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पाकिस्तान की बौखलाहट के 'इम्तहान' में भारत पास या फ़ेल?

पाकिस्तान सचमुच बौखला गया है। इसके अनेक घरेलू कारण हैं और कश्मीर को वहाँ की आंतरिक राजनीति में लगातार एक मुद्दा बनाए रखा जाता है। इसे अपनी ग़लतियाँ, कमज़ोरियाँ और असफलताओं को छुपाने के औजार के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। आज फिर पाकिस्तान काफ़ी कमज़ोर दिख रहा है।
अरविंद मोहन

इसे कूटनैतिक तैयारी का हिस्सा या विदेश नीति का शुभ पक्ष माना जाना चाहिए कि भारत ने कश्मीर पर एक बड़ा फ़ैसला करने के बाद से पाकिस्तान द्वारा किए जाने वाले हंगामे और राजनयिक संबन्धों के बारे में उठाए जाने वाले क़दमों की प्रतिक्रिया बहुत ही संयत ढंग से दी है। अनेक आंतरिक और राजनयिक मोर्चे पर हाल के दिनों में भारत से पटखनी खा चुके पाकिस्तान की प्रतिक्रिया तो हैरान करने वाली है और उसके साथ उसी स्तर पर आकर प्रतिक्रिया नहीं की जा सकती। 

कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के भारत के फ़ैसले पर पाकिस्तान रोज़ नया हंगामा कर रहा है। पहले राजनयिक सम्बन्धों का स्तर कम करने और उसके तहत अपने उच्चायुक्त को वापस बुलाने, भारतीय उच्चायुक्त को वापस भेजने और व्यापारिक रिश्ते ख़त्म करने का फ़ैसला किया और फिर अगले दिन उसने जब समझौता एक्सप्रेस का परिचालन बंद करने का निर्णय लिया तो यात्रियों से भरी रेलगाड़ी को वाघा स्टेशन पर ही लाकर छोड़ दिया।

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महीनों के इंतज़ार और वीजा-पासपोर्ट वाले ये ग़रीब लोग (अमीर आम तौर पर हवाई जहाज़ से आते-जाते हैं) कहाँ जाएँ, क्या करें, यह नहीं समझ पा रहे थे। तब भारत ने अपनी तरफ़ से ड्राइवर और गार्ड भेजे और गाड़ी को मंगवाया तथा अपनी तरफ़ वाली गाड़ी को पहुँचाया। यही नहीं, इस घटना पर पाकिस्तानी रेल मंत्री शेख रशीद अहमद ने बाज़ाब्ता घोषणा कर दी कि उनके कार्यकाल में तो अब यह रेल नहीं चलेगी, जबकि महीनों आगे की बुकिंग अभी भी है। हफ़्ते में दो दिन चलने वाली यह एक्सप्रेस गाड़ी मात्र 29 किमी चलकर ही काफ़ी सारे आम लोगों के जीवन में एक बदलाव महसूस कराने लगी थी।

भारत की तरफ़ से इस मामले मेॉ भी संयत प्रतिक्रिया ही आई, जो रुके और फँसे यात्रियों को उनके मुकाम तक पहुँचाने के साथ ही यह बताने वाली भी थी कि अभी तक भारत सरकार को इस तरह की कोई आधिकारिक सूचना नहीं है। भारतीय रेलवे के अधिकारियों का कहना था कि वे गाड़ी चलाएँगे क्योंकि पाकिस्तान ने सिर्फ़ ड्राइवर और गार्ड की सुरक्षा को लेकर कुछ चिंता ज़ाहिर की थी। हमने उसका इंतज़ाम कर दिया है। पता नहीं कि लाहौर से अटारी तक आने वाली इस गाड़ी का आगे क्या होगा, क्योंकि भारत अपनी तरफ़ से इच्छा रखने भर से गाड़ी नहीं चलवा सकता। ज़ाहिर तौर पर बात इतनी भर नहीं है।

