शुक्रवार को जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन आर्थिक मंदी से निपटने के 33 उपायों की घोषणा कर रही थीं, तब उन्होंने कई बार मीडिया से उसका ‘प्रचार’ करने में सहयोग करने की माँग की। उन्होंने उस समय पत्रकारों से सवाल भी लिए और ख़ुशी-ख़ुशी उसके जबाब भी दिए। पर लगता है कि उनके सहयोग की अपील का असर पहले से था क्योंकि किसी भी पत्रकार ने यह नहीं पूछा कि अभी तो बजट पेश हुए पचास दिन भी नहीं हुए हैं, तो तब क्या मंदी नहीं दिख रही थी।
दूसरा सवाल ज़्यादा मौजूं था कि जब डेढ़ महीने में ही बजट के बहुचर्चित और भारी-भरकम प्रावधानों को वापस लेना था तो तब क्यों इतना शोर मचाया गया। ख़ास कर सुपर अमीर पर कर, कॉरपोरेट सेक्टर के सोशल रेस्पांसिबिलिटी कार्यक्रम में चूक पर जेल की सजा और शेयर के लाभ पर कर तथा निवेशकों की पहचान जाहिर करने के फ़ैसले। और शायद यह पूछना भी ज़रूरी था कि जब बजट अर्थात धन विधेयक से उसके प्रावधान क़ानून का रूप ले चुके हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आधिकारिक घोषणा भर से कई बड़ै फ़ैसले कैसे उलटे जा सकते हैं।
पर निर्मला जी की घोषणाओं से इतना ज़रूर लगा कि सरकार को मंदी की चिंता है और वह उसे थामने के लिए अपने क़दम वापस खींचने में भी नहीं हिचकेगी।
दूसरी चीज यह भी साफ़ लगी कि सोमवार को जब शेयर बाज़ार खुलेगा तब उसमें उछाल होगा क्योंकि बाज़ार को परेशान कर रहे कई क़दम वापस लिये गए हैं। इसमें सुपर रिच आय वालों पर लगे सरचार्ज की चर्चा, देसी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर लांग-टर्म और शार्ट टर्म कैपिटल गेन पर कर के नए प्रावधान और निवेश के लिए पहचान जाहिर करने की शर्तें हटाने के साथ बैंकों के लिए रकम और हाउसिंग लोन के लिए ज़्यादा रकम उपलब्ध कराने जैसे क़दम शामिल हैं।
बैंकों को मिलने वाली रकम उनकी पूंजी बढ़ाने में कई गुना ज़्यादा कारगर होगी क्योंकि इसके आधार पर वे सात आठ गुना तक उधार ले सकते हैं। कहना न होगा कि ये क़दम बाज़ार का भरोसा और उत्साह वापस लाने में सहायक होंगे जबकि आज की मंदी इस भरोसे को तोड़ रही है।
रोज आने वाली बुरी ख़बरें सिर्फ़ अर्थव्यवस्था का हाल नहीं बतातीं, अर्थव्यवस्था के भागीदारों की हिम्मत भी तोड़ती हैं। बल्कि जिस दिन निर्मला यह घोषणा कर रही थीं, उसी दिन मूडीज ने हमारे विकास दर के अनुमान में प्वाइंट छह फ़ीसदी की कमी की घोषणा की और इसके 6.2 फ़ीसदी ही रहने का अनुमान जताया।
वित्त मंत्री की घोषणाओं का दूसरा हिस्सा था- अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों द्वारा सरकारी मशीनरी और व्यवस्थाओं से आने वाली तकलीफों को दूर करने का। इसमें प्रमुख रूप से आयकर विभाग और जीएसटी कौंसिल से शिकायतें दूर करना था और रोज राहत के दावों के बाद भी ख़ुद वित्त मंत्री ने इन विभागों को खलनायक मानने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर लघु और छोटे उद्यमों का जीएसटी रिफंड 30 दिन में मिलने का और अगले तीन महीनों में उनके भुगतान का हिसाब साफ़ करने की घोषणा ज़रूर काफ़ी लोगों को राहत देगी।
