नया साल आते ही अब बजट का शोर तेज़ हो जाता है। आखिर इस सरकार ने बजट की तारीख एक महीना पहले भी तो कर दी है। फरवरी की आखिरी तारीख के बजाय अब फरवरी के पहले दिन ही बजट आने लगा है। तर्क है कि इससे बजट समय से पास हो सकता है और अगला वित्तवर्ष शुरू होने के पहले ही सरकार को काम शुरू करने का अख्तियार मिल जाता है। इसका एक नतीजा यह भी हुआ है कि नए साल के बाद जब तक आम लोगों को बजट की याद आती है उससे पहले ही सरकार बजट पर ज्यादातर काम ख़त्म कर चुकी होती है।
यूँ तो वित्तमंत्रालय में एक पूरा विभाग है जो साल भर बजट के ही काम में जुटा रहता है लेकिन सरकार के तमाम मंत्रालयों और देश-समाज के ऐसे तमाम तबक़ों से चर्चा का काम भी साल की आखिरी तिमाही में होता है जिनपर बजट का असर पड़ता है। वो बताते हैं कि उन्हें बजट से क्या चाहिए और यह भी कि बजट में उसका इंतज़ाम कैसे हो सकता है। खासकर अर्थशास्त्री, कृषि विशेषज्ञ और बड़े-छोटे उद्योग संगठन तो एक तरह से पूरे बजट का खाका ही अपनी तरफ़ से सामने रखते हैं ताकि सरकार उनकी बात पर गंभीरता से विचार करे।
यह कसरत तो क़रीब-क़रीब हर साल होती है। कुछ मांगें और कुछ सुझाव भी हर साल ही दिए जाते हैं। लेकिन यह साल कुछ खास है। खास इसलिए क्योंकि कोरोना की भयानक मार से उबरते-उबरते अर्थव्यवस्था को रूस-यूक्रेन युद्ध का झटका झेलना पड़ा। वहाँ से भी अर्थव्यवस्था निकलकर फिर पटरी पर आ जाएगी यह उम्मीद एक बार फिर जाग रही है लेकिन साथ में भारी अनिश्चितता की आशंका भी बरकरार है। खास इसलिए भी है क्योंकि यह बजट मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का आखिरी पूर्ण बजट होगा। हालाँकि 2024 में चुनाव के पहले एक बजट और आना है, लेकिन परंपरा है कि चुनाव के ठीक पहले अंतरिम बजट ही आता है ताकि नई सरकार फिर अपने हिसाब से बजट ला सके।
इस बार बजट में कुछ मिलेगा ऐसी उम्मीदें भी ज्यादा हैं। इसकी वजह यह है कि नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना और यूक्रेन पर रूसी हमले जैसी समस्याओं से जूझने के बावजूद सरकार की कमाई बढ़ती हुई ही दिख रही है। दिसंबर के महीने में जीएसटी से 149507 करोड़ रुपए की वसूली हुई। लगातार दसवें महीने यह आँकड़ा एक लाख चालीस हज़ार करोड़ के पार रहा और पिछले साल के मुक़ाबले यह पंद्रह परसेंट ज्यादा है। चालू वित्तवर्ष में यानी एक अप्रैल से 17 दिसंबर तक प्रत्यक्ष कर के खाते में 1363649 करोड़ रुपए सरकारी खजाने में आए जो पिछले साल के इसी समय से लगभग 26% ज्यादा था। हालांकि इस बीच सरकार का कर्ज भी बढ़ा है और जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात 84% पर पहुंच चुका है। लेकिन पश्चिमी देशों से मुकाबला करें तो यह बोझ इतना भी नहीं है कि चलना मुश्किल हो जाए।
देश के सबसे तेज़ तर्रार उद्योग संगठन सीआईआई ने भी बजट से पहले के अपने सुझावों में जोरदार मांग की है कि वित्तमंत्री को इनकम टैक्स की दरें घटानी चाहिए।
उसका कहना है कि इससे लोगों के हाथ में खर्च करने के लिए पैसा बचेगा जिससे इकोनॉमी का चक्का दोबारा तेज़ करने में मदद मिल सकती है। इनकम टैक्स कटौती के और भी तर्क हैं। लेकिन सरकार के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य तो ग्रोथ की रफ्तार बढ़ाना है। भारत की जीडीपी लगभग सवा तीन लाख करोड़ डॉलर पर पहुँच चुकी है, लेकिन जुलाई से सितंबर की तिमाही में इसकी बढ़त की रफ्तार उम्मीद से आधी रह गई थी। इसलिए यह रफ्तार बढ़ाना ही सबसे बड़ी चुनौती है और यही देश की ज्यादातर समस्याओं का हल भी है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण यह साफ कर चुकी हैं कि इस बार का बजट इस सरकार के पिछले बजटों से अलग नहीं होगा बल्कि उसी सिलसिले को आगे बढ़ाएगा। उन्होंने उद्योग संगठन फिक्की के सालाना जलसे में कहा था कि यह अगले पच्चीस साल की तैयारी है। 2047 तक यानी आज़ादी की शताब्दी तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की तैयारी।
