…बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई। 1974 में आई सुपरहिट फ़िल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ का यह गाना आज के हाल पर एकदम फिट बैठता है। कोरोना की बीमारी और उससे उपजी बेरोजगारी की मार झेल रहे देश को अब महंगाई भी बुरी तरह सता रही है।

चीन हो या अमेरिका, महंगाई के इस संकट से निकलने का रास्ता तो कोरोना का टीका लगने के बाद ही दिखाई पड़ेगा। जैसे जैसे लोग बाहर निकलेंगे, और सिर्फ ज़रूरी खरीद या ऑनलाइन शॉपिंग से हटकर घूमने फिरने और बाहर खाने पर भी खर्च करने लगेंगे वैसे वैसे महंगाई में राहत मिलने के आसार हैं।
पेट्रोल और डीजल के चर्चे तो हुए भी, पेट्रोल का दाम सेंचुरी लगा भी चुका है। बंगाल चुनाव ख़त्म होने के बाद से यानी चार मई से बीते शनिवार तक इनके दाम बाइस बार बढ़ चुके हैं। सोशल मीडिया पर एक नया मीम चल रहा है। पेट्रोल का नया भाव, पच्चीस रुपए पाव! मज़ाक उड़ाने का अंदाज दिलचस्प हो सकता है। लेकिन पेट्रोल कोई पाव भर तो लेता नहीं है। पाव यानी ढाई सौ ग्राम और उससे भी कम यानी सौ या पचास ग्राम में जो तेल बिकता है वो है खाने का तेल या खाना बनाने का तेल। मगर पेट्रोल डीज़ल के चक्कर में उसके भाव पर खास बातचीत नहीं हो रही है। जबकि उसके भाव में भी कम आग नहीं लगी हुई है। पिछले कुछ महीनों में तो इन तेलों की महंगाई बहुत तेज़ हुई है। सरसों के तेल ने तो डबल सेंचुरी मार दी लेकिन चर्चा वैसी ही हुई जैसे सचिन, द्रविड़ और गांगुली के आगे मिताली राज की बल्लेबाज़ी की होती है।