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बौखलाया पाकिस्तान

पाकिस्तान सचमुच बौखला गया है। इसके अनेक घरेलू कारण हैं और कश्मीर को वहाँ की आंतरिक राजनीति में लगातार एक मुद्दा बनाए रखा जाता है। इसे अपनी ग़लतियाँ, कमज़ोरियाँ और असफलताओं को छुपाने के औजार के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। आज फिर पाकिस्तान काफ़ी कमज़ोर दिख रहा है- आर्थिक हालात और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के जनक के रूप में बनी छवि से लेकर सरकार पर फ़ौज के पूरा कब्ज़ा होने जैसे कारणों के चलते। ऐसे में उसके लिए भारत की संसद द्वारा अपने एक आंतरिक मसले पर दिए फ़ैसले पर शोर मचाना उसकी लाचारगी भी है और ‘ज़रूरत’ भी। और फिर कश्मीर का मसला तो भारत और पाकिस्तान बनने के उस बुनियादी दर्शन का भी विरोधाभास दिखाता है जो भारत द्वारा मज़हब के आधार पर मुल्क़ बनाने के जिन्ना की ज़िद का जबाब था।

हमने कभी सिर्फ़ मज़हब को मुल्क़ बनाने का आधार नहीं माना है। पर भारत की जिस प्रतिक्रिया को संयत और सोच-समझ वाला बताया गया है वह आज की स्थिति की ज़रूरत है।

आज सत्तर साल से चल रही एक अस्थायी व्यवस्था और उससे पैदा अनेक असुविधाओं (शेष भारत से भी ज़्यादा कश्मीरी लोगों की असुविधाओं) को दूर करने के लिए मोदी सरकार ने फ़ैसला किया। इस फ़ैसले के बाद हम पाक अधिकृत कश्मीर और फिर पाकिस्तान द्वारा चीन को सौंप दिए गए अक्साई चिन (जो भौगोलिक आकार में स्विट्ज़रलैन्ड के बराबर है) को वापस पाने का अभियान चलाएँ या न चलाएँ, लेकिन यही जो बड़ा फ़ैसला हुआ है उससे कई बने-बनाए समीकरण हिले-डुले हैं और कई तरह की प्रतिक्रियाएँ आई हैं।

चीन परेशान क्यों?

लद्दाख संबन्धी फ़ैसले पर चीन क्यों परेशान है, यह समझना मुश्किल है, पर वह अगर पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय राजनय में मदद करने के लिए इसे नया बहाना बनाए तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी वह अभी तक पाकिस्तान को अपना ‘चेला’ बनाने का कोई अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहता। उससे जितना डर नहीँ है उससे ज़्यादा डर अमेरिका के रुख़ से है जिसके राष्ट्रपति भारत-पाक बातचीत की ‘मध्यस्थता’ के लिए उतावले हैं। इस बारे में भारतीय पक्ष की तरफ़ से दिखी लाल झंडी के बावजूद उनका ‘उत्साह’ कम नहीं हुआ है।

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लेकिन असली और व्यावहारिक ख़तरा अमेरिका द्वारा हाल में तालिबान से समझौते की पहल से है। अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से निकलना चाहता है और इस चक्कर में अफ़ग़ानिस्तान से समझौता चाहता है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की ताक़त बढ़ने और अमेरिका के बाहर निकलने का जितना व्यावहारिक मतलब वहाँ से भारतीय प्रयासों के भी सिमटने से है उससे ज़्यादा पाकिस्तानी प्रभाव का बढ़ना है।

इम्तहान का दौर

तालिबान का मतलब पाक प्रायोजित कठमुल्लापन और आतंक का बढ़ना ही है। और पाकिस्तान इस ‘ताक़त’ के सहारे हमारे यहाँ और आसपास के इलाक़ों में क्या-क्या कुछ करता रहा है इसे नहीं भूलना चाहिए। ख़ुद उसके यहाँ कठमुल्लापन और आतंकवाद किस तरह पलते-बढ़ते और एक्सपोर्ट होते रहे हैं यह अमेरिका और चीन को अपने स्वार्थों के चलते न दिखे पर हम तो इसे भुगतते रहे हैं। और अगर चीन और उससे भी ज़्यादा अमेरिका आतंकवाद पर ज़रा ज़्यादा नरम हुआ तो हमारी तकलीफ़ बढ़ेगी। इसलिए यह भारतीय राजनय के एक नए इम्तहान का दौर है और अभी तक उसका संयत व्यवहार आश्वस्त करता है।

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