इसीलिए ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि बजट का मुख्य जोर गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं पर और आम आदमी की ज़िंदगी बेहतर बनाने पर होगा। चुनाव के लिहाज से भी देखें तो टैक्स में छूट के मुकाबले गरीब कल्याण योजनाएं राजनीतिक दलों के लिए बेहतर नुस्खा साबित हुई हैं। लेकिन ऐसी योजनाओं के साथ फिर संसाधनों का सवाल खड़ा होता है और उसका जवाब भी तरक्की की रफ्तार बढ़ाना ही है। इसके लिए लगातार मांग हो रही है कि सरकार खर्च बढ़ाए, सरकार ने चालू साल में भी करीब साढ़े सात लाख करोड़ रुपए का ऐसा ख़र्च किया है जिसे कैपिटल एक्सपेंडिचर यानी नई संपत्ति खड़ी करनेवाला ख़र्च कहा जाता है। यह बीते साल के मुकाबले करीब पैंतीस परसेंट ज्यादा है और जीडीपी का 2.9% है। लेकिन उद्योग संगठनों का मानना है कि इसे और बढ़ाकर जीडीपी के 3.3% से 3.9% तक पहुंचाने की ज़रूरत है। इसके पीछे भी तर्क यही है कि इससे खपत बढ़ेगी और ग्रोथ तेज़ होगी।
ग्रोथ के साथ दूसरी बड़ी ज़रूरत है देश को आत्मनिर्भर बनाने की। इसके लिए कदम उठाए गए हैं, जिनका फायदा दिखने लगा है। उम्मीद है कि इस बजट में उन्हें आगे ही बढ़ाया जाएगा। उद्योगों के अलग अलग समूहों या सेक्टरों की कुछ मांगें हैं जिन्हें सरकार राहत दे सकती है। इससे न सिर्फ विदेश व्यापार के मोर्चे पर फायदा होगा बल्कि बेरोजगारी की समस्या से मुक़ाबला भी आसान होगा।
ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबार की राह आसान करना और ईज़ ऑफ लिविंग यानी इंसानी ज़िंदगी को बेहतर बनाना। यह दोनों इस सरकार की शब्दावली का हिस्सा हैं और खासकर टैक्स के मोर्चे पर यह दोनों ही तबके शायद सबसे ज्यादा यही मांग रहे हैं कि उलझनों से छुटकारा मिल जाए। बड़े उद्योगपति और कारोबारी चाहते हैं कि टैक्स को लेकर खड़े होनेवाले विवाद कम हो जाएँ, इसके लिए कानून में जहां कहीं भी गलतफहमी की गुंजाइश है उसे साफ कर दिया जाए। कैपिटल गेन्स टैक्स इसका एक बड़ा उदाहरण है। लिस्टेड शेयरों, अनलिस्टेड शेयरों, अचल संपत्ति यानी ज़मीन जायदाद, और दूसरी तरह की संपत्तियां, इन सभी पर कैपिटल गेन्स टैक्स की दर और और कितने समय में शॉर्ट टर्म और कितने समय में लॉंग टर्म माना जाएगा यह अलग अलग है। अगर यह भेद दूर हो जाए तो शायद जीवन बहुत आसान हो जाएगा।
विदेशों में बसे लोगों यानी प्रवासी भारतीयों के लिए तो यह मसला थोड़ा और पेचीदा है। उनके सामने यह सवाल लगातार बना रहता है कि अगर भारत में भी उनकी कमाई हो रही है तो टैक्स कब, कहां और कितना देना है।
जिन देशों के साथ भारत का टैक्स समझौता है वहां की कमाई और भारत की कमाई पर भ्रम अब काफी कम हुआ है। पिछले बजट में विदेशी पेंशन की कमाई पर भी सफाई आई थी। लेकिन अब भी कुछ और पेंच बाकी हैं।
टैक्स कानून के विशेषज्ञ अभिषेक रस्तोगी बताते हैं कि प्रवासी भारतीयों की संपत्ति भारत में किराए पर उठना भी आसान नहीं है। क्योंकि यहां किराएदार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो किराए की रकम पर तीस परसेंट टैक्स काटकर सरकारी खजाने में जमा करे। जिन लोगों को यह पता है वो ऐसी जगह किराए पर लेने से बचते हैं। लेकिन ज्यादा बड़ी मुसीबत वहां है जहां मकान मालिक और किराएदार को इसकी जानकारी नहीं है। ऐसे में जब बाद में नोटिस पहुंचते हैं तो फिर मुश्किल खड़ी होती है। और अगर मकान मालिक जिस देश में है वहां उसकी कमाई टैक्स भरने लायक नहीं है तो फिर यहां टीडीएस कटने के बाद उसे वापस लेने का झंझट भी उसपर भारी पड़ता है।
अर्थव्यवस्था में प्रवासी भारतीयों का योगदान लगातार बढ़ रहा है। उनसे भारत आनेवाली रक़म पिछले साल सौ अरब डॉलर का आंकड़ा पार कर गई है। ऐसे में वो भी उम्मीद करते हैं कि उन्हें और उनसे लेनदेने करने वालों को ऐसे झंझट में न फंसना पड़े।
दस साल से इनकम टैक्स की स्लैब में बदलाव नहीं हुआ है। इसलिए उसे बढ़ाने और टैक्स घटाने की मांग इस बार ज़ोर पकड़ चुकी है। चुनाव देखते हुए इसकी उम्मीद भी तेज़ है। लेकिन अब एक और मुद्दा जुड़ गया है। विशेषज्ञ भी मान रहे हैं कि वित्तमंत्री टैक्स स्लैब बढ़ाने का एलान करें इसकी जगह उन्हें इसको महंगाई के साथ जोड़ देना चाहिए। इससे अनिश्चितता भी दूर हो जाएगी और लोगों को बार बार टैक्स कम करवाने की दुहाई भी नहीं देनी पड़ेगी।
(हिंदुस्तान से साभार)
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