उनकी 33 घोषणाओं का यही हिस्सा असल में मंदी के मद्देनजर उठाया क़दम लग रहा था, हालाँकि इसमें भी तकलीफ़ दूर करना ही प्रमुख तत्व है। वरना बैंकों को सत्तर हज़ार करोड़ देना या नॉन-बैंकिंग फ़ाइनेंस कम्पनियों को हल्की राहत देना और हाउसिंग फ़ाइनेंस के मामले में बीस हज़ार करोड़ का पैकेज तो मूलत: उस क्षेत्र को बचाने का प्रयास ही है।
सरकारी संस्थानों द्वारा ऑटोमोबाइल की ख़रीद करनी हो या इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर बन रही हवा के बीच डीजल और पेट्रोल वाहनों (बीएस-चार मानक) के बारे में की गई घोषणाओं का आर्थिक कामकाज के हिसाब से कोई ज़्यादा मतलब नहीं है। आर्थिक कामकाज ऐसा हो जिससे मंदी छंटे और मुल्क आगे बढ़े, मानव सम्पदा समेत मुल्क के संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल हो और खाली बैठी क्षमता को काम देने से हालात सुधरेंगे।
उसके लिए 33 में कोई भी बहुत प्रभावी घोषणा नहीं दिखी। समस्या तो वही है कि मुट्ठी भर लोग सारी सम्पदा पर काबिज होते जा रहे हैं और उनके भरोसे आर्थिक कार्यव्यापार न तो मुल्क का भला कर पा रहा है न सभी देशवासियों का। सुपर रिच हों या शेयर बाज़ार के खिलाड़ी, इनका आर्थिक कामकाज में योगदान है, और प्रधानमंत्री ने लाल किले के अपने भाषण में इसका उल्लेख किया (किसी भी प्रधानमंत्री द्वारा लाल किले से अमीरों के पक्ष में कही यह पहली बात थी), पर जब तक हर खेत को पानी, हर हाथ को काम और हर झोपड़ी में रोशनी लाने का पुराना जनसंघी नारा भी याद नहीं किया जाएगा तब तक मंदी से लड़ना और आर्थिक तरक्की करने का सपना हवाई रहेगा।
कई सवाल खड़े हैं सामने
आख़िर पिछले पाँच साल से निरंतर गिरे निर्यात को ठीक करने के लिए क्या क़दम उठाए गए हैं, ग्रामीण माँग में आती गिरावट को कैसे रोकेंगे, बेरोजगारी का सवाल क्या वित्त मंत्री की चिंता से बाहर का है, कपड़ा उद्योग ही नहीं कृषि आधारित हर व्यवसाय समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था से कैसे परेशान है, रुपया क्यों गिरता जा रहा है, दुनिया के बाज़ार में हम अपने कृषि उत्पाद को क्यों नहीं बेच पा रहे हैं, चीन-अमेरिकी टकराव में हमारा क्या होगा जैसे सवाल बने हुए हैं।जैसा शुरू में कहा गया है, शुक्रवार की घोषणाओं का एकमात्र घनात्मक पक्ष सरकारी तत्परता का दिखना है। निर्मला जी ने कहा भी कि और भी जो जरूरी क़दम होंगे उठाए जाएँगे। सम्भव है शेयर बाज़ार तेज होकर कुछ उत्साह बनाए। पर बैंकों को सत्तर हज़ार करोड़ देने की बजट की घोषणा को दोहराने या संरचना क्षेत्र में एक लाख करोड़ रुपये निवेश की प्रधानमंत्री की लाल किले की घोषणा को फिर से बोलने (जबकि कोई टाइमलाइन यहाँ भी नहीं बताई गई) भर से ज़्यादा लाभ नहीं होने वाला है।
अर्थव्यवस्था में ‘वेल्थ क्रिएटर’ और ‘बैंक-बीमा- शेयर बाज़ार) की भूमिका है पर बहुत सीमित। वित्त मंत्री को यह बात पहले समझनी होगी और सिर्फ़ पेट्रोलियम के दाम कम होने और उस पर भारी कर लगाकर खजाना भरने का काम भी लम्बे समय तक नहीं चल सकता। पर अगर वित्त मंत्री बजट के पचास दिन के अन्दर ही कई चीजों पर यू-टर्न लेने से नहीं हिचकतीं तो यह भी शुभ है। उम्मीद करनी चाहिए कि जल्दी ही कुछ और अच्छी घोषणाएँ होंगी क्योंकि मंदी का भूत इन 33 हल्के मंत्रों से नहीं भाग सकता।
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