चुनाव का दबाव ही सही पर अगर सरकार ने बैंक की छोटी जमा पर सूद की दर घटाने के निर्णय को कुछ घंटों में भूल बताकर वापस ले लिया तो इस बात की भी खैर माननी चाहिए। इसमें मीडिया और खास तौर से सोशल मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी जो लोगों को सूचित करने से भी ज़्यादा तत्काल उनकी प्रतिक्रिया का अन्दाजा देने में सफल रही और उस प्रतिक्रिया के साथ सरकार को बंगाल और असम चुनाव के मैदान में अपने पांव उखड़ने का डर था।
बजट की घोषणा और उसके बाद आई नई ऑटोमोबाइल नीति के ज़रिए सरकार जो खेल खेल रही है या खेलने जा रही है, उसके आगे बैंक की बचत पर सूद घटाना बहुत छोटा फ़ैसला लगता है। नई ऑटोमोबाइल नीति तो सीधे-सीधे बड़ी ऑटो कम्पनियों की जेब भरने वाली है, आम लोगों पर चोट होगी और साधनों की सीधी बर्बादी। यह सब सरकार पर्यावरण रक्षा के नाम पर कर रही है।
कहना न होगा कि जिस तरह कोरोना की आड़ में सार्वजनिक परिवहन को चौपट कर निजी वाहनों का जोर बढ़ाया गया है, वैसा ही अब इसी अवधि में पर्यावरण रक्षा के नाम पर बड़ी मोटर कम्पनियों की जेब भरने का काम होने जा रहा है। बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निजी वाहनों और व्यावसायिक वाहनों को जोड़कर क़रीब अस्सी लाख गाड़ियों को ‘स्क्रैप’ करने की बात की थी और साथ ही पुराने वाहनों के बारे में नई नीति लाने की घोषणा भी की थी। इसके बाद नई नीति के कुछ संकेत परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दिए थे।
उससे पहले से ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली-एनसीआर में गाड़ियों की जीवन अवधि बिना किसी वैज्ञानिक या तार्किक आधार के तय करके हंगामा मचाया था।
जब तक नई ऑटोमोबाइल नीति घोषित हो तब तक लाखों गाड़ियाँ सचमुच के कबाड़ वाले अन्दाज में बिक गईं। दूसरी ओर कोरोना से मन्द पड़ा कार उद्योग अचानक बिक्री के नए रिकॉर्ड बनाने के साथ मुस्कुराने लगा। जब पूरी नीति लागू होगी तब क्या होगा यह कल्पना मुश्किल है।
सबसे पहले ग्रीन ट्रिब्यूनल की बात। उसने दिल्ली-एनसीआर, जो ऑटोमोबाइल का सबसे बड़ा केन्द्र बन गया है, डीजल की गाड़ियों की उम्र दस साल और पेट्रोल की गाड़ियों की उम्र पन्द्रह साल तय कर दी। यह फ़ैसला सिर्फ़ नई गाड़ियों के लिए नहीं था बल्कि उन गाड़ियों पर भी लागू हुआ जिनका पन्द्रह और बीस साल का रोड टैक्स पहले वसूला जा चुका है। यह ग़ैर क़ानूनी फ़ैसला था। उस पर तुर्रा यह है कि पुरानी के बदले उसने स्क्रैप गाड़ी का चेचिस नम्बर बताने पर नई गाड़ी खरीदने पर हल्की छूट की घोषणा कर एहसान भी जता दिया।
बाक़ी चीजों में ग्रीन ट्रिब्यूनल को ठेंगे पर रखने वाली सरकार के सारे सिपाही 31 मार्च की तय तारीख़ के पास आते ही सड़कों पर कोहराम मचाने लगे। अब नई नीति में जो गोल मोल बातें हैं उनके आधार पर दावा किया जाने लगा है कि सरकार ट्रिब्यूनल के फ़ैसले से सहमत न थी। पर जिनको नई ऑटोमोबाइल नीति की झलक देखनी थी, उनको जन्नत की हक़ीक़त दिख गई। नई नीति को गोल मोल इसलिए कहा गया है कि इसमें वाहनों के फिटनेस टेस्ट और ग्रीन टैक्स लेकर चलने देने की इजाजत की चर्चा है लेकिन न फिटनेस के मानकों की चर्चा है और न ही ग्रीन टैक्स की दर की।
यह माना जाता है कि कम्पनियों को ही गाड़ियों का फिटनेस टेस्ट करना होगा (जिनको गाड़ी के अनफिट होने का सबसे ज़्यादा लाभ होगा)। ऐसे सेंटर बनाना आसान भी नहीं होगा और गाड़ियों की संख्या को देखते हुए यह भी एक बड़े निवेश की मांग करेगा। इसमें समय भी लगेगा। और फिर ग्रीन टैक्स ज़्यादा होगा, पुरानी गाड़ियों को चलाने से रोकना उद्देश्य होगा, यह बताने के लिए काफ़ी है कि उसे चुकाना सभी लोगों के वश का भी नहीं होगा।
जानकार मानते हैं कि देश में इस नीति के दायरे में आने वाले वाहनों की संख्या चार से साढ़े चार करोड़ के बीच होगी जिनमें से आधे से कम वाहन तय की गयी उम्र की सीमा के अन्दर हैं। जाहिर है काफ़ी सारे वाहन ज़िला पंजीयन कार्यालय की पहुँच और जानकारी से भी बाहर होंगे। और निश्चित रूप से ऐसे अधिकांश वाहन दूर देहात के इलाक़ों में होंगे, जिनके लिए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्वामीनाथन अय्यर भी (जिनकी कार उम्र की सीमा लांघकर भी फिट है और अमेरिका में रोज दौड़ती है) अभी भी पुराने वाहनों की सिफारिश करते हैं।
स्वामीनाथन अय्यर तो संसाधनों की बर्बादी रोकने के लिए ऐसे पुराने वाहनों को देहाती इलाक़ों और कम प्रदूषित क्षेत्रों के साथ कम आय वाले मुल्कों में सस्ता निर्यात करने की वकालत भी करते हैं।
कार को कबाड़ मानकर तोड़ना, गलाना और उसके धातुओं का दोबारा इस्तेमाल करने से बेहतर तो यही है कि किसी तरह उसमें इस्तेमाल हुई चीजों का तब तक अधिकतम इस्तेमाल किया जाए जब तक वे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से (अर्थात ज़्यादा प्रदूषण फैलाकर) हमारे लिए ख़तरा न बन जाएँ। यह कल्पना भी आसान नहीं है कि भारत जैसे ग़रीब मुल्क में बनी गाड़ियों में से दो करोड़ से ज़्यादा को हमारी ही सरकार कबाड़ बनाने जा रही है।
एक तो भारत जैसे देश में इतनी गाड़ियों के बनने, चलने और सार्वजनिक परिवहन की दुर्गति पर भी सवाल उठने चाहिए। साथ ही ये सवाल भी उठना चाहिए कि इतनी गाड़ियों से रोड टैक्स वसूलने के बाद भी टोल टैक्स वसूलने की ज़रूरत क्यों हैं? ये सभी गाडियाँ (चाहे वे जिस हाल में हैं, जहाँ भी हैं) लोगों और अर्थव्यवस्था के काम आ रही हैं। कल ये न होंगी तो उन पर असर होगा और नई गाड़ियाँ लेनी ही पड़ेंगी। यह सरासर लूट है, बैंक जमा पर सूद की दर कम करने से कई गुना ज़्यादा बड़ी लूट।
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