए भी होने लगा है। जैसे भारत में पेट्रोल में मेथनॉल मिलाया जा रहा है। यही वजह है कि यह तेजी आनेवाले समय में कम होने के कोई आसार फिलहाल तो दिखते नहीं।
और महंगाई की यह बीमारी सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में कोरोना की ही तरह फैल रही है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में महंगाई करीब ग्यारह परसेंट पर पहुंच गई है। और अब बेरोजगारी और महंगाई से बेहाल पाकिस्तान साढ़े सोलह अरब डॉलर का कर्ज लेने की कोशिश में लगा है ताकि वो इन दोनों से मुकाबला कर सके।
पाकिस्तान के हाल बेहाल होना तो कोई नई बात नहीं, लेकिन महंगाई का भूत अब अमेरिका के भी सर पर नाच रहा है। मई के महीने में वहां कंज्यूमर प्राइज इंडेक्स यानी खुदरा भावों का सूचकांक पांच परसेंट पर पहुंच गया। भारत के हिसाब से यह ज्यादा नहीं दिखता, लेकिन अमेरिका में यह 2008 के बाद से सबसे ऊंचा स्तर है। यानी तेरह साल में सबसे तेज़ हो चुकी है महंगाई। महंगाई का ही एक दूसरा आंकड़ा है कोर प्राइज इंडेक्स यानी ज़रूरी चीजों के भाव की रफ्तार का मीटर। अमेरिकी सेंट्रल बैंक फेड रिज़र्व अपनी पॉलिसी के लिए इसी मीटर पर नज़र रखता है। इसमें खाने पीने की चीजों और पेट्रोल के भाव हटाकर देखने पर 3.1% की बढ़त दिख रही है। यह 1992 के बाद से सबसे ज्यादा है, यानी यह महंगाई 28 साल की नई ऊंचाई पर है।
उधर चीन में यही आंकड़ा 0.9% पर है। इस लिहाज से चीन के हालात बहुत अच्छे दिख रहे हैं लेकिन वहीं फैक्टरी गेट इन्फ्लेशन यानी फैक्टरी में बने सामान के दाम बढ़ने की रफ्तार नौ परसेंट से ऊपर पहुंच चुकी है।
चीन में महंगाई की वजह से अमेरिका जानेवाले चीन के सामान का दाम भी 2.1% की रफ्तार से बढ़ गया है और दुनिया भर में यह खतरा जताया जा रहा है कि सस्ता माल एक्सपोर्ट कर करके दुनिया के बाज़ारों पर कब्जा करनेवाला चीन कहीं अब महंगाई तो एक्सपोर्ट नहीं करनेवाला है।
उधर अमेरिका में महंगाई बढ़ने से उन अमीरों के बीच भी हड़कंप सा मचा हुआ है जिन्हें देखकर हम और आप सोचेंगे कि इन्हें महंगाई से क्या फर्क पड़ता है।
महंगाई तेरह साल और अठाईस साल की नई ऊंचाई पर तो मई में पहुंची है लेकिन उससे पहले अप्रैल और मई में सीएनबीसी के मिलियनेयर सर्वे में शामिल हुए पैंसठ परसेंट लोगों ने महंगाई के हाल पर चिंता जताई थी। चिंता कहीं कम है कहीं ज्यादा, जैसे रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक अमीरों में से पच्चासी परसेंट चिंतित हैं तो डेमोक्रेट समर्थकों में सिर्फ 42 परसेंट। ऐसे ही जितने कम उम्र वाले अमीर हैं वो उतने ज्यादा फिक्रमंद लग रहे हैं। इनकी चिंता की एक बड़ी वजह दरअस्ल महंगाई नहीं बल्कि उसके साथ जुड़ी यह आशंका है कि इसकी वजह से अगर ब्याज दरें बढ़ने लगीं तो फिर शेयर बाजा़र पर दबाव बन सकता है और दूसरी तरफ कर्ज लेना भी मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन चीन हो या अमेरिका, महंगाई के इस संकट से निकलने का रास्ता तो कोरोना का टीका लगने के बाद ही दिखाई पड़ेगा। जैसे जैसे लोग बाहर निकलेंगे, और सिर्फ ज़रूरी खरीद या ऑनलाइन शॉपिंग से हटकर घूमने फिरने और बाहर खाने पर भी खर्च करने लगेंगे वैसे वैसे महंगाई में राहत मिलने के आसार हैं। लेकिन साथ में यह भी ज़रूरी होगा कि लोगों के रोजगार का इंतजाम भी किया जाए।
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